ROOPKUND-TUNGNATH 14 SANDEEP PANWAR
पराठे खाकर पेट
को काफ़ी संतुष्टि मिली, अब शाम तक कही कुछ खाने की जरुरत ही नहीं थी। रुद्रप्रयाग
की दूरी वहाँ से ज्यादा नहीं थी। रुद्रप्रयाग से कोई 2 किमी पहले एक मार्ग सीधे हाथ पर केदारगंगा नदी
पर बनाये गये नये पुल से होकर ऋषिकेश के लिये कई साल बनाया गया है। मैं आज से लगभग
4 साल पहले अपनी इसी नीली परी पर, इस मार्ग से
होकर जा चुका हूँ। इस मार्ग से जाने का सबसे बड़ा लाभ यही है कि रुद्रप्रयाग की
भीड़-भाड से छुटकारा मिल जाता है। लेकिन हमें तो भीड से होकर ही अपनी यात्रा जारी
रखनी थी, कारण रुद्रप्रयाग में दो नदियों अलकनन्दा व केदारगंगा के मिलन के फ़ोटो
लेने का सवाल जो था। मैंने सारे प्रयाग कई-कई बार देखे हुए है इसलिये अब इनकी तरह
देखने की इच्छा भी नहीं होती है। सबसे बड़ा और असली प्रयाग (इलाहाबाद) सिर्फ़ एक बार
ही देखा है। रुपकुन्ड़ से आते समय चोपता जाते समय कर्णप्रयाग के दर्शन आपको कराये
गये थे।
जैसे ही
रुद्रप्रयाग वाली सुरंग सामने आयी तो हमने अपनी बाइक के ब्रेक लगाये। सुरंग के ठीक
सामने एक यात्रा प्रतीक्षालय बना हुआ है उस समय उसमें यात्री तो नहीं थे इसलिये
हमने दोनों बाइक उसमें खड़ी कर दी। बाइक खड़ी करने के बाद हमने सामने नदी किनारे
दिखायी दे सीढियों पर उतरना आरम्भ कर दिया। अभी हमने आधा भी मार्ग पार नहीं किया
था केदार गंगा पर बना हुआ झूला पुल आ गया। मनु को उस झूले पुल के उस तरफ़ से फ़ोटो
लेने के लिये भेज दिया। टाँगों में सीढियाँ उतरते हुए हल्का-हल्का सा दर्द हो रहा
था। पैरों में दर्द होने का सीधा अर्थ था कि हमने रुपकुन्ड़ यात्रा बिना किसी पूर्व
तैयारी के की थी। यदि श्रीखन्ड़ यात्र की तरह प्रतिदिन 30-35 किमी साईकिल चलाने के साथ 18-20 मंजिल चढ़ना-उतरना किया गया होता तो दर्द का तो
बाप भी पास नहीं फ़टकता। मैं नीचे उतरता रहा, मनु झूला पुल पार कर आगे बढ़ गया। एक
जगह जाकर प्रयाग के फ़ोटॊ मस्त आ रहे थे, मनु ने वहाँ से प्रयाग के फ़ोटॊ ले लिये।
मैं नीचे प्रयाग
के अंतिम छोर तक पहुँच चुका था इसलिये मनु ने वहाँ ऊपर से मेरे फ़ोटॊ भी ले लिये।
कैमरा मेरे पास नहीं था मैं कई साल से उधारी के कैमरे के भरोसे यात्रा कर रहा हूँ।
मुझे सन 1995
के आसपास फ़ोटोग्राफ़ी का
शौक परवान चढ़ा था। उस समय मैंने 7600 रुपये का yashika का still कैमरा लिया था उसकी फ़्लैश ही अलग से 2900 की उस समय आयी
थी। चूंकि वह कैमरा रील वाला हुआ करता था। सन 1997 में हमारे
मस्तमौला वेटलिफ़्टर पिताजी की अचानक निधन हो गया। घर में कई महीनों से आर्थिक तंगी
चलते रहने के कारण मुझे वो कैमरा बेचना पड़ा था। खैर आज कोई समस्या नहीं है। लोगों
ने मेरी इमानदारी की मेहनत के कई लाख रुपये की भी बेईमानी कमेटी में कर ली। लेकिन
फ़िर भी सब कुशल मंगल है। अब मैं फ़िर से एक अन्य कैमरा जिसकी अनुमानित कीमत रुपये 30000/ मान कर चल रहा हूँ जल्द ही घर लेकर आने वाला हूँ।
अरे हाँ जब नये-नये डिजीटल कैमरे आरम्भ हुए थे तो तब एक कैमरा लिया तो था लेकिन
उससे फ़ोटो ज्यादा नही ले पाया। वह जल्दी ही अल्ला को प्यारा हो गया।
रुद्रप्रयाग में
