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सोमवार, 14 जनवरी 2013

भारतीय रेल हिजड़ों के शिंकजे में Indian railways under eunuch

गोवा यात्रा-02
जब हम स्टेशन के बाहर आये तो कमल को फ़ोन लगाकर पता किया कि सीट कन्फ़र्म हुई है या वेटिंग ही रह गयी है। जब कमल ने बताया कि हमारी तीनों सीट वेटिंग पर ही अटक गयी है। एक बार बम्बई में रहने वाले अपने दोस्त विशाल राठौर को भी फ़ोन लगाया गया कि मैं तो बस में हूँ आप घर पर हो तो हमारा PNR देखकर हमारी सीट की स्थिति बता देना, विशाल भाई ने मुझे कई बार फ़ोन करके सीट की जानकारी दी थी, जब हर तरह यह सुनिश्चित हो गया था कि आरक्षित सीट तो मिलने से रही तो लगने लगा कि अब आराम करते हुए गोवा जाना सम्भव ही नहीं होगा। मैंने अनिल को टिकट की लाईन ने लगाकर तीन टिकट ले लिये थे। तीन टिकट लेते समय यह ध्यान रखा था कि दो टिकट एक साथ व तीसरा टिकट अलग लिया जाये ताकि बिल्ली के भाग्य से छिका टूटने जैसे दुलर्भ घटना यदि गलती से भी हमारे साथ घट जाये तो हम उसी तरह टिकट वापिस करने को जा सकते थे। 

लोकल डिब्बे  का टिकट




दिल्ली में रेल भवन में कार्य करने वाले जानकार ने वैसे तो एक सीट कन्फ़र्म कराने की हाँ भर ली थी लेकिन अपनी वेटिंग देखकर लगा कि उसने हमारी बात अनसुनी कर दी थी नहीं तो ऐसा ना होता। वैसे हमने टिकट घर से बुक किये थे जिस कारण वेटिंग में रह जाने से वह टिकट अपने आप रदद हो जाने थे, जिस कारण हमें साधारण डिब्बे के टिकट लेकर गोवा की यात्रा करनी थी। अब यहाँ एक समस्या और आ गयी थी कि जिस गोवा एक्सप्रेस रेल से हम गोवा जा रहे थे उसका निजामुददीन से चलने का समय दोपहर बार तीन बजकर दस मिनट पर था लेकिन जब हम स्टेशन पहुँचे तो समय पौने तीन बज चुके थे, तभी हमारी रेल के बारे में घोषणा हुई कि गोवा एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से डेढ घन्टा देरी से प्रस्थान करगी।


आखिरकार चार बजे हमारी ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर आ गयी थी। हम प्लेटफ़ार्म के एकदम आखिरी छोर पर नई दिल्ली वाली दिशा में खडे थे एक रेलवे कर्मचारी ने हमें बताया कि इस ट्रेन में साधारण डिब्बे एकदम शुरु में लगाये जाते है और आप जहाँ खडे है यहाँ पर ट्रेन का आखिरी डिब्बा आयेगा। यदि आपको साधारण डिब्बे में बैठना है तो आपको प्लेटफ़ार्म के दूसरे छोर पर जाना होगा। हम अभी यह बाते कर ही रहे थे कि ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर आती दिखायी दी, अब हमारे पास इतना भी समय नहीं था कि हम भागकर आगे की ओर जा सके, क्योंकि ट्रेन देखकर सारी सवारियाँ प्लेटफ़ार्म पर आगे आ गयी थी जिस कारण वहाँ से निकलना सम्भव नहीं हो पाता। तभी अचानक मन में एक विचार आया कि क्यों ना यही से साधारण डिब्बे के दरवाजे पर यही से लटक लिया जाये। और आधा किमी की दूरी पार कर ली जाये। मैंने मौका देखकर साधारण डिब्बे पर लटक गया तभी एक खुशखबरी दिखायी दी कि एक बन्दा ट्रेन की आपातकालीन खिड़की से उसी डिब्बे में अन्दर घुस गया जिस डिब्बे के दरवाजे पर मैं लटका हुआ था। उस बन्दे ने अन्दर जाते ही सभी दरवाजे खोल दिये थे। दरवाजा खुलते ही मैंने खिडकी वाली दोनों सीटों पर अपना कब्जा जमा दिया, जब तक ट्रेन पूरी तरह रुकी तब तक साधारण डिब्बा पूरी तरह भर चुका था।






