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गुरुवार, 8 नवंबर 2012

जोधपुर किला (मेहरानगढ दुर्ग) Jodhpur Fort, (Mehrangarh )


पिछले लेख पर आपको नागौरी दरवाजे तक लाकर किले की एक झलक दिखाकर ईशारा सा कर दिया गया था कि अगली लेख में आपको क्या दिखाया जायेगा? तो दोस्तों आज के लेख में हम चलते है, मेहरानगढ दुर्ग की ओर........ आगे चलने से पहले आपको नागौरी दरवाजे के बारे में भी थोडा सा बता दिया जाये तो बेहतर रहेगा। इतिहास अनुसार- बताया जाता है कि यहाँ के तत्कालीन महाराजा अभय सिंह ने अपने शासन काल 1724 से 1749 की अवधि में इस नागौरी दरवाजे का निर्माण कार्य कराया था। इस ओर से नागौर शहर जाया जाता था इसलिये इसका नाम नागौरी दरवाजा पड गया था। अब इस दरवाजे से आगे  दुर्ग की ओर चले चलते है।



इस नागौरी दरवाजे से आगे जोधपुर का विश्व प्रसिद्ध मेहरानगढ दुर्ग ज्यादा दूर तो नहीं बचा था, लेकिन दुर्ग तक पहुँचने के लिये चढाई पर लगातार चढना पड रहा था, चढाई फ़्लाईओवर जितनी ही दिख रही थी। अप्रैल माह में राजस्थान की गर्मी में उस चढाई चढने में पसीना आने लगा था। किले से पहले एक शानदार मन्दिर दिखाई दे रहा था जिसके बारे में पिछले लेख में एक फ़ोटो भी दिखाया गया था। हम दोनों की इच्छा उस मन्दिर तक जाने की थी लेकिन पहले किला देखने के चक्कर में मन्दिर हमसे छूट गया था। मन्दिर छूटने का प्रमुख कारण मन्दिर का मुख्य सडक से थोडा सा हटकर होना था। हम सीधे मार्ग पर (वैसे था घुमावदार मार्ग) पर चलते रहे। जब किला थोडी ही दूर था तो किले से ठीक पहले वाहनों के खडे करने करने के लिये पार्किंग दिखाई देनी लगी। इस पार्किंग के सामने ही एक तालाब बना हुआ था जिसमें बरसात का जमा किया हुआ था। हम तालाब से आगे बढे तो किले का प्रवेश द्धार दिखाई दे गया था। किले के बारे में ज्यादा जानने के लिये यहाँ देखे।


किले में प्रवेश करने से पहले, यहाँ की ऊँचाई से जोधपुर शहर की एक झलक देखने को मन मचल उठा था। जैसे ही पहाडी के एक छोर से शहर पर पहली नजर गयी तो आँखे जहाँ तक देख पा रही थी नीली-नीली दीवारे दिखाई दे रही थी। मैंने सुना तो था जयपुर को गुलाबी शहर, जैसलमेर को सुनहरा शहर व जोधपुर को नीला शहर कहा जाता है। आज अपनी आँखों से यह नील नगरी देख कर सुनी हुई बात पर विश्वास भी हो गया कि लोग सही कहते है। किले के बाहर एक छतरी बनी हुई थी वहाँ उसके बारे में कुछ नहीं लिखा हुआ था। अत: आपको क्या बताऊँ? किले के अन्दर प्रवेश करते ही जेब ढीली करने की बारी आ गयी थी। जी हां आप सही समझ रहे हो, यहाँ पर प्रवेश करने के लिये टिकट लेना पडता है यदि आपके पास कैमरा है तो आप आपको सौ रुपये ज्यादा अदा करने पडेंगे। 