काफ़ी देर उछल कूद करते रहे, यहाँ हमने सीढियों पर भयंकर पानी आने के कारण हुई
तबायी के निशान देखे थे। हम तो यही समझे थे कि ऊखीमठ वाले पानी के कारण यहाँ भी
तबाही हुई होगी। लेकिन यहाँ लगे एक बोर्ड़ से पता लगा कि यह तबाही सन 1978 में आयी बाढ़ के कारण हुई थी। यह झूला पुल जो
पानी के धरातल से लगभग 15-20 मीटर ऊँचा है।
बताते है कि पानी इसके भी पार हो गया था। बाप रे, क्या तबाई रही होगी? जिसके बारे
में सोचकर भी शरीर के रोंगटे खड़े होने लगते है। हमने इस प्रयाग को देखने के बाद
अपनी बाइक की ओर चलने में ही अपनी भलाई समझी। सीढियों से चढ़कर पुन: ऊपर सड़क पर
आये। अपनी बाइक उठायी और सुरंग से होते हुए रुद्रप्रयाग के मुख बाजार में पहुँचे।
अभी सुबह का समय था जिस कारण पब्लिक की ज्यादा मारामारी नहीं मची थी। बिना रुके हम
श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे।
श्रीनगर पहुँचने
तक कोई खास वर्णन करने लायक घटना घटित नहीं हुई। श्रीनगर पहुँचकर एक हलवाई की
दुकान के सामने जाकर बाइक रोक दी। अपुन ठहरे मीठे के दरिन्दे, अत: यहाँ से परिवार
के लिये बाल मिठाई लेने का विचार किया गया। मनु का बैग पूरी तरह ठसाठस भरा हुआ था
इसलिये मैंने अपने बैग में दोनों की मिठाई रखवा ली। मिठाई के झंझट से निपट कर हम
आगे बढ़ चले। दो-तीन किमी चलते ही एक मार्ग ऊपर की जाता है जो कीर्तिनगर होकर
कोटद्धार व नजीबाबाद होकर मेरठ चला जाता है। इसी मार्ग से आगे जाने पर उल्टे हाथ
एक मार्ग लैंसडोन छावनी होकर कोटद्धार वाले मार्ग में पुन: जा मिलता है। मुश्किल
से बीस किमी फ़ालतू चलने पर लैंसडोन भी देखा जा सकता है। अगर कोई हजार किमी वाहन
चलाकर ले जा रहा है तो उसके लिये और बीस किमी चलना कौन सी बड़ी बात है/
श्रीनगर से
कीर्तिनगर तक लगातार चढ़ाई वाला मार्ग है जहाँ से हरिद्धार जाने वाला कई किमी तक
दिखायी देता रहता है। कीर्तिनगर से आगे मार्ग में लगातार ढ़लान मिलती रहती है। सड़क
की हालत कुल मिलाकर ठीक-ठाक हालत में है। हाँ बीच-बीच में सड़क में गड़ड़े मिलना आम
बात है। आगे जाकर एक जगह सीधे हाथ पर एक बोर्ड़ दिखायी दिया जिस पर ऋषिकेश/ नीलकंठ
जाने के बारे में लिखा हुआ था। हमे तो सीधे लैंसडोन ही जाना था। इसलिये दाएँ-बायेँ
के चक्कर में ना पड़ते हुए हम सीधे चलते रहे। आखिरकार वह जगह भी आ गयी जहाँ से
कोटद्धार वाली सड़क छोड़कर उल्टे हाथ जाने वाली सड़ल पर लैंसडोन जाने के लिये मुड़ना
पड़ा। इस मार्ग पर चलते हुए ठन्ड़क का अहसास होने लगता है। यहाँ सड़क पर दोनों और चीड़
के पेड़ भी दिखायी देने शुरु हो जाते है चीड़ के पेड़ ठन्ड़क की निशानी है। आखिरकार
लैंसडोन छावनी का स्वागत बोर्ड़ भी दिखायी दे गया। अभी छावनी पाँच किमी दूरी पर थी।
इसलिये हमें अभी उतावला पन दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। फ़िर वो घड़ी भी आ ही
गयी जिसकी हम सुबह से प्रतीक्षा करते हुए बाइक पर बढ़ते जा रहे थे। (क्रमश:)
रुपकुन्ड़ तुंगनाथ की इस यात्रा के सम्पूर्ण लेख के लिंक क्रमवार दिये गये है।
13. ऊखीमठ मन्दिर
14. रुद्रप्रयाग
कल कल कल कल,
जवाब देंहटाएंजल चल शीतल।
शानदार यात्रा वर्णन ! फोटो बहुत ही सुंदर हैं
जवाब देंहटाएं