नगरोटा सूरियाँ नामक गाँव में बस व छोटी रेल दोनों ही आती है। नगरोटा नाम से हिमाचल में दो जगह है एक का नाम नगरोटा है दूसरे का नाम नगरोटा सूरियाँ है। हमने बस वाले से कहा "देख भाई हमें नगरोटा से छोटी रेल में बैठकर पालमपुर व बैजनाथ की ओर जाना है। इसलिये हमें ऐसी जगह उतार देना जहाँ से रेलवे स्टेशन नजदीक पड़ता हो। पीर बिन्दली से नगरोटा तक का सफ़र छोटी-मोटी सूखी सी पहाडियाँ के बीच होकर किया गया था। फ़ोटॊ खेचने के लिये एक भी सीन ऐसा नहीं आया जिसका फ़ोटॊ लेना का मन किया हो। जैसे ही नगरोटा में बस दाखिल हुई तो हमने एक बार फ़िर बस कंड़क्टर को याद दिलाया कि भूल मत जाना। कंड़क्टर भी हमारी तरह मस्त था बोला कि आपको तसल्ली बक्स उतार कर स्टॆशन वाला मार्ग बताकर आगे जायेंगे। थोड़ा सा आगे चलते ही कंड़क्टर ने हमें खिड़की पर पहुँचने को कहा। जैसे ही बस रुकी तो देखा कि हमारी बस एक पुल के ऊपर खड़ी है, मैंने सोचा कि यहाँ कोई नदी-नाला होगा, जिसका पुल यहाँ बना हुआ है। जब कंड़क्टर ने कहा कि यह पुल रेलवे लाईन के ऊपर बना हुआ है। आप इस पुल के नीचे उतर कर उल्टे हाथ आधे किमी तक पटरी के साथ-साथ चले जाना आपको स्टेशन मिल जायेगा।
जाट देवता कांगड़ा नैरो गेज की यात्रा पर है। |
बस से उतरकर हमने पुल से नीचे उतरने की पगड़न्ड़ी तलाश की। यहाँ रेल की पटरियों पर आते ही सबसे पहले दोनों ओर यह देखा कि किसी दिशा से रेलगाड़ी तो नहीं आ रही है। जब किसी दिशा से रेल आती नहीं दिखायी दी तो हमने पटरी के बीचो-बीच चलना आरम्भ कर किया। यह पटरी मुश्किल से दो फ़ुट चौड़ाई की है। मैंने अपने दोनों पैर पन्जे से ऐड़ी तक मिलाकर पटरी के बीच में रखकर देखे तो पैर रखने के बाद वहाँ जगह नहीं बची थी। विपिन फ़ोटो लेने में लगा पड़ा था। हमने अपने व रेल की पटरियों के कई फ़ोटो ले ड़ाले। पटरियों के साथ चलते हुए यह साफ़ झलक रहा था कि आगे चलते हुए चढ़ाई आने वाली है। पीछे मुडकर देखा तो ढ़लान साफ़ दिखाई दे रही थी। मैंने सुना था कि हाकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचन्द ने अपनी हाकी स्टिक से गेद को रेलवे पटरी पर 11/12 मीटर तक चलाया था। हमने कई बार रेल की पटरी के ऊपर चलने की कोशिश की, लेकिन हर बार कुछ ना कुछ मीटर चलने के बाद, हमें संतुलन बिगड़ने के कारण पैर जमीन पर रखना पड़ जाता था। मेजर ध्यान चन्द का जन्म दिन 29 अगस्त को आता है जबकि जाट देवता संदीप पवाँर का जन्म दिन 31 अगस्त को आता है। दो दिन के अन्तर में कुछ तो फ़र्क आना था।