जेब से थोडा सा वजन हल्का कर, टिकट लेकर हम आगे बढ चले, थोडा सा आगे चलते ही एक छतरी बनायी हुई थी जिसका फ़ोटो मैंने लगाया हुआ है। इस छतरी का राज भी उस फ़ोटो में बताया गया है, अत: मैं उसकी कहानी बताने नहीं जा रहा हूँ। यहाँ से आगे-आगे जोरदार चढाई का सामना करना पडता है। इस चढाई को देखकर हिमालय की चढाई याद आने लगती है। तेज चलते ही साँस फ़ूकनी की तरह करने लग जाती है। लेकिन यह चढाई मुश्किल से पाँच मिनट में ही समाप्त हो जाती है। इसके बाद एक बार फ़िर सामने जोरदार चढाई दिख रही थी। ऊपर किले की खडी ईमारते थी जिनके झरोखे चढाई चढते समय दिखाई दे रहे थे। आगे चलने पर एक और संकरा दरवाजा आ गया था। इसके बारे में पता लगा कि यदि दुश्मन सेना यहाँ तक भी किसी तरह आ जाये तो संकरा मार्ग होने के कारण ज्यादा संख्या में एक साथ नहीं घुस पाती थी जिस कारण उनसे निपटना आसान कार्य होता था। यहाँ एक दरवाजा भी था एक घुमावदार मार्ग से आगे जाने पर किले के मुख्य भाग में प्रवेश करना होता है हमने भी मुख्य भाग में प्रवेश कर लिया था। आप भी साथ-साथ चलते रहे, पीछे छूट गये तो किला देखे बिना रह जाओगे।


यहाँ दरवाजे से आगे चलने पर उल्टे हाथ एक विशाल दीवार के अलावा कुछ नहीं है, जबकि सीधे हाथ राजा महाराजा के रहने के लिये शानदार पत्थर की नक्काशी वाले महल बनाये गये है। हमने महल देखने से पहले किले का सबसे आखिरी कोना देखना की ठान रखी थी। अत: हम सीधे चलते रहे, आगे जाने पर पाया कि आगे थोडा सा खुला मैदान भी है यहाँ सौनिकों के रहने के लिये बैरिक भी बने हुए थे। जहाँ पर इस महल की सुरक्षा करने के लिये सैनिक रखे जाते थे। थोडा और आगे चलने पर हमें किले की चारदीवारी पर रखी हुई बहुत सी तोपे दिखाई देनी लगी। उनका फ़ोटो भी लिया गया था, आप देख सकते है। तोप देखने के बाद इस किले मॆं बने हुए उस मन्दिर की ओर बढ चले जिसके बारे में आपने देखा-सुना होगा कि कई साल पहले यहां नवरात्रि में मची भगदड से दौ सौ से ज्यादा लोग भगदड मचने से कुचले कर मारे गये थे।


मन्दिर तक आने-जाने से हमें एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि यहाँ ऐसा कुछ कारण होगा जिससे यहाँ इतना बुरा हाल हुआ होगा। मन्दिर आने-जाने का काफ़ी चौडा मार्ग है। लोहे की रेलिंग भी लगी हुई है। फ़िर भी पता नहीं भगदड कैसे हुई होगी। हो सकता हो किसी ने जानबूझ कर कोई अफ़वाह फ़ैलाई होगी जिससे वहाँ इतने लोग मारे गये थे। मन्दिर के बराबर में ही एक तालाब था उस समय उसमें पानी बहुत कम ही बचा था लेकिन बरसात में वहाँ काफ़ी मात्रा में पानी एकत्र हो जाता होगा। जिससे काफ़ी दिनों का काम चल जाता होगा।


मन्दिर देखने के बाद वापिस उसी मार्ग से आना पडा, जिससे मन्दिर तक गये थे। वापिस आते समय किले का वह भाग देखना था जो जाते समय छोड दिया गया था। यहाँ भी अलग से एक टिकट लेना पडता है, कैमरा भी यहाँ फ़्री में फ़ोटो नहीं ले सकता है उसके लिये भी दाम चुकाने होते है। टिकट लेकर आगे बढे। किले का यह हिस्सा राजा-रानी का निजी हिस्सा था, यहाँ आम जनता नहीं जा सकती थी। आगे अन्दर प्रवेश करते ही दो-तीन मंजिल अन्दर ही अन्दर ईधर-उधर घुमा-फ़िरा कर एक विशाल प्रांगण में पहुँचा दिया गया जहां से हमें यहाँ के संग्रहालय देखने के लिये बारी-बारी से अलग-अलग कमरों में जाना पडता था। हर कमरे में राजा-रानी का कुछ ना कुछ सामान रखा गया था। पालकी से लेकर, घोडे पर बैठने का सामान, कपडे, हथियार, तलवार, भाले आदि कई तरह के हथियार यहाँ पर प्रदर्शित किये गये थे।

