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सोमवार, 4 अगस्त 2014

Rani Lakshmi bai's Jhansi Fort रानी लक्ष्मीबाई वाला झांसी का किला

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-12                               SANDEEP PANWAR, Jatdevta
इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद

आज के लेख में दिनांक 28-04-2014 को की गयी यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। यदि आपको इस यात्रा के बारे में शुरु से पढना है तो ऊपर दिये गये लिंक पर क्लिक करे। इस यात्रा में अभी तक आपने पढा कि मैं खजुराहो, ओरछा भ्रमण करने के बाद झांसी पहुँच गया। झांसी व उसके आसपास कई स्थल देखने लायक है उनमें झांसी का किला सर्वोपरी है। देश को अंग्रेजो से मुक्त कराने की पहली लडाई में बुन्देलखन्ड के वीरों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से जमकर मुकाबला किया था। सन 1857 के गदर में बुन्देलखन्ड के वीरों ने अंग्रेजों की हालत खराब की थी।
ऑटो से उतरने के बाद देखा कि मैं किले की दीवार के नजदीक ही हूँ। किले की दीवार उल्टे हाथ सामने की तरफ़ दिखायी दे रही थी। एक बन्दे से पूछा कि किले में जाने का मार्ग किधर है? उसने बताया कि उल्टे हाथ ऊपर की ओर जो सडक जा रही है वही किले के दरवाजे के आगे से होकर जायेगी। मैं उस सडक पर चल दिया। लगभग 300 मी चलने के बाद किले का प्रवेश द्वार दिखायी दिया। यह सडक आगे उतराई में सीधी चली जाती है। वापसी में मुझे इसी सडक पर जाना पडा। सीधे जाने पर यह सडक झांसी रेलवे स्टेशन की ओर चली जाती है। किले के प्रवेश दरवाजे से आगे चलते ही इसमें ढलान आरम्भ होती है। किला एक पहाडी टीले पर बनाया गया है।
किले में अन्दर जाने से पहले टिकट लेना पडा। टिकट की राशि मात्र 5 रु ही है। किले के बाहर ही एक बोर्ड पर, शाम को होने वाले लाइट एन्ड साऊण्ड शो के बारे में भी लिखा हुआ है। किले के खुलने व बन्द होने का समय सूर्य अनुसार है। सूर्य निकलेगा तो किला खुलेगा यदि किसी दिन सूर्य नहीं निकला तो उस दिन किला खुलना मुश्किल है इसलिये यहाँ जाने से पहले मौसम विभाग से यह अवश्य सुनिश्चित कर ले कि कल सूर्य जरुर निकलेगा। अगर सूर्य नहीं निकला तो आपका यहाँ जाना बेकार हो सकता है?
किले का दरवाजा काफ़ी बडा बनाया हुआ है। किलों के दरवाजे सभी जगह विशाल रुप में बनाये गये है। इसके पीछे असली कारण सुरक्षा का रहता था। जितनी ऊँची दीवार हो उस पर विजय पाना उतना ही मुश्किल हो जाता है। दुश्मनों का सबसे पहला हमला किले के प्रवेश दरवाजों पर ही होता था क्योंकि यहाँ से किले में घुसना सरल होता था। इसलिये किले की सुरक्षा की सबसे ज्यादा आवश्यकता यही होती थी।
किले की सैर कराने से पहले झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के बारे में कुछ बाते हो जाये- रानी का जन्म 19 नवम्बर 1835 को वाराणसी जिले के भदैनी में हुआ था। कुछ जगह इनके जन्म स्थल के बारे में काशी के असीघाट इलाके का जिक्र हुआ है। इनकी मृत्यु 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास हुई थी। इस तरह देखा जाये तो रानी की मौत केवल 23 साल की उम्र में हो गयी। इनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था। जिसे प्यार से मनु कहकर पुकारा जाता था। मणिकर्णिका नाम से वाराणसी में गंगा किनारे एक घाट बना हुआ है। इस घाट में केवल महिलाये ही स्नान कर सकती है? रानी की माता का नाम भागीरथी बाई व पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। तांबे नाम से ही जाहिर होता है वह मराठा होंगे। रानी के पिता अन्तिम मराठा शासक पेशवा बाजीराव दितीय के यहाँ काम करते थे।