आगे जाकर चढ़ाई समाप्त हुई तो स्टेशन दिखाई देने लगा। स्टेशन से पहले एक सिगनल आता है। यहाँ से आगे बढ़ने पर रेलवे ट्रेक में एक मोड आता है। कुछ आगे जाने पर स्टेशन की पहचान बताने बड़ा पीला बोर्ड़ भी आ गया। यहाँ का फ़ोटो लेकर आगे बढ़ चले। हमें रेल का सही समय तो मालूम ही नहीं था। दुकान वाले के बताये गये समय अनुसार हम रेल की यात्रा करने जा रहे थे। सबसे पहले स्टेशन पहुँचे, स्टेशन पहुँचकर समय सारिणी देखी तो मालूम हुआ कि रेल अभी एक घन्टे बाद आयेगी। हमने टिकट लेना चाहा लेकिन टिकट खिड़की पर कोई दिखाई नहीं दिया। आखिरकार कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद टिकट खिड़की पर कोई दिखाई दिया। हमने उससे पूछा कि ट्रेन कितनी देर से चल रही है? उसने कहा कि अभी तो आधे देरी से चलने की सूचना मिल रही है। आधा घन्टा देरी मतलब हमारे पास खाने-पीने के लिये बहुत सारा समय था। रात को चम्बा में ही कुछ खाया था। दिन में मशरुर मन्दिर के प्रांगण में जमकर भरपेट आम ही तो खाये थे। स्टेशन के ठीक सामने हलवाई कम पकौड़ी की (पकौड़ी वाले ज्यादा) दो दुकाने दिखायी दे रही थी। इसलिये हम सीधे उन दुकानों पर जा पहुँचे। आज कुछ नमक-मिर्च वाला खाने का मन कर रहा था।
दुकान वाले से पहले एक पाव पकौड़ी तुलवा ली गयी। साथ में पीने के लिये आम के रस की पूरे सवा लीटर वाली बड़ी बोतल भी ले ली। एक पाव पकौड़ी आम के रस के साथ कब सटक गये पता ही ना लगा। आखिरकार एक पाव पकौड़ी और ली गयी। इन पकौड़ी को खाने के बाद पेट में दौड़ रहे चूहे-बिल्ली की दौड़ समाप्त हो गयी। दुकान वाले का बही-खाता बन्द कर फ़िर से स्टेशन पहुँच गये। पहले तो स्टेशन दूसरे छोर तक घूम-घूम कर देखा गया। उसके बाद एक बेंच पर टाँग पसरा कर बैठ गये। ट्रेन पहली सूचना अनुसार आधा घन्टा लेट थी लेकिन ट्रेन उसके बाद भी 15 मिनट और खा गयी। हमें कौन सा पालमपुर जाकर बच्चों को चूची पिलानी थी। उस दिन की छोड़ो, रेल भले ही एक दिन देर से ही क्यों ना आती, हम बिना ट्रेन में बैठे जाने वाले नहीं थे। मैं विपिन को बता रहा था कि इससे पहले मैं केवल शिमला वाली रेल में ही बैठा था। वैसे दिल्ली के बालभवन वाली नन्ही सी रेल व रेल संग्रहालय वाली रेल की सवारी भी यादगार रही थी। इस यात्रा के बाद मैंने माथेरान (बम्बई के पास) नेरल रुट की छोटी नैरो गेज वाली रेल की सवारी भी कर ली है। उसका विवरण जल्द ही लिखा जायेगा। अब सिर्फ़ दार्जिंलिंग व ऊटी वाली दो छोटी रेल की यात्रा करनी शेष है। देखते है उनका नम्बर कितने साल में आता है?
