ज्वाला
मुखी को बहुत से भक्त ज्वाला माई के नाम से भी पुकारते है। यहाँ से अपनी बाइक ब्रजेशवरी
मन्दिर की ओर दौड़ चली। हमें कांगड़ा शहर में स्थित इस मन्दिर तक पहुँचने में ज्यादा
मेहनत नहीं करनी पड़ी। अगर हमारे पास बाइक ना होती तो हमें काफ़ी पैदल चलना पड़ता, लेकिन बाइक साथ होने के कारण हम मन्दिर के काफ़ी नजदीक तक पहुँच गये थे। हमने
मन्दिर के पास मिलने वाली दुकाने देखते ही एक खाली जगह देखकर अपनी बाइक वहाँ लगायी
उसके बाद इस मन्दिर में मूर्ति दर्शन करने के लिये मन्दिर प्रांगण में प्रविष्ट हुए।
मन्दिर में भयंकर भीड़ होने के कारण हमने मुख्य मन्दिर के ठीक सामने जहाँ से मूर्ति
दिखायी दे जाती है, कम से कम 40 फ़ुट दूर
से ही माता की मूर्ति को प्रणाम कर वहाँ से आगे चामुण्ड़ा मन्दिर के लिये निकल पड़े।
हिमाचल की इस पहली लम्बी बाइक यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
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हम
अभी कांगड़ा शहर से बाहर निकले ही थे कि हमें रेलवे लाईन दिखायी दे गयी। रेलवे लाईन
देखकर हमने एल स्थानीय व्यक्ति से ज्वालाजी स्टेशन के बारे में पता किया, उसने कहा कि स्टेशन तो 100 मीटर दूरी पर ही है। हम अपनी
बाइक समेत स्टॆशन पहुँच गये। स्टेशन का जायजा लेने के बाद मैंने सोचा था कि कभी इस
रेल पर बैठना नसीब होगा या नहीं। गजब देखिये कि इस यात्रा में तो हम कई बार इस रेलवे
लाईन के दाये-बाये होते रहे, लेकिन ट्रेन के दर्शन नहीं हो पाये,
रेलवे ट्रेक जरुर कई बार सामने आया। बीते साल 2012 में जुलाई माह में मैं मणिमहेश यात्रा पर गया था जिसमें मेरे साथ मुरादनगर/बुढ़ाना
के मनु प्रकाश त्यागी, दिल्ली के विपिन गौड़ व जयपुर के विधान
चन्द्र यात्रा पर गये थे। दिल्ली के दरियापुर गाँव के निवासी राजेश सहरावत अपनी बुलेरो
गाड़ी में हम सबको लेकर मणिमहेश यात्रा की ट्रेकिंग करने के बाद निजी कारणों से वापिस
लौट आये थे। जिस कारण हम पहले से तय कार्यक्रम पूरा नहीं कर पाये थे। लेकिन वो घुमक्कड़
ही क्या जिसका कार्यक्रम ऐन मौके पर अल्टा-पल्टी ना हो जाये। इसी यात्रा से अचानक बदले
घटनाक्रम के कारण मैंने और विपिन ने इस रेलवे लाईन पर 125 किमी
से ज्यादा की यात्रा की थी। जैसे ही पुरानी यात्राएँ समाप्त हो जायेगी, उस यात्रा को भी आपके सम्मुख बाँट दिया जायेगा। अब चलते है चामुन्ड़ा माता मन्दि.....
हम
यहाँ से सीधे चामुन्ड़ा माता/माँ के मन्दिर पहुँचे, वहाँ पर मन्दिर
से पहले नदी पर एक पुल बना हुआ था। इस पुल से कुछ पहले यात्रा पर आने वाले लोगों के
ठहरने के लिये कृष्णा निवास (शायद यही नाम था) बना हुआ था। हमने बाइक रोककर इनसे रात
में ठहरने के बारे में पता किया। यहाँ पर एक कमरा 200 रुपये में
मिल रहा था। इसलिये हमने यहाँ से थोड़ा आगे मन्दिर के पास जाकर अन्य कमरे व सरकारी निवास
में कमरे देखे थे। हम जैसे कंजूस के लिये तो वह काटेज उचित था लेकिन हमने अन्य विकल्प
भी देखने उचित समझे थे। मन्दिर के बेहद करीब सरकारी निवास (नाम याद नहीं) भी बेहतरीन
निवास था। हमारे पास काफ़ी समय था क्योंकि हम यहाँ पर शाम के चार बजे से पहले ही आ गये
थे। इस काटेज के ठीक पीछे नदी बह रही थी, जिसमें स्नान करने के
लिये हमें काफ़ी नीचे गहराई में उतरना था। हम सावधानी पूर्वक नदी में स्नान करन एक लिये
नीचे उतर गये, वहाँ हमने एक घन्टा जमकर स्नान का लुत्फ़ उठाया
था। नहा धोकर हम अपने कमरे में आ गये थे। इसके बाद हमे मन्दिर में दर्शन करने के लिये
