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मंगलवार, 17 जुलाई 2012

NAINITAL TO DELHI TRAIN JOURNEY नैनीताल से दिल्ली रेल यात्रा

ताल ही ताल-
जब हम तीनों नैनी ताल झील से नाव भ्रमण करके बाहर आये तो समय देखा, कि अभी तो पाँच बजने वाले है, मेरा अब यहाँ कुछ और देखने का मन नहीं था जिस कारण दिल्ली की ओर चलने का कार्यक्रम बनने लगा, लेकिन अपने दोनों साथी का मूड देखा लो लग रहा था कि ये दोनों अभी यहाँ से चलने वाले नहीं है, इन्होंने अभी अपनी पीने की हसरत पूरी करनी थी जिस कारण यह जाने में आना-कानी कर रहे थे। हम वहाँ खडे-खडॆ सोच ही रहे थे कि क्या करे? कि तभी एक आल्टो वाला हमारे सामने आकर रुक गया और बोला काठगोदाम जाना है क्या? वैसे हमे जाना तो था ही, जिस कारण हम उसकी कार में बैठ गये। थोडी दूर जाने पर हमने उससे किराये के बारे में जानना चाहा तो उससे बताया कि 150 रु एक सवारी के लूँगा। हमने प्रति सवारी सौ रुपये उसको बोले लेकिन सौ पर वह नहीं माना जिस कारण हम एक बार फ़िर वहीं पर उतर गये। सामने ही सरकारी बसों का अडडा था जहाँ से कई जगहों की बसे चलती है। यह बस अडडा नैनीताल झील के सबसे निचले किनारे पर बना हुआ है। यहाँ जाकर मैंने दिल्ली की बस के बारे में पता करना चाहा। लेकिन काफ़ी छानबीन के बाद भी दिल्ली की ओर जाने वाली बस के बारे में सही जानकारी ना मिल सकी। उस समय वहाँ से सिर्फ़ स्थानीय बसे ही चल रही थी।

देख लो।

अब हम क्या करे? यही सोच रहे थे कि तभी एक निजी बस वाला वहाँ आया और बोला आपको दिल्ली जाना है तो आपको रात दस बजे निजी वातानुकूलित बस मिलेगी। अपने दोनों साथी तो उस निजी बस वाले की बस से जाने को तैयार हो गये लेकिन मुझे दिल्ली से नैनीताल आते समय की वह परेशानी वाला सफ़र अब भी याद था जिसमें इन निजी बस वाले ने किस तरह यहाँ तक पहुँचाया था। मैंने निजी बस से जाने की मना कर दी क्योंकि मुझे पता था कि यह कल दोपहर से पहले दिल्ली नहीं पहुँचायेगा। इस बस तलाशने के चक्कर में शाम के छ: बजने वाले थे जब यह निश्चित हो गया कि अपने दोनों साथी तो निजी बस से ही जाने वाले है तो मैंने उनको राम-राम बोल काठगोदाम रेलवे स्टेशन की ओर रुख/प्रस्थान किया। मुझे वहाँ खडे हुए कुछ ही मिनट हुए थे कि एक टेम्पो वाले ने हलद्वानी की आवाज लगायी मैंने कहा कि भाई मैं तो काठगोदाम तक ही जाऊँगा। उसके पास कोई और सवारी नहीं थी जिस कारण उसने मुझे ले जाने की हाँ कर दी। हम थोडी दूर ही चले थे कि दो सवारी और आ गयी। यहाँ आते समय मैं भीमताल वाले मार्ग से नैनीताल आया था जबकि अब जिस मार्ग से हम जा रहे थे। वह मेरे लिये एकदम अन्जाना था। यहाँ से सामने खाई का नजारा बहुत ही शानदार दिखाई दे रहा था। ऐसे खाई वाले नजारे बहुत ही कम मार्गों से दिखाई देते है।