आखिरकार वो शुभ घड़ी भी आ ही गयी, जब नगरोटा सूरियाँ स्टेशन पर जोगिन्द्रनगर की ओर जाने वाली ट्रेन के आने की उदघोषणा हुई। जैसे ही ट्रेन दिखायी दी, हमने कैमरा निकाल कर फ़ोटे लेने शुरु कर दिये। ट्रेन में अन्दर घुसकर सीट पर बैठने की कोई हसरत भी नहीं थी हम तो खिड़की पर खड़े होकर यह यात्रा करना चाहते थे। ट्रेन के चलने के साथ ही हम भी ट्रेन में सवार हो लिये। ट्रेन लगभग 30 किमी की गति से चल रही होगी। पहाड़ों में कई हजार (शायद 30000-35000 हजार) किमी बाइक यात्रा मैं अभी तक कर चुका हूँ। बड़ी वाली रेल में भी अब तक की कुल यात्राएँ जोड़ी जाये तो यह भी लाख का आंकड़ा पार कर जायेगी। मैंने सबसे ज्यादा दूरी साईकिल चलाकर ही तय की है, अब तक मैं साईकिल पर सवा लाख किमी से ज्यादा दूरी तय कर चुका हूँ, प्रतिदिन 20-30 किमी साईकिल चलाये बिना मेरी रोटी हजम नहीं होती है। नैरो गेज ट्रेन पहाड़ों में बहुत टेड़े-मेड़े मार्ग के लिये बनायी गयी है। चढ़ाई का और छोटी-बड़ी का ट्रेन का ज्यादा सम्बन्ध नहीं है। गोवा वाले रुट में जिस ट्रेन से हम गये थे वहाँ पर बड़ी लाईन थी लेकिन चढ़ाई के मामले में इससे कड़ी टक्कर थी। छोटी ट्रेन का सबसे बड़ा लाभ मुड़ते समय होता है पहाड़ों पर हर कुछ मीटर पर मुड़ना पड़ता है इसलिये नैरो गेज यहाँ कामयाब रहती है। अभी तो जम्मू से आगे उधमपुर तक बड़ी रेल कई साल से चालू है। अब इस साल में कटरा होकर श्रीनगर वाले रुट पर बड़ी रेल आरम्भ होने वाली है। वैसे कश्मीर घाटी में बड़ी रेल कई साल से चल रही है।
हमारी ट्रेन अपनी सुरक्षित गति से आगे बढ़ती रही, कुछ किमी जाने पर ट्रेन को सवारी उतारने व चढ़ाने के लिये बनाये गये विश्राम स्थल पर रुकना पड़ता था। इस रुट पर बहुत सारे स्टेशन आये थे उनमें से सिर्फ़ तीन-चार ही अपने काम के है बाकि तो स्थानीय लोगों के काम आने वाले है। नगरोटा से चलकर पहला मुख्य स्टेशन ज्वालामुखी रोड़ (ज्वाला जी मन्दिर जाने के लिये यहाँ से बस मिलती है) नाम से आता है यहां उतरकर ज्वाला जी मन्दिर के लिये जा सकते है। इसके बाद अगला मुख्य स्टेशन कांगड़ा मन्दिर का आता है। यहाँ उतरकर कांगड़ा का ब्रजेश्वरी मन्दिर जाया जाता है। इसके बाद एक स्टेशन नगरोटा के नाम से और आता है हम नगरोटा सूरियाँ से इस रेल में सवार हुए थे। इसके बाद पालमुर स्टेशन आता है, इसके बाद बैजनाथ स्टेशन आता है। आखिर में जहाँ ट्रेन समाप्त होती है उसे जोगिन्द्रनगर कहते है। इस ट्रेन में बैठकर यात्रा करते समय असली रोमांच किसी पुल या किसी गहरी खाई को पार करते समय आता था। जब ट्रेन किसी खाई को पार करती थी तो ज्यादातर सवारियाँ अपनी गर्दन बाहर निकालने को मजबूर हो उठती थी। हमें ज्वालामुखी रोड़ स्टेशन आते ही सीट मिल गयी थी लेकिन हमारा ज्यादातर सफ़र ट्रेन की खिड़की में खड़े होकर बीता। सीट पर हमारे बैग आराम फ़रमा कर नैरो गेज की यात्रा का आनन्द उठा रहे थे।