जब मनु की माता का देहांत हुआ तो उस समय इनकी उम्र मात्र 4 साल की थी। माता के देहांत के बाद मनु की देखभाल वाला कोई नहीं था अत: मनु को पिता के पास बिठुर आना पडा। घर में कोई अन्य प्राणी ना होने के कारण मनु के पिता पेशवा बाजीराव के दरबार में भी मनु को साथ ही रखते थे। बचपन में रानी लक्ष्मीबाई काफ़ी चुलबुली व्यवहार की थी जिस कारण इनका नाम छबीली पड गया। राजमहल में रहने के कारण मनु घुडसवारी व युद्द में निपुण हो गयी। मात्र 7 साल की उम्र में 1842 में इनका विवाह झांसी के मराठा शासित राजा गंगाधर निम्बालकर/ निवालकर के साथ कर दिया गया। इस कारण मनु उर्फ़ छबीली झांसी की रानी कहलायी। विवाह के बाद मनु का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया।
मात्र 16 वर्ष की उम्र में सन 1851 में रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झांसी राज्य ने रानी के पुत्र होने पर उत्सव मनाया लेकिन बीमारी के कारण मात्र 4 माह में ही उस शिशु की मौत हो गयी। दो वर्ष बाद राजा गंगाधर राव को बीमारी ने घेर लिया तो उनके सलाहकारों ने उन्हे एक पुत्र गोद लेने को कहा। राजा गंगाधर ने अपने परिवार से एक बच्चा गोद ले लिया। जिस पुत्र को गोद लिया था उसका नाम दामोदर राव रखा गया, लेकिन इसके बाद राजा ज्यादा दिन जीवित नहीं रह पाये और 21 नम्बर 1853 को चल बसे। कहते है कि राजा अगले दिन ही चल बसा था।
इस समय तक भारत के अधिकतर क्षेत्र अंग्रेजी शासन के अधीन आ चुके थे। लार्ड डलहौजी ने एक नया नियम बना दिया। अंग्रेजों ने भारत के छोटे-छोटे राज्य हडपने के लिये एक नीति बनायी थी कि जिस राज्य का शासक बिना औलाद मर जायेगा। उसे अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जायेगा। अंग्रेजों ने झांसी को अपने अधीन करने की योजना पर काम करना शुरु कर दिया। इसी कारण अंग्रेजों ने राज्य हडपने की कुटिल नीति अनुसार झांसी की रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया।
अंग्रेजों ने रानी को एक पत्र लिखा कि आपका गोद लिया गया पुत्र आपके राज्य का उत्तराधिकारी नहीं है। अंग्रेजों ने झांसी को अंग्रेजी हुकूमत में मिलाने का फ़ैसला कर लिया तो रानी ने अंग्रेजी वकील जान लैंग से बातचीत के बाद अदालत में मुकदमा कर दिया। जब जज भी अंग्रेज ही हो तो फ़िर उम्मीद कम ही थी कि रानी के हक में फ़ैसला हो पाये। रानी के यह कहने पर कि मैं अपनी झांसी नहीं दूँगी वाली बात से अंग्रेज चिढ गये।
रानी मुकदमा हार गयी और अंग्रेजों ने राज्य के खजाने पर कब्जा कर लिया। रानी के पति को दिये गये कर्ज को रानी की दी जाने वाली वार्षिक सहायता में से काटना शुरु कर दिया। रानी को किले से भी बाहर निकालने की नौबत आ गयी। झांसी की रानी महल में जाकर रानी रहने लगी। रानी ने अंग्रेजों के साथ लडाई की तैयारी करनी शुरु कर दी। रानी ने किले की प्राचीर पर तोप तैनात करवा दी। रानी ने सोने व चाँदी के बर्तन जेवर आदि बेचकर तोप के गोले बनाने के लिये दे दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों ने झांसी पर हमला कर दिया। रानी को पहले से ही लडाई की तैयारी करने का लाभ मिला।