मार्ग पर चलते-चलते हम एक जगह पहुँचे जहाँ पहुँच कर गाडी वाले ने गाडी रोक दी और कहा कि 10-15 मिनट बाद चलेंगे। खैर इतना समय आसपास घूमने या खाने-पीने के लिये काफ़ी था। मुझे कुछ खाने-पीने की कोई इच्छा नहीं थी। यहाँ एक जगह एक बन्दरिया अपने बच्चे के साथ खेलने में व्यस्थ थी, जिसको काफ़ी लोग देख रहे थे, मैंने भी काफ़ी देर तक उनका खेलना देखा। यहाँ से कुछ देर बाद हम आगे के सफ़र पर चल दिये। यहाँ एक सवारी उतर गयी थी। उसकी जगह एक नये बुजुर्ग ने गाडी में प्रवेश किया। मेरा बैग देखकर इन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप यहाँ घूमने आये हो? मेरे हाँ कहने पर उन बुजुर्ग से घूमने की यानि घुमक्कडी की बातों का लम्बा सिलसिला चल पडा। जब मैंने इनसे पूछा कि यदि जंगल में पैदल मार्ग पर चलते हुए हमे जंगली जानवर मिल जाये तो क्या करना चाहिए? तब उन बुजुर्ग ने बताया था कि वैसे तो ज्यादातर जंगली जानवर इन्सानों ने मार कर खा लिये है लेकिन फ़िर भी भालू अभी भी काफ़ी संख्या में पहाडों पर बचे हुए है। उन्होंने भालू के बारे में बताया कि आमतौर पर समूह में आये इन्सानों पर हमला नहीं करता है। यह अकेले इन्सान पर आसानी से हमला कर देता है। भालू से एक बार आमना-सामना होने की घटना के बारे में उन्होंने बताया कि एक बार मैं अपने गाँव से बस में बैठने के लिये सडक की और आ रहा था कि बीच पैदल मार्ग में एक भालू से मेरा आमना-सामना हो गया था। यह घटना कोई बीस साल पहले की है। उस समय पैदल यात्री लाठी या भाला साथ लेकर यात्रा करते थे।

रात को स्टेशन पर।
मेरे पास भी एक भाला था जिस कारण जैसे ही भालू की नजर मुझ पर पडी तो वो मुझ पर झपटा, लेकिन मैंने भालू को पहले से ही देख लिया था अत: मैं बेहद ही चौकन्ना था। जैसे ही भालू मेरे पास आया मैंने अपने भाले से भालू के मुँह पर हमला कर दिया। मेरे हमले से बचता हुआ भालू एक पेड की ओट में खडा हो गया। उस समय मैं ऐसी स्थिति मे था कि यदि मैं वहाँ से वापिस भागता तो भालू मुझे जान से जरुर मार देता। अब मेरे पास भालू से मुकाबला करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। मैंने भालू पर अपने भाले की नौक से हमले करने की भरपूर कोशिश की लेकिन भालू भी पक्का शातिर था। मेरे भाले के वार से पेड की ओट लेकर बच रहा था। अब इसे मेरी खुशकिस्मती कहो या भालू की, कि दो-तीन मिनट की इस मुठभेड के बाद भालू मैदान छोड पैदल मार्ग से नीचे पहाड की और उतर भागा। मैंने भालू को नीचे जाते हुए देखा तो मुझे वहाँ पर एक मादा भालू अपने दो बच्चों के साथ वहाँ नजर आयी। उन्हें देखकर एक बार मेरे मन में खलबली सी मच गयी थी कि यदि इन दोनों ने मिलकर मुझपर हमला किया तो मैं अकेला इनका मुकाबला कैसे कर पाऊँगा? भगवान का शुक्र रहा कि उन भालू ने दुबारा मुझपर हमला नहीं किया। उन बुजुर्ग ने दो तीन घटना और सुनायी थी।