जोगिद्रनगर की ओर से आती हुई तीन ट्रेन से हमारी ट्रेन का मिलाप (भरत मिलाप जैसा) हुआ। मेरा इस रुट पर एक बार फ़िर यात्रा करने का मन है लेकिन अबकी बार पठानकोट से लेकर जोगिन्द्रनगर तक की सम्पूर्ण यात्रा की जायेगी। जिन स्टेशनों पर गाड़ियों का संगम होता था वहाँ हम स्टेशन में अन्दर तक घूम कर आते थे। आगे चलकर वह पुल भी हमारी ट्रेन ने पार किया जिस पर हमने ज्वालाजी मन्दिर देखकर मणिमहेश देखने के जाते समय पटरी पर खड़े होकर फ़ोटो खिचवाये थे। यहाँ एक बात पर अचम्भा हुआ था कि हम सड़क मार्ग से जिस दिशा में गये थे ट्रेन से भी उसी दिशा में गये थे। जबकि सड़क मार्ग पठानकोट की ओर चला जा रहा था उसके उल्ट ट्रेन जोगिन्द्रनगर/मन्ड़ी की दिशा में जा रही थी। आगे चलकर कई सुरंगे भी हमारी ट्रेन पार करती हुई आगे बढ़ती रही। इस ट्रेन से यात्रा करते हुए जब सूर्य देवता अपनी ड़यूटी पूरी कर घर जाने की जल्दी करता हुआ दिखाई दिया तो उस पर बहुत गुस्सा आया था कि बेशर्म आज तू भी हमें नजारे देखने वंचित कर रहा है। जब ट्रेन ने हमें पालमपुर स्टेशन पर उतारा तो अपना रेलवे को दिया किराया पूरी तरह वसूल हो चुका था। हमने पालमपुर तक का ही टिकट लिया था। रात का अंधकार चारों और अपना साम्राज्य फ़ैला रहा था। पहले रुकने का ठिकाना तलाश करना था। उसके बाद कल सुबह पालमपुर के चाय के बागान देखने का विचार बन रहा था। (क्रमश:)
दुकान वाले से पहले एक पाव पकौड़ी तुलवा ली गयी। साथ में पीने के लिये आम के रस की पूरे सवा लीटर वाली बड़ी बोतल भी ले ली। एक पाव पकौड़ी आम के रस के साथ कब सटक गये पता ही ना लगा। आखिरकार एक पाव पकौड़ी और ली गयी। इन पकौड़ी को खाने के बाद पेट में दौड़ रहे चूहे-बिल्ली की दौड़ समाप्त हो गयी। दुकान वाले का बही-खाता बन्द कर फ़िर से स्टेशन पहुँच गये। पहले तो स्टेशन दूसरे छोर तक घूम-घूम कर देखा गया। उसके बाद एक बेंच पर टाँग पसरा कर बैठ गये। ट्रेन पहली सूचना अनुसार आधा घन्टा लेट थी लेकिन ट्रेन उसके बाद भी 15 मिनट और खा गयी। हमें कौन सा पालमपुर जाकर बच्चों को चूची पिलानी थी। उस दिन की छोड़ो, रेल भले ही एक दिन देर से ही क्यों ना आती, हम बिना ट्रेन में बैठे जाने वाले नहीं थे। मैं विपिन को बता रहा था कि इससे पहले मैं केवल शिमला वाली रेल में ही बैठा था। वैसे दिल्ली के बालभवन वाली नन्ही सी रेल व रेल संग्रहालय वाली रेल की सवारी भी यादगार रही थी। इस यात्रा के बाद मैंने माथेरान (बम्बई के पास) नेरल रुट की छोटी नैरो गेज वाली रेल की सवारी भी कर ली है। उसका विवरण जल्द ही लिखा जायेगा। अब सिर्फ़ दार्जिंलिंग व ऊटी वाली दो छोटी रेल की यात्रा करनी शेष है। देखते है उनका नम्बर कितने साल में आता है?