मैंने खिड़की वाली सीट पर कब्जा जमाया हुआ था जबकि कमल व अनिल चलती गाडी में नहीं चढ़ पाये थे जिस कारण उन्हें सारी रेल पार करके आगे आने में दस मिनट से ज्यादा लग गये थे। यहाँ आकर मोबाइल ने बड़ा सहयोग किया था जिस कारण अनिल व कमल मुझे तलाश कर पाये थे। डिब्बे में ज्यादातर सवारी मथुरा, ग्वालियर जैसी जगहों पर उतरने वाली थी, फ़िर भी गोवा तक जाने वाली काफ़ी सवारियाँ उस डिब्बे में मौजूद थी। दिल्ली से चलने के बाद हमारी रेल मथुरा तक ही कई बार रुक कर खड़ी हो गयी थी जिस कारण हम सब मजाक में कहते थे कि रेल के किसी पहिया में पेंचर हुआ है और चालक उस पहिया की टयूब बदलने के लिये बाजार चला गया है। यह पेंचर वाला किस्सा कई बार दोहराया गया था, गोवा तक ना जाने कितनी बार हमारी रेल कभी खेत के किनारे, कभी तालाब के किनारे, कभी कही, कभी कही, रुक कर खड़ी हो जाती थी। ग्वालियर तक पहुँचते-पहुँचते रात के साढे ग्यारह बज चुके थे। इस बीच मथुरा, आगरा, जैसी जगहों पर सवारियाँ उतरती चढ़ती रही।





रात में एक तो किसी तरह बज गया था लेकिन इसके बाद नींद ने सताना शुरु कर दिया था। चूंकि मैं खिड़की के नजदीक बैठा हुआ था अत: वहाँ थोडी-थोडी देर झपकी ले ली जाती थी। आखिरकार जब नींद ने खूब तंग किया तो मैने अपनी चददर निकाल कर सीट के बीच वाली जगह पर फ़ैला कर उस पर लेट गया, वहाँ पर जगह देख अनिल भी सो गया था, वहाँ बैठे सभी लोगों के पैर तो पहले ही आमने-सामने जी सीटों पर फ़ैले पड़े हुए थे। दो घन्टे बाद मेरी आँख खुली तो देखा कि सीट पर बैठे ज्यादातर लोग नींद के मारे एक दूसरे के ऊपर औंधे मुँह गिरे पड़े थे। हमारे साथ ही कर्नाटक के हुबली के पास का रहने वाला एक जाट रेजिमेंट का नौजवान फ़ौजी बैठा हुआ था। जब मैंने उठकर कमल को सोने के लिये नीचे लिटा दिया और मैं खुद खिडकी के पास बैठ गया, यहाँ मैंने फ़ौजी की नींद हालत देखी कि वह भी नींद से ज्यादा ही परेशान था जब मैं खिड़की पर बैठा हुआ था तो फ़ौजी मेरे सहारे सो गया। किसी तरह दिन निकला, अब जाकर सबकी जान में जान आयी थी।




दिन निकलते ही एक नयी समस्या सामने आ गयी थी कि सुबह उठते ही सबसे पहले सबको अपना पेट का प्रेशर हल्का करने की चिंता सताने लगी थी। चिंता की बात इसलिये थी कि लोगों ने साधारण डिब्बे के टायलेट पर भी कब्जा जमाया हुआ था। टायलेट में घुसे लोग इतने बेशर्म थे कि कोई सू-सू करने जाये तो वहाँ से निकलते भी नहीं थे, इस साधारण डिब्बे में इतनी बुरी हालत भीड़ के कारण हो गयी थी कि वहाँ से निकलना भी किसी जंग जीतना जैसा हो रहा था। सबसे बड़ी परेशानी महिलाओं के लिये थी, जिनको उस भयंकर भीड़ से निकलकर टायलेट जाना पडता था उसके बाद वहाँ मौजूद लोगों को बाहर निकालना पड़ता था। हमें तो इस तरह की आदत नहीं थी अत: हम अपना काम निपटाने के लिये पीछे वाले डिब्बे के पास आरक्षित डिब्बे के टायलेट का प्रयोग कर आये थे।