जिस समय अंग्रेजों ने झांसी पर हमला किया था उस समय यह किला मराठा शासित राज्य हुआ करता था। यह झांसी की रानी का ही इरादा था कि उन्होंने जीते जी झांसी पर कब्जा नहीं होने दिया। रानी ने गुपचुप रुप से सेना बना ली। इस सेना में महिलाओं ने भी बढ-चढकर योगदान दिया। आम जनता भी अपनी रानी के साथ खडी दिखाई देने लगी। रानी लक्ष्मीबाई की एक हमशक्ल झलकारी बाई थी जिसे सेना में अच्छा पद दिया कि ताकि लडाई के समय ऐसा लगे कि रानी खुद लडाई लड रही हो।
झांसी के किले में जो तोपे थी उनमें कडक बिजली, किले में घुसते ही सबसे पहले यह तोप दिखायी देती है। आज इस तोप पर जंग लगना शुरु हो चुका है। इस तोप को देखकर ही मैं आगे बढा। किले में भवानी शंकर नामक तोप भी है। इन तोपों को चलाने वाले तोपची गौस खाँ व खुदा बक्स थे। किले में अन्दर घुसते ही एक अन्य दरवाजा है जो किले की प्राचीर पर बना हुआ है। मुख्य दरवाजा किले की प्राचीर से अलग है।
सन 1857 के सितम्बर व अक्टूबर माह में झांसी के पडौसी राजाओं ओरछा व दतिया राजाओं ने झांसी पर हमला बोल दिया। रानी ने इसका डटकर मुकाबला किया और विजय प्राप्त की। सन 1858 के मार्च माह में अंग्रेजी सेना ने झांसी पर कब्जा करने से इरादे से हमला बोल दिया। अंग्रेजों ने किले पर लगातार आठ दिन तक गोले बरसाये। जब अंग्रेज सेनापति ने देखा कि सैन्य बल से झांसी का किला बेहद कठिन है तो उसने कूटनीति शुरु की। फ़िरंगी सेनापति ह्यूरोज ने झांसी के गद्दार सरदार दूल्हा सिंह को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। इस सरदार ने झांसी के किले का दक्षिणी दरवाजा खुलवा दिया।
अंग्रेजी सेना ने किले में घुसकर जमकर बवाल काटा। मात्र दो सप्ताह की लडाई में झांसी पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। झांसी की सेना किले में सुरक्षित थी लेकिन फ़िरंगी सैनिकों के किले में घुसने से झांसी की सेना अंग्रेजों की विशाल सेना के आगे ज्यादा देर टिक नहीं पायी। रानी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ किले की दीवार फ़ांद कर बच निकलने में कामयाब हो गयी। झांसी से बचने के बाद रानी कालपी पहुँचकर तात्या टोपे से जा मिलीरानी की बची हुई सेना और तात्या टोपे की सेना ने शिन्दे की राजधानी ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। ग्वालियर का शिन्दे अपनी फ़ौज के साथ अंग्रेजों का वफ़ादार बना हुआ था। झांसी की रानी के ग्वालियर पर हमला करते ही वह आगरा भाग गया। शिन्दे की बची हुई फ़ौज रानी के साथ मिल गयी।
रानी और अन्य सहयोगियों ने नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया। अब इनकी योजना महाराष्ट्र की ओर हमला करने की थी। अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज रानी की चाल को समझ गया। उसने रानी को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में घेर लिया। रानी ने वहाँ से बच निकलने के लिये अपना घोडा निकालना चाहा लेकिन उनके मार्ग में एक नाला आ गया जिसे घोडा पार नहीं कर पाया। रानी के पैर में गोली लग चुकी थी। नाले किनारे अटकी रानी को अंग्रेजी सिपाहियों ने घेर लिया। इन्होंने रानी पर तलवारों से हमला बोल दिया। रानी ने दो हमलावरों को मार दिया लेकिन वे रानी के शरीर पर जानलेवा हमला करने में कामयाब हो गये थे। रानी के अन्तिम समय में उनके पास सरदार गौस खाँ मौजूद था। मराठा रामराव देशमुख भी आखिर तक साथ रहे। बाबा गंगादास की कुटिया में रानी ने आखिरी बून्द जल का पिया।