इस संग्रहालय में सबसे अच्छी चीज लोहे का मानव बुर्का/पिंजरा जैसा दिखाई देने वाला शस्त्र लगा। इस लोहे के बुर्के को पहनकर जब कोई राजा लडाई लडता था तो उस पर हल्के-फ़ुल्के वार से कुछ फ़र्क नहीं पडता था। इस लोहे के बुर्के का वजन लगभग पच्च्सी किलो के आसपास था जिसे कोई हल्का फ़ुल्का मानव तो पहनकर चलफ़िर भी नहीं सकता था लडाई लडना तो दूर की बात रहती होगी। कई हिन्दी फ़िल्मों में भी इस तरह के लोहे के बुर्के दिखाये गये है। कई मंजिल तक चढने रहने पर संग्रहालय के सम्पूर्ण भाग को देखा जा सकता है। जहाँ तक हमें जाने दिया गया वहाँ तक हमने कुछ नहीं छोडा था। 


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इस संग्रहालय को देखने के बाद किले से बाहर निकलने के लिये चल दिये थे। जैसे ही किले से बाहर आने के लिये बीच वाले मुख्य दरवाजे तक पहुँचे तो वहाँ दीवार पर बने हुए हाथों के निशान देखकर, वे घटनाएँ आँखों के सामने घूमती हुई दिखायी दी जो कभी यहाँ पर सचमुच घटित हुई होंगी।  इन हाथों के निशानों के बारे में बताया जाता है कि लडाई लडते समय जब सैनिक समाप्त हो जाते थे तो महिलाएँ अपनी आबरु बचाने के लिये अपनी जान दे देती थी। इस कार्य को जौहर  कहा जाता था। इसे करने के लिये बताया जाता है कि किले में आग का एक विशाल ढेर जलाया जाता था। और औरते उस आग के ढेर में कूदकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देती थी। धन्य है ऐसी वीरांगना जो दुराचारी के हाथों की रखैल ना बनकर शान से अपना जीवन समाप्त करना बेहतर मानती थी। लेकिन सब की सब तो जौहर नहीं कर पाती होंगी, काफ़ी औरते अपने जीवन से कुछ ज्यादा ही प्यार करती होंगी, लेकिन जीवन बचाने की कीमत के बदले, उन्हें उनकी अस्मत का उन हमलावर लूटेरों ने बुरा हाल किया होगा।


किले से बाहर निकल कर हमारी मस्तानी जोडी सुरसागर सरोवर देखने चल पडी, अगले लेख में सुरसागर सरोवर व उससे आगे कायलाना उद्यान की सैर, 
हो सका तो रावण की ससुराल भी दिखाई जायेगी.............(क्रमश:)    
   


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20 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया फोटोस.... सबसे पहली फोटो बहुत अच्छी लगी ....

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  2. हाथ का निशान क्या उन वीरांगनाओं का होता था जिन्होंने जौहर की आग में कूद कर प्राण दे दिये?
    सही चल रहा है सफ़र दो दीवानों-मस्तानों का:)

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    1. संजय भाई वैसे तो निशान पत्थर के बनाये गये है लेकिन है उन्ही वीरांगनाओं की याद में।

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  3. गज़ब भाई मज़ा आ गया इतने सुन्दर फोटो वाकई ज़वाब नहीं, किले की ऐतिहासिकता को आपने बखूबी दिखाया हैं. महरान गढ़ की चढाई में पसीने तो आ ही जाते हैं, हमने भी मई के महीने में चढाई की थी, गर्मी के कारण और चढाई के कारण हालत पस्त हो गयी थी.. धन्यवाद, बहुत बहुत, जय माता की, वन्देमातरम.....