उन बुजुर्ग की बाते सुनने में मैं इतना मग्न था कि मार्ग कब पूरा हुआ? पता ही नहीं चल पाया। जब गाडी वाले ने कहा कि काठगोदाम स्टेशन आ गया है तब जाकर अपना ध्यान टूटा। मैंने गाडी वाले को उसका किराया देकर काठगोदाम स्टेशन की ओर रुख किया। यहाँ सडक से एकदम सटा हुआ स्टेशन है। दो मिनट में ही मैं स्टेशन के अन्दर पहुँच गया था। वहाँ जाकर दिल्ली जाने वाली ट्रेन के बारे में पता किया तो मालूम हुआ कि ट्रेन जाने में अभी एक घन्टा है। ट्रेन वहाँ से रात को साढे आठ व नौ बजे के बाचे किसी समय थी। मैंने काठगोदाम से दिल्ली तक साधारण डिब्बे का एक टिकट ले लिया था। आरक्षण कराने का समय नहीं था। करेन्ट आरक्षण बचा नहीं था। जब ट्रेन काठगोदाम से ही बनकर चलती है तो साधारण डिब्बे में आसानी से सीट मिलने की सम्भावना थी। एक घन्टा मेरे पास खाने-पीने के लिये बहुत था। खापी कर मैं प्लेटफ़ार्म पर आ पहुँचा। मेरे आने के थोडी देर बाद ट्रेन भी प्लेटफ़ार्म पर लगा दी गयी थी। मैंने साधारण डिब्बे में एक अकेले वाली सीट पर अपना कब्जा जमा लिया। बाहर अंधेरा भी हो गया था। डिब्बे में धीरे-धीरे लगभग नीचे की सभी सीटे भरने लगी। जब ट्रेन काठगोदाम से चलने लगी तो तब तक नीचे की ज्यादातर सीटे भर चुकी थी। काठ्गोदाम से चलने के बाद गाडी जब अगले स्टेशन पर रुकी तो डिब्बे में बची खुची सभी सीट भी फ़ुल हो गयी थी। यहाँ से आगे चलकर जब गाडी हल्द्वानी स्टेशन पर रुकी तो देखा कि यहाँ से चढने वाली सवारियों के लिये डिब्बे में कोई जगह नहीं बची थी।

डिब्बे के अन्दर।
यहाँ हल्द्वानी से जब गाडी आगे चली तो डिब्बे में जो तमाशा भीड के कारण दिखाई दे रहा था वो मजेदार था। यहाँ से चढने वाली अधिकतर सवारी को जिसे जहाँ जगह मिली वो वहाँ बैठता चला गया। अब तक आने-जाने के लिये बचा हुआ मार्ग भी फ़ुल हो गया था। मेरी अकेले बैठने वाली सीट पर भी मेरे अलावा एक बन्दा और बैठ गया था। हमारी गाडी अब लम्बी दूरी की गाडी ना होकर दैनिक यात्रियों को ढोने वाली लोकल ट्रेन ज्यादा दिखाई दे रही थी। डिब्बे में भीड के कारण चारों और यात्रियों का शोर सुनायी देता था। जो लोग सीट पर बैठे थे वे तो बातों में मग्न थे लेकिन जिन्हे सीट नहीं मिली थी। वे सीट पर बैठने वालों को कडुवी नजर से घूर रहे थे। एक सात-आठ साल का बच्चा जो मेरे पास खडा हुआ था उसकी बात मुझे अब भी अच्छी तरह याद है कि उस भीड में जहाँ लोग शरीर का हल्का सा एक भाग सीट पर टिकाने को लालायित थे। किसी ने उस बच्चे से बैठने को कहा तो उसने कहा नहीं मैं खडा हुआ ही ठीक हूँ, मैं थका हुआ नहीं हूँ। उस बच्चे की बात भी ठीक ही थी कि उस भीड में उस बच्चे का बैठने से ज्यादा खडा होना मुझे भी ठीक लग रहा था। खैर यह भीड की मारामारी मुरादाबाद तक मची रही। जब गाडी मुरादाबाद आयी तो यहाँ काफ़ी सवारी इस लोकल डिब्बे से उतर गयी थी। अब डिब्बे में आने-जाने की खाली जगह बन गयी थी।

डिब्बे में भले ही गर्मागर्मी का माहौल बना हुआ था लेकिन बाहर मौसम एकदम सुहावना बना हुआ था। चूंकि मेरी सीट खिडकी वाली थी तो मैंने उस मौसम का पूरी रात जमकर लुत्फ़ उठाया था। भले ही गर्मी का महीना चल रहा था। लेकिन बाहर का मौसम देखकर मन बहुत प्रसन्न था। ट्रेन ने सुबह के समय जब गाजियाबाद शहर की सीमा में प्रवेश किया तो बारिश भी शुरु हो गयी थी। सुबह-सुबह का हसीन मौसम और उसपर बारिश क्या कहने। गाजियाबाद से गाडी आगे बढी तो अपने सफ़र के समाप्त होने की याद आ गयी। क्योंकि जैसे ही अपुन इस गाडी से उतर कर घर की ओर चलेगे तो यह सफ़र यानि यात्रा समाप्त हो जायेगी। जब अपनी ट्रेन दिल्ली शाहदरा स्टेशन के नजदीक आयी तो मैं खिडकी पर आ गया क्योंकि अगर ट्रेन यहाँ रुकी या धीमी हुई तो यहाँ से अपुन को दूसरी ट्रेन या स्थानीय लोकल आटो घर तक जाने के लिये मिल जायेंगे। लेकिन जैसा कि अक्सर होता है कि ट्रेन दिल्ली शाहदरा ना रुक कर सीधी पुरानी दिल्ली स्टेशन जाकर ही रुकी। वहाँ से मैंने बाहर आकर D.T.C की स्थानीय बस में बैठ अपने घर का रुख किया, बिना किसी खास परेशानी के घन्टे भर की लोकल बस की यात्रा करता हुआ, मैं अपने घर पर मौजूद था। तो दोस्तों यह तो था, अपना तीन-चार दिनों का छोटा सा सफ़र.......
मिलते है जल्द ही............... एक नये सफ़र की यादे आप सबके बीच बाँटते हुए।