किसी तरह इन समस्याओं से मुकाबला हो ही रहा था कि आज का शीर्षक जिस वजह से बनाया है उसकी बात करना बहुत जरुरी है इसके बिना रेल यात्रा का वर्णन अधूरा ही रहेगा। मैंने उत्तर भारत में बहुत यात्राएँ की है लेकिन दिल्ली के आसपास के मुकाबले दिल्ली से दूर के इलाके में जाते ही रेल पर हिजड़ों / छक्कों / नपुंसकों का जबरन कब्जा दिखाई देने लगता है। आप भी यदा-कदा रेल यात्राएँ करते ही रहते हो, अत: आपको भी इस हकीकत के बारे में पता ही है कि मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र में यह हिजड़ा समस्या कुछ ज्यादा ही प्रबल हो गयी है, अगर तीन-चार सवारियों का समूह है तो उनसे ज्यादा पंगे नहीं लेते है लेकिन इसके उल्ट यदि इन छक्कों को कोई अकेला सीधा-साधा ग्रामीण अनपढ़ (आम भाषा में बिहारी/पूरबिया गरीब जैसा) जैसा दिखने वाला कोई बन्दा मिल जाये तो ये छक्के / हिजड़े उसकी पेंट तक उतराने पर उताऊ हो जाते है। इन हिजड़ों की हिम्मत या दुस्साहस इतना होता है कि परिवार वाला इन्हें देखकर दूर से ही रुपये दे देता है। हमारे साथ ही ऊपर वाली सीट पर एक हरियाणा का जोड़ा बैठा हुआ था जो हर हिजड़े के आते ही चुपचाप दस रुपये दे देता था। ट्रेन बीच-बीच में कई जगह रुकती थी लेकिन इन हिजड़ों को देखकर टीटी व पुलिस वाले भी कुछ नहीं कहते थे। जिस कारण अपना आज का शीर्षक बनाना पड़ा है कि भारतीय रेल पर हिजड़ों का कब्जा। हिजड़ों का नेट्वर्क भी जबरदस्त है एक के उतरते ही दूसरा हाजिर हो जाता था। मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र में इनका ज्यादा जोर देखने को मिला। किसी तरह रात में इनसे छूटकारा मिल पाता था। लेकिन मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य इन हिजड़ों को गोवा आने से पचास किमी पहले सुबह के समय दूध सागर के पास भी उगाही करते देखकर हुआ था। अपुन ठहरे कंजूसों के बाप, अत: हमारी जेब से एक रुपया भी इनके लिये ढ़ीला नहीं हुआ था, वो अलग बात है कि एक-आध बार किसी जरुरत वाले बन्दे को कुछ दे दिया था।




जब ट्रेन ने गोवा में प्रवेश किया था तो उस समय तक हमारी ट्रेन पाँच घन्टे देरी से चल रही थी, देरी से चलने का कभी-कभी लाभ भी हो जाता है, जैसे इस यात्रा में हुआ भी था। अगर हमारी ट्रेन समय से गोवा पहुँचती तो हम गोवा का विश्व भर में मशहूर दूध सागर झरना doodh sagar water fall नहीं देख सकते थे, ट्रेन लेट होने से दूध सागर झरना देखना भी सम्भव हो गया था। वैसे बाद में हम गोवा में ट्रेकिंग करते हुए इस झरने व इस रेलवे लाईन से पैदल चलते हुए गये थे। लेकिन ट्रेन से इसे देखना एक अलग अनुभव रहा। हमारी ट्रेन दोपहर में गोवा के मुख्य स्टेशन मडगाँव पहुँच गयी थी, हमें यही उतरना था जबकि ट्रेन को अभी और आगे वास्कोडिगामा स्टेशन तक जाना था। हम स्टेशन से बाहर निकल आये जहाँ से हमें पणजी जाने के लिये बस पकडनी थी।   




मडगाँव स्टेशन से बाहर आने के लिये ऊपरगामी पैदल पुल का प्रयोग करना होता है, यहाँ से बाहर आते ही मुझे एक नारियल वाला दिखाई दिया, मैं नारियल खाने व उसका पानी पीने के लिये उस ओर लपका तो एक बाइक वाले ने मुझे टोका कि बस अड़डा जाना है क्या? हमें बस अड़डे जाना तो था लेकिन मुझे पहले कच्चा नारियल खाना था अत: मैं नारियल वाले के पास जा पहुँचा, मेरे साथ अनिल ने भी एक नारियल पर हाथ साफ़ कर दिया था। नारियल वाले से हमने बस अड़डे जाने के सस्ते साधन के बारे में पता किया था उसने बताया था कि आप बाइक से वहाँ जाओगे तो यह एक बन्दे के पचास रुपये ले लगा, आटो वाला भी तीनों के सौ से ज्यादा ही ले लेगा। आपके लिये सबसे अच्छा यही है कि आप स्टेशन से निकलकर सामने सीधी वाली सड़क नुमा गली से आगे तीन सौ मीटर आने वाले चौक तक चले जाओ वहाँ से आपको बस अड़डा जाने के लिये छोटी-छोटी बसे मिल जायेगी जिसमें आपका सभी का मुश्किल से बीस रुपये किराया लगेगा। हम सामने वाली सड़क पर चल पड़े। बाकि अगले भाग में



 
अगले लेख में आपको बताया जायेगा कि हमने रेल से गोवा यात्रा समाप्त करने के बाद कैसे मौज मस्ती की थी।





गोवा यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे क्रमवार दिये गये है। आप अपनी पसन्द वाले लिंक पर जाकर देख सकते है।