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  4. जाट भाई किले में बाई क भी जा सकती है क्या ?

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    1. मनु भाई बाइक अन्दर जा सकती है लेकिन वहाँ के रखवाले गेट से आगे जाने ही ना देंगे। बाहर पार्किंग में ही खडी करनी पडेगी।

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  5. पंदरा सो दिन रातड़ो जेठ मास मे जाण
    सुद ग्यारस शनिवार रो मंडियो गढ़ महराण

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  6. इच्छा तो बहुत रही है पर आजतक जाना नहीं हो पाया है ... आपकी इस पोस्ट के माध्यम से घर बैठे बैठे ही काफी घूम लिए ... आभार !

    क्यूँ कि तस्वीरें भी बोलती है - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  7. इस तरह के एतिहासिक किले देखकर हमें बड़ा रोमांच महसूस होता है . भूतकाल में खो से जाते हैं . जाने कैसी जिंदगी होती होगी उस समय.

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  8. तस्वीरों के साथ बहुत सुन्दर प्रस्तुति । धन्यवाद और आभार ।

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  9. छायांकन के साथ दोस्त भाषा शैली में भी निखार आया है वर्तनियाँ भी परिशुद्ध होतीं गईं हैं कालान्तर में हालाकि मूलतया आप छायाकार हैं फिर भी बस खड़ा .चढ़ा ,आदि के नीचे बिंदी और जड़ दिया

    करें .आपकी टिप्पणियाँ हमारे लेखन को भी अनुप्राणित करती हैं बिंदास लिखते हो दोस्त जाट की तरह सब कुछ पारदर्शी .शुक्रिया .

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  10. अति सुन्दर ..मनभावन सफ़र.. वाह!

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  11. आप राजस्‍थान यात्रा पर है म्‍हारो राजस्‍थान मे आपका दिल से स्‍वागत है आप जब यहा पर है तो एक बार तिजारा जिला अलवर के जैन मन्दिर को अवश्‍य देखे यह तिजारा अलवर से 60 किमी दिल्‍ली की तरफ और गुडगावा से 60 किमी अलवर के मध्‍य मे स्थित है जरूर आये आपका स्‍वागत है

    दीपावली की तहेदिल से मुबारकबाद

    यूनिक ब्लॉग--------- आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाऐं

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    1. विनोद जी आज से सात साल पहले मात्र एक बार तिजारा व यहाँ के शानदार विशाल प्रांगण वाला मन्दिर देखा था। हम धारुहेडा होते हुए गये थे।

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  12. दीपावली पर्व के अवसर पर आपको और आपके परिवारजनों को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें...

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  13. किले के विहंगम दृश्यों ने अभिभूत कर दिया...आपकी किस्सागोई ने भी...

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  14. संदीप भाई

    किल्ले में घुसने के लिए पैसे देना ठीक बात है. लेकिन उस पैसे से अगर किल्ले का मेंटेनन्स न किया जाए बराबर से तो यह एक बुरी व्यवस्था है. जौहर के बारे में जब भी जिक्र होता है मेरी रूह कापती है. मुझे ज़रा भी अगर शारीर में जलन हो जाए तो मैं आग बबूला हो जाता हूँ . सोचता हूँ क्या होता होगा जब वे वीर औरते पूरी की पूरी जल जाती होगी.

    अच्छी पोस्ट जोधपुर के किल्ले पर .

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  15. जब मैं क्लास 7 में थी तब स्कुल की ट्रिप से यहाँ गई थी ..तोपों की याद आज भी बरकरार है ..तब इस किले को हमने दौड़ते हुए पार किया था ..यहाँ का वो कमरा जिसमें सूरज बना है आज भी याद है ....धूमते रहो साथ है हम भी ......

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  16. रजवाड़ों का रहन सहन......वाकई बेहद दमदार था
    दीपावली पर्व के अवसर पर आपको और आपके परिवारजनों को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें...

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