भीमताल-सातताल-नौकुचियाताल-नैनीताल की यात्रा के सभी लिंक नीचे दिये गये है।
भाग-01-दिल्ली से भीमताल की मुश्किल यात्रा।
भाग-02-भीमताल के ओशो प्रवचन केन्द्र में सेक्स की sex जानकारी।
भाग-03-ओशो की एक महत्वपूर्ण पुस्तक सम्भोग से समाधी तक के बारे में।
भाग-04-भीमताल झील की सैर।
भाग-05-नौकुचियाताल झील की पद यात्रा।
भाग-06-सातताल की ओर पहाड़ पार करते हुए ट्रेकिंग।

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ताल ही ताल।

22 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ज्यादा क्लिक क्लिक क्लिक करना पड़ा...सुन्दर चित्रों के साथ रोचक यात्रा..

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  2. बहुत सुंदर वर्णन किया है क्यों ना करे देवता जो हुऎ !

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  3. सुन्दर वर्णन रोचक यात्रा वृतांत शानदार चित्र संयोजन है!!

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  4. और सुन्दर फोटुओं का इंतजार है संदीप भाई

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  5. भालू से जंग और बारिश के मौसम में खिड़की की सीट..रोचक वृत्तान्त..

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  6. नीरज जाट अपने ब्लाग पर भीख मांगने लगा है ।असली जाट तो नहीं लगता। कंगले को तन्खवाह नहीं मिलती क्या ?

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. यार, तनखा तो भतेरी मिलती है पर काम नहीं चलता। कम पड जाती है। तू कब देगा भिखारी को भीख?
    चल, छोड यार। भीख मत दे। तुझमें हिम्मत नहीं है इतनी। अपना मूं तो दिखा दे, नाम तो बता दे। या इतनी भी हिम्मत नहीं है???? बिल्कुल गये गुजरे लोग नेट पर बैठ जाते हैं और हिन्दी लिखने की प्रैक्टिस करते रहते हैं।

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  9. Sandeep bhai, is rail yatra ko dekhkar to mera bhi mann kar gaya hai ab char wheels se badhkar bhi kuch sochna chahiye kabhi kabhi ek saal mein. Ye nanitaal wala inspiration kam nhn hai us k liye and yes, nice pictures too :)

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  10. पगडी संभाल जट्टा - नीरज जाट को ।
    घुमक्कडी के लिये रुपये-पैसे की जरुरत नहीं है, रुपये -पैसे की जरुरत है टैक्सी वाले को, जरुरत है होटल वाले को।
    सहायता
    घुमक्कडी में आप भी अपना योगदान दे सकते हैं- धन से। इसके लिये आप मेरे खाते में पैसे भेज सकते हैं।
    अगर आप ड्राफ्ट से या चैक से पैसे भेजना चाहते हैं तो उसमें मेरा नाम Neeraj Kumar लिखें। Neeraj Jat कभी ना लिखें।
    आपका यह योगदान घुमक्कडी को एक नई ऊंचाई तक पहुंचाने का काम करेगा। धन्यवाद।
    Neeraj Jat says: at http://www.ghumakkar.com
    February 13, 2012 at 2:28 am :
    तो सीधी सी बात है कि भिखारियों ने परम्परागत तरीके से भीख मांगनी कम कर दी है। अब वे दिमाग लगाते हैं और सामने वाले पर मानसिक प्रहार करते हैं।