भाग-10-Benaulim beach-Colva beach  बेनाउलिम बीच कोलवा बीच पर जमकर धमाल
भाग-13-दूधसागर झरने की ओर जंगलों से होकर ट्रेकिंग।
भाग-14-दूधसागर झरना के आधार के दर्शन।
भाग-15-दूधसागर झरने वाली रेलवे लाईन पर, सुरंगों से होते हुए ट्रेकिंग।
भाग-16-दूधसागर झरने से करनजोल तक जंगलों के मध्य ट्रेकिंग।
भाग-17-करनजोल कैम्प से अन्तिम कैम्प तक की जंगलों के मध्य ट्रेकिंग।
भाग-18-प्राचीन कुआँ स्थल और हाईवे के नजारे।
भाग-19-बारा भूमि का सैकड़ों साल पुराना मन्दिर।
भाग-20-ताम्बड़ी सुरला में भोले नाथ का 13 वी सदी का मन्दिर।  
भाग-21-गोवा का किले जैसा चर्च/गिरजाघर
भाग-22-गोवा का सफ़ेद चर्च और संग्रहालय
भाग-23-गोवा करमाली स्टेशन से दिल्ली तक की ट्रेन यात्रा। .
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21 टिप्‍पणियां:

  1. हिजड़ों से तो भगवान भी नहीं बचा सकता। बढिया यात्रा चल रही है।

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    1. ललित भाई इन सभी हिजड़ों को भगवान भी नहीं बनाता है, ज्यादातर नोट खसोटने के चक्कर में बने रहते है।

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  2. यात्रा सफल हो ..और अनेकानेक चित्र गोवा के देखने को मिले..

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  3. संदीप जी भारतीय रेल के सामान्य डिब्बे में यात्रा करना किसी युद्ध लड़ने से कम नहीं हैं...वन्देमातरम..

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    1. प्रवीण जी युद्ध से बन्दा भाग तो सकता है, यहाँ तो वो भी मुमकिन नहीं हो पाता।

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  4. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 15/1/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है

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  5. बिना आरक्षण यात्रा अपने आप में एक अनुभव है।
    रास्ते के फोटो बड़े शानदार हैं।

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  6. यात्रा के सुन्दर चित्र, कैसलरॉक व दूधसागर बरसात में सौन्दर्य ओढ़ लेते हैं।

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  7. नम्बर एक... ईयूनुच माने हिजडा... जरूर आपने भी डिक्शनरी में देखा होगा।
    नम्बर दो... शीर्षक के हिसाब से हिजडों को पर्याप्त कवरेज नहीं मिली है। तीन चार फोटो होने चाहिये थे और वार्तालाप की झलक भी होनी चाहिये थी.. आखिर आपने एमपी महाराष्ट्र में पूरा एक दिन लगाया है।
    नम्बर तीन... एक सुपरफास्ट ट्रेन से बाहर के फोटो कैसे आयेंगे, उसके लिहाज से फोटो अच्छे हैं।
    नम्बर चार... अनमोल आइसक्रीम वाला फोटो पुणे- सतारा के बीच का है। है ना?

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    1. नेट से तलाश करना पड़ा था, कई लोगों से पूछा था लेकिन किसी को याद नहीं आ रहा था।
      हिजड़ों से जितना दूर रहे, उतना ही अच्छा है, कम लिखे को ही ज्यादा समझे। हा हा हा
      इस यात्रा के सारे फ़ोटो मोबाइल से लिये गये है।
      आइसक्रीम शायद शाम के समय खायी थी, जबकि पुणे तो रात को नौ बजे पहुँचे थे।

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  8. संदीप जी....अक्सर रेल की यात्रा में इनसे (हिजड़ो)समाना हो जाता हैं....बड़ा ही तंग करते हैं....पैसे के लिए...| एक बार यात्रा के समय मैंने इनके पास पांच सौ की पूरी गड्डी देखी थी....कितना लुटते हैं पब्लिक को....| मोबाइल के हिसाब से यात्रा के फोटो बड़े ही अच्छे आये हैं....

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    1. भारतीय रेल इनके शिकंजे में आ चुकी है, गरीब लोगों को यह बहुत तंग करते है, मोबाइल कैमरे की बराबरी कर रहा है।

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  9. संदीप भाई टिकिट कन्फर्म है की नहीं आपने मुझेसे पूच्छा था. दुधसागर के चित्र अच्छे है लेकिन पानी कम है . नीरज की बात से सहमती कि हिजडो के बारे में कम लिखा है . अब आगे .

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    1. हाँ विशाल भाई मैंने आपको भी फ़ोन किया था, अभी अपडेट करता हूँ।

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  10. एक लघु भारत को आँखों के सामने ला दिया आपने ..वाह भई ..बड़ा मजा आया ....

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  11. गोवा मे कितने पैसे लगे लगभग

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  12. गोवा मे कितने पैसे लगे लगभग

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