17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में अंग्रेजी सैनिकों के साथ लडते हुए रानी वीरगति पा गयी। लडाई की रिपोर्ट बनाने वाले अंग्रेज अफ़सर ने लिखा है कि अपने समकालीन लडाकों में सबसे तेज तर्रार थी। आजादी की प्रथम लडाई की वीरांगना की अमर कहानी हमेशा के लिये इतिहास के पन्नों में समा गयी।
सुभद्रा कुमारी चौहान की कही पंक्ति याद आती है जिसमें उन्होंने कहा था कि बुन्देलों हरबोलो के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लडी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। कडक बिजली तोप जहाँ रखी है उसके सामने नीचे उतराई में जाता एक मार्ग है। इस मार्ग से आगे जाकर किले के कुछ अनछुये स्थल देखने को मिले। इस जगह ज्यादतर दर्शक दर्शन नहीं जाते है। अगर मैं किले की दीवार पर नहीं चढा होता तो मुझे भी इस दीवार के पीछे बने स्थलों के बारे में कोई जानकारी नहीं हो पाती।
किले का दरवाजा लोहे का बना हुआ है। इस दरवाजे के ठीक ऊपर लोहे का एक छज्जा निकाला हुआ है। इस छज्जे के ऊपर खडे सैनिकों को दरवाजे पर हमला करने वालों पर वार करने में आसानी रहती होगी। इस तरह के छज्जे से नीचे खडी फ़ौज पर गर्म पानी या तेल उडेल दिया जाता है। ऐसा कुछ महाराष्ट्र के दौलताबाद किले में भी देखा था। इस दरवाजे के अन्दर जाते ही एक अलग दुनिया में पहुँच गया।
किले में दोनों ओर के स्थलों की जानकारी देता हुआ एक बोर्ड दिखायी दिया। पहले इधर जाऊँ या उधर। कुछ देर सोचने के बाद नाक की सीध में चलना तय किया। कुछ लोग किले की चारदीवारी के ऊपर बने मार्ग पर चल रहे थे। लेकिन मैंने तय कर लिया था कि पहले किले को बीचोबीच से देखना है उसके बाद किले की चारदीवारी का नम्बर आयेगा। सामने ही एक ऊँचा टावर दिखायी दे रहा था। चलो पहले उस टावर को ही देखते है किसका है? मैं सोच रहा था कि यह किला सेना के अधीन होगा। टावर के सामने पहुँचकर पता लगा कि यह टावर दूरदर्शन वालों का रिले केन्द्र है। यहाँ बहुत सारी छतरियाँ भी लगायी गयी है। इन्हे देखकर आगे चल दिया।
अभी कुछ आगे ही बढ पाया था कि कई मंजिला ऊँची एक इमारत दिखायी दी। यह भवन सडक से दो मंजिल ऊपर ही दिखायी दे रहा है जबकि सडक के नीचे इसकी कई मजिल दिखायी दी। इसके बारे में पता लगा कि यह भवन अंग्रेजों ने जेल के रुप में बनाया था। रानी के समय यह भवन उनकी सेना के रहने के काम में आता था। इससे आगे जाने पर हरा भरा पार्क दिखायी दिया। यहाँ से किले की दीवार सामने दिखायी देने लगी थी। जिससे यह अंदाजा लगाने में मुश्किल नहीं हुई कि किला ज्यादा बडा नहीं है।
किले की दीवार पर पहुँचकर एक विशाल तिरंगा झन्डा दिखाई दिया। तिरंगे का फ़ोटो लेने के इरादे से उस दिशा में चल दिया। यहां कुछ लोग बैठे आराम कर रहे थे। सूर्यास्त होने जा रहा था। लेकिन सूर्य को देखकर लग रहा था कि बादल उसके राह में रोडा अटका कर मानेंगे। झन्डे तक पहुँच पाता उससे पहले ही एक बोर्ड दिखायी दिया जिस पर लिखा था कि रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र के साथ घोडे पर सवार होकर यही से कूद गयी थी। जहाँ से रानी कूदी थी। वहाँ का जायजा लिया गया। अगर आज की हालत ब्याँ की जाय तो यह कहना कठिन है कि रानी यहाँ से सही सलामत नीचे जा पायी होगी?