आखिरकार वो शुभ घड़ी भी आ ही गयी, जब नगरोटा सूरियाँ स्टेशन पर जोगिन्द्रनगर की ओर जाने वाली ट्रेन के आने की उदघोषणा हुई। जैसे ही ट्रेन दिखायी दी, हमने कैमरा निकाल कर फ़ोटे लेने शुरु कर दिये। ट्रेन में अन्दर घुसकर सीट पर बैठने की कोई हसरत भी नहीं थी हम तो खिड़की पर खड़े होकर यह यात्रा करना चाहते थे। ट्रेन के चलने के साथ ही हम भी ट्रेन में सवार हो लिये। ट्रेन लगभग 30 किमी की गति से चल रही होगी। पहाड़ों में कई हजार (शायद 30000-35000 हजार) किमी बाइक यात्रा मैं अभी तक कर चुका हूँ। बड़ी वाली रेल में भी अब तक की कुल यात्राएँ जोड़ी जाये तो यह भी लाख का आंकड़ा पार कर जायेगी। मैंने सबसे ज्यादा दूरी साईकिल चलाकर ही तय की है, अब तक मैं साईकिल पर सवा लाख किमी से ज्यादा दूरी तय कर चुका हूँ, प्रतिदिन 20-30 किमी साईकिल चलाये बिना मेरी रोटी हजम नहीं होती है। नैरो गेज ट्रेन पहाड़ों में बहुत टेड़े-मेड़े मार्ग के लिये बनायी गयी है। चढ़ाई का और छोटी-बड़ी का ट्रेन का ज्यादा सम्बन्ध नहीं है। गोवा वाले रुट में जिस ट्रेन से हम गये थे वहाँ पर बड़ी लाईन थी लेकिन चढ़ाई के मामले में इससे कड़ी टक्कर थी। छोटी ट्रेन का सबसे बड़ा लाभ मुड़ते समय होता है पहाड़ों पर हर कुछ मीटर पर मुड़ना पड़ता है इसलिये नैरो गेज यहाँ कामयाब रहती है। अभी तो जम्मू से आगे उधमपुर तक बड़ी रेल कई साल से चालू है। अब इस साल में कटरा होकर श्रीनगर वाले रुट पर बड़ी रेल आरम्भ होने वाली है। वैसे कश्मीर घाटी में बड़ी रेल कई साल से चल रही है।
हमारी ट्रेन अपनी सुरक्षित गति से आगे बढ़ती रही, कुछ किमी जाने पर ट्रेन को सवारी उतारने व चढ़ाने के लिये बनाये गये विश्राम स्थल पर रुकना पड़ता था। इस रुट पर बहुत सारे स्टेशन आये थे उनमें से सिर्फ़ तीन-चार ही अपने काम के है बाकि तो स्थानीय लोगों के काम आने वाले है। नगरोटा से चलकर पहला मुख्य स्टेशन ज्वालामुखी रोड़ (ज्वाला जी मन्दिर जाने के लिये यहाँ से बस मिलती है) नाम से आता है यहां उतरकर ज्वाला जी मन्दिर के लिये जा सकते है। इसके बाद अगला मुख्य स्टेशन कांगड़ा मन्दिर का आता है। यहाँ उतरकर कांगड़ा का ब्रजेश्वरी मन्दिर जाया जाता है। इसके बाद एक स्टेशन नगरोटा के नाम से और आता है हम नगरोटा सूरियाँ से इस रेल में सवार हुए थे। इसके बाद पालमुर स्टेशन आता है, इसके बाद बैजनाथ स्टेशन आता है। आखिर में जहाँ ट्रेन समाप्त होती है उसे जोगिन्द्रनगर कहते है। इस ट्रेन में बैठकर यात्रा करते समय असली रोमांच किसी पुल या किसी गहरी खाई को पार करते समय आता था। जब ट्रेन किसी खाई को पार करती थी तो ज्यादातर सवारियाँ अपनी गर्दन बाहर निकालने को मजबूर हो उठती थी। हमें ज्वालामुखी रोड़ स्टेशन आते ही सीट मिल गयी थी लेकिन हमारा ज्यादातर सफ़र ट्रेन की खिड़की में खड़े होकर बीता। सीट पर हमारे बैग आराम फ़रमा कर नैरो गेज की यात्रा का आनन्द उठा रहे थे।