चल दिये। मन्दिर यहाँ से आधा किमी की दूरी पर था। यहाँ खाने का प्रबन्ध नहीं था इसलिये
हम मन्दिर के दर्शन करने के बाद खाना खा पीकर ही वापिस आये थे। रात में हम सही समय
पर सो गये, अगले दिन हमारा लक्ष्य हर हाल में जम्मू पहुँचने का
था।
मैं
हमेशा सुबह जल्दी यात्रा की शुरुआत कर देता हूँ। इसलिये सुबह उठकर देखा कि बाहर तो
जोर की बारिश की आवाज आ रही है, सबसे पहले बाहर का जायजा लिया गया।
बारिश का इन्तजार करते-करते सुबह के 9 बज चुके थे। हम अपना बैग
आदि पैक कर तैयार बैठे थे कि कब बारिश रुके और हम वहाँ से भाग ले। किस्मत से बारिश
बेहद धीमी हो गयी जिस कारण हम वहाँ से धर्मशाला के लिये भाग लिये। मेकलोड़ गंज,
धर्मशाला देखकर हम भागसूनाग झरने को देखने पहुँच गये। यहाँ झरना देखकर
जब हम वापिस आ रहे थे तो एक भुट्टे वाले को गर्मागर्म भुट्टे भूनते देखा। सुबह से कुछ
खाया भी नहीं था तो सबसे पहले एक-एक भुटटा खाया गया। भूटटा खाने के बाद पठानकोट के
लिये चल दिये। अभी धर्मशाला पार भी नहीं किया था कि एक दुकान पर चाऊमीन का बोर्ड़ लगा
देखा तो मलिक बोला भाई साहब पहले भूख का काम तमाम कर ड़ालते है। मैंने तुरन्त उसी हाँ
में हाँ मिलाकर चाऊमीन खा ड़ाली। चाऊ माऊमीन खाकर हम पठानकोट की ओर चलने लगे। एक जगह
सेना का कोई कार्यालय जैसा कुछ बना हुआ था जैसे ही हम वहाँ पर आये दुबारा से बारिश
शुरु हो गयी। अबकी बार हम बारिश में बिना रुके चलते रहे।
बारिश
कुछ किमी बाद रुक गयी थी। लेकिन बारिश अपना काम करके जा चुकी थी, बारिश ने हमें पूरा भिगो दिया था। आगे चलते रहने पर एक जगह मार्ग चटटान खिसकने
के कारण बन्द था। एक स्थानीय बन्दे से कोई दूसरा वैकल्पिक मार्ग पता कर हम उसके बताये
गये ग्रामीण मार्ग से होकर आगे बढ़ गये। लगभग 15 किमी जाने के
बाद यह मार्ग उसी मार्ग में दुबारा मिल गया था जिसे हम छोड़कर आये थे। बारिश के कारण
मार्ग में काफ़ी गीलापन व फ़िसलन थी। हमारे पीछे
एक जीप वाला भी हमारी ही गति में चलता हुआ आ रहा था कि अचानक से उसकी जीप ने संतुलन
खोया। मैं एक बार तो सहम ही गया था कि अरे जीप वाला तो गया काम से, लेकिन कुछ आश्चरय चकित कर देने वाली घटना घटी और उसकी फ़िसलती जीप सड़क किनारे
खाई के ठीक किनारे कीचड़ की वजह से अटक गयी। मैं जीप वाले के पास पहुँचा तब तक जीप वाला
शायद ऊपर वाले को जान बख्श देने का धन्यवाद देने में व्यस्त था। मैंने उससे कहा क्यों
आज तो बच गये। जीप वाला बोला पता नहीं आज कैसे जान बची? इसके
बाद मैं और भी सावधानी से बाइक चलाने लगा। पठानकोट से जम्मू तक कोई खास घट्ना नहीं
घटी थी। बस पंजाब और जम्मू के बार्ड़र पर नदी से पहले का रास्ता बहुत खराब था। यह मार्ग
हमें लेह वाली यात्रा से लौटते समय भी खराब मिला था। आखिरकार हम जम्मू पहुँच गये।
अगले
लेख में आपको माता वैष्णों देवी यात्रा के विवरण के साथ वापसी दिल्ली की यात्रा के
बारे में बताया जायेगा।
हिमाचल की इस पहली लम्बी बाइक यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
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राम राम जी, सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी, पर मारने वाले से तो बचाने वाला बड़ा होता हैं. पहाड़ पर तो बड़ी सावधानी से ड्राइव करना होता हैं. गाड़ी में डर लगता हैं, पर बाइक पर मज़ा आता हैं... चलते रहो घुमक्कड भाई.....जय माता की, वन्देमातरम...
जवाब देंहटाएंरोचक वृत्तान्त..
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक..
जवाब देंहटाएंbadhiya
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