जहाँ से रानी कूदी थी उस जगह बेहद तीखी ढलान है। जिस पर घोडे का कूदना और उसके बाद सही सलामत सम्भलना भी मुमकिन नहीं लगता है। हाँ यह बात अलग है कि उस समय बच निकलने के लिये यह जगह सुविधाजनक बनायी गयी हो। इस घटना को 150 साल से ज्यादा हो गये है। इतने में मौसम व बारिश की मार से इसकी हालत खस्ता हो गयी होगी। यह जगह से दीवार ज्यादा ऊँची नहीं है। मुश्किल से 15 फ़ुट का फ़ासला रहा होगा। यहाँ से दूर-दूर तक का नजारा दिखायी देता है। किले में पीछे पश्चिम की ओर गहराई में एक मन्दिर दिखायी दे रहा था। उस मन्दिर को भी देखना है लेकिन पहले भारत के झन्डे का एक फ़ोटो तो ले आऊँ। झन्डे के पास पहुँचा तो देखा कि झन्डे का पोल सम्भालने के लिये चार तारों का सहारा लिया गया है।
झन्डे का फ़ोटो लिया और किले की चारदीवारी पर चक्कर लगाना आरम्भ कर दिया। किले की चारदीवारी पर घूमते समय देखा कि इसमें जगह-जगह छोटे-छोटे खाने बनाये गये है। इन खानों को ध्यान से देखा तो पाया कि यह लोहे के खिडकियाँ वाले खाने है। सिपाहियों की सुरक्षा के लिये इनमें लोहे की खिडकियाँ लागयी गयी है। खिडकियों में लगायी जाने वाली लोहे की एक इन्च मोटी चद्दर है जिसमें से बन्दूक की गोली भी मुश्किल से पार हो पाती होगी। इन खिडकियों से नीचे मैदान का सारा नजारा दिखाई देता है। यहाँ से नीचे खडी फ़ौज पर हमला करने में आसानी होती होगी। अन्य महल-किले की तरह यहाँ की दीवार के ऊपरी किनारे में थोडी-थोडी दूर पर पतले-पतले सुराख बनाये गये है। इनका उपयोग सैनिकों के लिये होता था। इनकी आड में सैनिक नीचे खडी हमलावर सेना पर गोली व तीर चलाया करते थे।
किले की चारदीवारी का चक्कर लगाते हुए मुख्य प्रवेश दवार के ऊपर भी आ पहुँचा। यहाँ पर लोहे का छज्जा देखा इस पर खडे होकर महसूस किया कि नीचे खडी फ़ौज पर यहाँ से सामान गिराना आसान कार्य होता होगा। किले के आगे वाले भाग में मुख्य चारदीवारी के साथ लगते अन्य स्थल भी दिखायी दिये। उनमें जाने के लिये कडक बिजली तोप के बराबर वाले मार्ग से जाने के अलावा कोई मार्ग नहीं है।
किले की चारदीवारी पर चलता हुआ, उस स्थल पर पहुँच गया जहाँ से किले के पिछले भाग में बने मन्दिर तक जाने का मार्ग है। यहाँ किले की ऊपरी चारदीवारी पर बने एक बुर्ज में कुछ बच्चे अपने चाईना माडल मोबाइल से फ़ोटो खिच रहे थे। मैंने इन तीनों को उस बुर्ज पर बैठने को कहा तो मेरे गले में लटका कैमरा देख झट से बैठ गये। पहले उनके मोबाइल से एक फ़ोटो लिया उसके बाद अपना कैमरा निकाल कर इनका फ़ोटो लिया और उन्हे दिखाया भी। आजकल के कैमरे का यही लाभ है फ़ोटो लेते ही तुरन्त देख भी सकते हो। आज से बीस साल पहले रील वाले कैमरे हुआ करते थे तब फ़ोटो लेने के बाद उसको देखने के लिये कई बार तो महीनों तक इन्तजार करना पड जाता था। यदि उस समय रील में दो चार फ़ोटो बच जाते थे तो उसके पूरे होने तक रील निकालते नहीं थे। आज की बात अलग है।