जोगिद्रनगर की ओर से आती हुई तीन ट्रेन से हमारी ट्रेन का मिलाप (भरत मिलाप जैसा) हुआ। मेरा इस रुट पर एक बार फ़िर यात्रा करने का मन है लेकिन अबकी बार पठानकोट से लेकर जोगिन्द्रनगर तक की सम्पूर्ण यात्रा की जायेगी। जिन स्टेशनों पर गाड़ियों का संगम होता था वहाँ हम स्टेशन में अन्दर तक घूम कर आते थे। आगे चलकर वह पुल भी हमारी ट्रेन ने पार किया जिस पर हमने ज्वालाजी मन्दिर देखकर मणिमहेश देखने के जाते समय पटरी पर खड़े होकर फ़ोटो खिचवाये थे। यहाँ एक बात पर अचम्भा हुआ था कि हम सड़क मार्ग से जिस दिशा में गये थे ट्रेन से भी उसी दिशा में गये थे। जबकि सड़क मार्ग पठानकोट की ओर चला जा रहा था उसके उल्ट ट्रेन जोगिन्द्रनगर/मन्ड़ी की दिशा में जा रही थी। आगे चलकर कई सुरंगे भी हमारी ट्रेन पार करती हुई आगे बढ़ती रही। इस ट्रेन से यात्रा करते हुए जब सूर्य देवता अपनी ड़यूटी पूरी कर घर जाने की जल्दी करता हुआ दिखाई दिया तो उस पर बहुत गुस्सा आया था कि बेशर्म आज तू भी हमें नजारे देखने वंचित कर रहा है। जब ट्रेन ने हमें पालमपुर स्टेशन पर उतारा तो अपना रेलवे को दिया किराया पूरी तरह वसूल हो चुका था। हमने पालमपुर तक का ही टिकट लिया था। रात का अंधकार चारों और अपना साम्राज्य फ़ैला रहा था। पहले रुकने का ठिकाना तलाश करना था। उसके बाद कल सुबह पालमपुर के चाय के बागान देखने का विचार बन रहा था। (क्रमश:)
हिमाचल की इस बस व रेल यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है। सबसे नीचे स्कारपियो वाली यात्रा के लिंक दिये है।
पटरी की चमक |
इस मोड़ के बाद स्टेशन आ जायेगा। |
1900 में बना हुआ तराजू |
वो देखो आ गयी |
नीचे गहरी खाई |
मोड़ पर ट्रेन का झुकाव |
यहाँ उतरकर ज्वाला मन्दिर जा सकते हो |
कभी मौका लगा तो इस पुल के नीचे खड़े होकर ट्रेन का फ़ोटो लेना है। |
कई सुरंग आती है। |
नदी नाले भी आते है। |
डिब्बे के अन्दर |
सीढीदार खेत |
सूर्यास्त का समय |
हिमाचल की इस यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
01. मणिमहेश यात्रा की तैयारी और नैना देवी तक पहुँचने की विवरण।
02. नैना देवी मन्दिर के दर्शन और भाखड़ा नांगल डैम/बाँध के लिये प्रस्थान।
03. भाखड़ा नांगल बांध देखकर ज्वालामुखी मन्दिर पहुँचना।
04. माँ ज्वाला जी/ज्वाला मुखी के बारे में विस्तार से दर्शन व जानकारी।
05. ज्वाला जी मन्दिर कांगड़ा से ड़लहौजी तक सड़क पर बिखरे मिले पके-पके आम।
06. डलहौजी के पंजपुला ने दिल खुश कर दिया।
07. डलहौजी से आगे काला टोप एक सुन्दरतम प्राकृतिक हरियाली से भरपूर स्थल।
08. कालाटोप से वापसी में एक विशाल पेड़ पर सभी की धमाल चौकड़ी।
09. ड़लहौजी का खजियार उर्फ़ भारत का स्विटजरलैंड़ एक हरा-भरा विशाल मैदान