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    February 13, 2012 at 2:28 am :
    तो सीधी सी बात है कि भिखारियों ने परम्परागत तरीके से भीख मांगनी कम कर दी है। अब वे दिमाग लगाते हैं और सामने वाले पर मानसिक प्रहार करते हैं।

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  13. अपने मन की कह रहा हूं ,तुम्हारा प्रशंसक था पर अब अपना मुह छिपाना पड रहा है क्योंकि भीख मांगने लगे हो तुम और भीख मिल भी जायेगी पर तुम जो घुमक्कडी में पैसे खर्च ना करने की बात करते थे अब कहां गये । और उस पैसे को तुम्हे क्यों दिया जाये क्या तुम कोई समाज के हित में काम कर रहे हो या इससे समाज को कोई फायदा होगा । या फिर कल को नीरज जाट शादी करने जायेगा तो उसकी बस यात्रा को भी फाइनेंस करना पडेगा हा हा हा ऐसे लोग अपने आपकेा घुमक्कड कहते हैं थू है इन पर । अरे नही हैं पैसे तो घर बैठो किसी ने कहा है क्या घुम्क्कडी करने को ,घर में नही दाने अम्मा चली भुनाने । नीरज जाट की पोल खुल चुकी है

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  14. एक अनुरोध है की मेरे ब्लॉग पर किसी अन्य ब्लोग्गर के बारे में कुछ ना लिखे
    नीरज को मैंने समझा कर देख लिया है वो अपना रवैया बदलने को शायद तैयार नहीं है अगर जो भी कुछ उलटा सीधा लिखना है तो उसी के ब्लॉग पर लिखे,ताकि वो या उसके हिमायती आपकी बात का जवाब दे सके, क्योंकि यहाँ उसके हिमायतियो की कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं है,मैं कुछ कहूँगा नहीं,
    अगर वो भीख भी मांगता है तो मांगने दो उससे मेरी, तुम्हारी या किसी और की सेहत पर क्या फर्क पड़ता है देने वाले देंगे कोई कुछ भी कहे उससे क्या होगा? अगर फिर भी लिखना है तो अपनी पहचान दिखा कर लिखो, डंके की चोट पर कहो, अरे जब वो मांगते हुए नहीं डरता तो तुम क्यों सच कहते हुए डरते हो ?

    जवाब देंहटाएं
  15. आप बिल्कुल सही कह रहे हैं । लेकिन नीरज जी तो अपने ब्लॉग पर छापते नहीं हैं । वैसे भी स्वनामधन्य जाट के ये करम तो निकट भविष्य के लिये आशा बंधाते हैं ,यह सतयुग के आगमन और कलयुग के अन्त को सूचित कर रहें हैं । कलयुग के अन्त में ही जाटों की ऐसी मति फिरेगी । चलो सतयुग तो निकट है ! पंजाब और हरियाणा के जट्ट तो ऐसे नहीं करते । उसके गांव दबथुवा में नीरज जी के पिताजी और बड़े बुजुर्गों से कहलवाकर देखो शायद समझ जाय ।

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  16. आप बिल्कुल सही कह रहे हैं । लेकिन नीरज जी तो अपने ब्लॉग पर छापते नहीं हैं । वैसे भी स्वनामधन्य जाट के ये करम तो निकट भविष्य के लिये आशा बंधाते हैं ,यह सतयुग के आगमन और कलयुग के अन्त को सूचित कर रहें हैं । कलयुग के अन्त में ही जाटों की ऐसी मति फिरेगी । चलो सतयुग तो निकट है ! पंजाब और हरियाणा के जट्ट तो ऐसे नहीं करते । उसके गांव दबथुवा में नीरज जी के पिताजी और बड़े बुजुर्गों से कहलवाकर देखो शायद समझ जाय ।

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  17. ये Anonymous कोन है यार ये फ़ालतू की बकवास क्यों किये जा रहा है

    अगर नीरज जात स्पोंसरशिप चाह रहा है तो इससे Anonymou को क्यों टेंशन हो रही है ?

    इस देश लाखों मुसलमान मुफ्त ही सब्सिडी वाली हज यात्रा कर रहे है

    बहुत सारे लोग NGO चला रहे है किसके पैसो से चल रहे है ये NGO ?

    जवाब देंहटाएं
  18. सुन्दर वर्णन रोचक यात्रा वृतांत शानदार चित्र संयोजन है!!

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