उन बच्चों के फ़ोटो लेने के बाद मैंने उन्हे अपने कैमरे से अपना फ़ोटो खिचवाया। बच्चे मेरा कैमरा लेते समय थोडा असमंजस में दिखायी दिये तो मैंने उन्हे समझाया कि इससे फ़ोटो खींचना तो तुम्हारे मोबाइल से भी आसान है। ट्रेनिंग के तौर पर उन्होंने कई फ़ोटो दाये-बाये के लिये उसके बाद मेरे तीन फ़ोटो लिये। बच्चे अपनी परीक्षा में अव्वल आ चुके थे। अपना लिया गया फ़ोटो देखकर बच्चे बहुत खुश थे। वे तीनों बच्चे भी किले के पीछे मन्दिर देखने जा रहे थे। मैं भी उनके साथ चल दिया।
किले के मन्दिर वाले हिस्से में जाने के लिये लोहे का एक मजबूत दरवाजा है। यहाँ जाने के लिये ढलान में उतरना पडता है। नीचे जाने पर एक सुन्दर व छोटा सा पार्क दिखायी दिया। इस पार्क को रानी का आमोद पार्क कहा जाता है। यहाँ रानी अपना निजी समय बिताया करती होगी। इस जगह के ठीक सामने फ़ाँसी घर बना हुआ है। यहाँ ना जाने कितने लोगों को फ़ाँसी पर चढाया गया होगा? फ़ाँसी घर के ठीक पीछे एक कमरा जैसा स्थल है जिसके बारे में बोर्ड लगाया गया है कि यहाँ एक सुरंग हुआ करती थी जो किले से बाहर निकलती थी। आपातकालीन स्थिति में राजपरिवार इसका उपयोग करता होगा।
फ़ाँसी घर के सामने से होकर मन्दिर जाने वाला मार्ग है। मन्दिर यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है। फ़ाँसी घर और मन्दिर का साथ-साथ होना इंगित करता है मृत लोगों की आत्मा भटकती ना फ़िरे उसका प्रबन्ध मन्दिर बनाकर तो नहीं किया गया था। मन्दिर में जाने के लिये कुछ सीढियाँ उतरनी पडी। मन्दिर भोलेनाथ को समर्पित है। मराठों ने सबसे ज्यादा मान सम्मान भोले नाथ को ही दिया है अत: जाहिर है मराठों के किले झांसी में भोलेनाथ का ही मन्दिर बनना था। मैंने मन्दिर की परिक्रमा रुपी चक्कर लगाने के बाद मन्दिर के गर्भ गृह में प्रवेश किया। यहाँ पुजारी महोदय अपनी कार्य में मन से लगे हुए थे। यहाँ के पुजारी का स्वभाव अच्छा लगा।
मन्दिर व किला देखने के उपरांत घर वापसी का समय हो चला था। किले से बाहर आते समय पानी की टोंटी के एक यंत्र पर ध्यान गया। इसे देख अंग्रेजी शासन में की गयी मेहनत याद आती है। अंग्रेजों ने भले ही भारत को कितना भी लूटा था लेकिन उन्होंने यहाँ पर विकास कार्य भी भरपूर कराये थे। आज भी उनके कराये गये कार्य का तोड भारतवासी नहीं निकाल पाये है। भारत के पहाडी रेल मार्ग जैसे शिमला, जोगिन्द्रनगर, माथेरान, ऊटी, दार्जीलिंग में उनकी पहुँचायी गयी रेल को आगे बढाना तो दूर उसको सम्भालना भी भारत के लिये कठिन हो रहा है। ताजा उदाहरण जोगिन्द्रनगर रेलवे लाइन का है जहाँ रेलवे पुलो को बाँस के सहारे रोकने का काम चल रहा है।
चलो जी झांसी का रानी लक्ष्मी बाई का किला तो देख लिया अब वापिस दिल्ली चलते है। (यात्रा जारी है।)
रानी लक्ष्मीबाई का चित्र अंग्रेज फोटोग्राफर जॉन स्टोन एण्ड हॉटमैन ने सन् 1850 में खींचा था।

















































4 टिप्‍पणियां:

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