10. ड़लहौजी के मैदान में आकाश मार्ग से अवतरित होना। पैराग्लाईंडिंग करना।
11. ड़लहौजी से चम्बा होते हुए भरमौर-हड़सर तक की यात्रा का विवरण।
12. हड़सर से धन्छो तक मणिमहेश की कठिन ट्रेकिंग।
13. धन्छो से भैरों घाटी तक की जानलेवा ट्रेकिंग।
14. गौरीकुन्ड़ के पवित्र कुन्ड़ के दर्शन।
15. मणिमहेश पर्वत व पवित्र झील में के दर्शन व झील के मस्त पानी में स्नान।
16. मणिमहेश से सुन्दरासी तक की वापसी यात्रा।
17. सुन्दरासी - धन्छो - हड़सर - भरमौर तक की यात्रा।
18. भरमौर की 84 मन्दिर समूह के दर्शन के साथ मणिमहेश की यात्रा का समापन।
19. चम्बा का चौगान देखने व विवाद के बाद आगे की यात्रा बस से।
02. नैना देवी मन्दिर के दर्शन और भाखड़ा नांगल डैम/बाँध के लिये प्रस्थान।
03. भाखड़ा नांगल बांध देखकर ज्वालामुखी मन्दिर पहुँचना।
04. माँ ज्वाला जी/ज्वाला मुखी के बारे में विस्तार से दर्शन व जानकारी।
05. ज्वाला जी मन्दिर कांगड़ा से ड़लहौजी तक सड़क पर बिखरे मिले पके-पके आम।
06. डलहौजी के पंजपुला ने दिल खुश कर दिया।
07. डलहौजी से आगे काला टोप एक सुन्दरतम प्राकृतिक हरियाली से भरपूर स्थल।
08. कालाटोप से वापसी में एक विशाल पेड़ पर सभी की धमाल चौकड़ी।
09. ड़लहौजी का खजियार उर्फ़ भारत का स्विटजरलैंड़ एक हरा-भरा विशाल मैदान
10. ड़लहौजी के मैदान में आकाश मार्ग से अवतरित होना। पैराग्लाईंडिंग करना।
11. ड़लहौजी से चम्बा होते हुए भरमौर-हड़सर तक की यात्रा का विवरण।
12. हड़सर से धन्छो तक मणिमहेश की कठिन ट्रेकिंग।
13. धन्छो से भैरों घाटी तक की जानलेवा ट्रेकिंग।
14. गौरीकुन्ड़ के पवित्र कुन्ड़ के दर्शन।
15. मणिमहेश पर्वत व पवित्र झील में के दर्शन व झील के मस्त पानी में स्नान।
16. मणिमहेश से सुन्दरासी तक की वापसी यात्रा।
17. सुन्दरासी - धन्छो - हड़सर - भरमौर तक की यात्रा।
18. भरमौर की 84 मन्दिर समूह के दर्शन के साथ मणिमहेश की यात्रा का समापन।
19. चम्बा का चौगान देखने व विवाद के बाद आगे की यात्रा बस से।
रेल तो सीधे जाती है..बाबू ध्यानचन्द की हॉकी के जैसे नचाने लगी, तो कठिन हो जायेगा। रेल पर महारत हासिल हो गयी है आपको।
जवाब देंहटाएंबिलकुल हमारे यहां वाली ही ट्रेन है यह।
जवाब देंहटाएंरेल यात्रा का हर रंग रोचक ही लगता है .....
जवाब देंहटाएंबहुत उत्तम लेख एक बार फिर से...
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया यात्रा वृतांत..
आँखों को ठंडक दे गया आपके ये लेख...
वैसे आपको 'त्रिपाल'के रेलप्रेमी Nik Chandelz और पठानकोट के Yogesh Attri भाई से भी मिल लेना था...तो आपकी रेलयात्रा में और मजे जुड़ जाते...
😇बहुत अच्छा लिखा है संदीप भाई , रेल यात्रा रोचक ही होती है
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