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रविवार, 30 जुलाई 2017

Shri Shani Dev Mandir, kokilavan शनिदेव मंदिर, कोकिलावन


दोस्तों, आज के लेख में आपको कोकिलावन स्थित शनिधाम की यात्रा पर ले जा रहा हूँ। यह बहुत बड़ी यात्रा नहीं है क्योंकि यह यात्रा शनि मंदिर की रात भर में की गयी यात्रा है। इस मंदिर को हमने रात के समय देखा था। सबसे पहले आपको बताता हूँ कि हम यहाँ तक कैसे पहुँचे? यहाँ पहुँचना कोई ज्यादा मुश्किल नहीं है। मेरा यहाँ जाने का कोई इरादा भी नहीं था। हमारे पड़ौस में जगतपुर गांव में टैम्पों ट्रेवलर का मालिक रहता है। वह लगभग हर अमावस्या वाली रात को अपने टेंपो ट्रैवलर से इस शनि धाम मंदिर पर आता है। उसी ने आस पडोस के लोगों से कहा हुआ है कि यदि किसी को मथुरा वाले शनिधाम मंदिर मेरे साथ जाना हो तो उससे पड़ौसी होने के नाते सौ रुपए किराया ही लिया जाएगा। दिल्ली से मथुरा आने-जाने का किराया देखा जाये तो यह बहुत ही कम है क्योंकि दिल्ली वाले घर से शनि धाम की दूरी 127 किलोमीटर है।
शनिधाम कोकिलावन, कोसीकला, मथुरा Sri Sani Dev Temple, Kokilavan, kosi kalan

ऐसे ही अचानक मुझे इस कार्यक्रम का ऑफर मिला तो मैं भी तैयार हो गया और वैसे तो दिल्ली से हम रात के लगभग 8:00 बजे के आसपास चले होंगे। टेंपो ट्रैवलर में 15-16 सवारी आ जाती है लेकिन उस रात हम मुश्किल से 10 लोग होंगे। गाडी के मालिक को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि सभी सीट भरी है या नहीं। यदि इस गाडी मालिक को किसी यात्रा में एक भी सवारी नहीं मिलती है तो वह अपने दो-तीन दोस्तों के साथ ही इस मासिक यात्रा पर चला जाता है।
तो चले दोस्तों, अब हम भी मथुरा की ओर बढ़ते हैं। इस यात्रा के दौरान मेरे पास राजेश सहरावत जी का एक पुराना मोबाइल था जो उन्होंने कभी MTS कंपनी से द्वारा लिया था। मैंने पहली बार ऑफलाइन (बिना नेट) नक्शा चलती गाड़ी में गति के साथ इस यात्रा में आजमाया था। उस MTS मोबाइल में मैंने maps me ऑफलाइन मैप डाउनलोड किया हुआ था। ऑफ लाइन maps की दुनिया में Sygic maps भी अच्छा विकल्प है। गुगल मैप online में बेहतर कार्य करता है। लेकिन हर जगह नेटवर्क उपलब्ध नहीं होता है। इसलिये हमें आपातकाल में अपने आप को निकालने के लिये एक ऑफलाइन मैप अवश्य डाउललोड कर लेना चाहिए।               
आगे बढ़ते हैं, यह मेरा मोबाइल मैप के साथ पहला सफल अभ्यास था। जिस पर मैंने ऑफलाइन मैप का उपयोग किया था और इसमें सबसे गजब बात यह थी कि जैसे-जैसे गाड़ी आगे स्पीड से बढ़ती जाती थी तो मोबाइल पर सड़क कैसे पीछे हटती जा रही थी। यह मैप में स्पष्ट देखा जा रहा था। शनिधाम जाने के क्रम में हमारी गाड़ी दिल्ली की भयंकर भीड को पार करती हुई, फरीदाबाद, पलवल, होडल जैसी जगह से होती हुई, आगे बढती जा रही थी। हमारी गाडी मथुरा वाले हाईवे को कौसीकला बाईपास पर एक फ्लाईओवर के पास पहुँचकर अलग रुट पकड लेती है। फ्लाईओवर के नीचे से सीधे हाथ की दिशा में कामवन होते हुए डीग, राजस्थान जाने वाली सडक पर चल पडती है। रात का समय था इसलिए मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हम हैं कहाँ? वह तो ऑफलाइन मैप था जिससे ये अंदाजा हो रहा था कि हाँ हम किसी छोटे मार्ग पर अभी चल रहे हैं। ऑफलाइन मैप में यह समस्या थी कि वह इन छोटे-मोटे इलाकों से भली भांति परिचित नहीं था। जिससे मैं उन्हें पूरी तरह समझ नहीं पा रहा था। आखिरकार एक तिराहे पर जाकर पुलिस वालों ने हमारी गाड़ी रोक दी और कहा कि इससे आगे गाड़ी नहीं जाएगी। आप अपनी गाड़ी यहाँ तिराहे से पीछे हटाओ। यहाँ से आगे मंदिर जाना है तो पैदल जाओ।
हमारे संचालक ने जगह देखकर गाड़ी साइड में लगा दी। उसके बाद सभी लोग पैदल चल दिए। जिस तिराहे से हमने पैदल यात्रा शुरू की थी। वहां से मंदिर की दूरी दो किलोमीटर थी। रात के 12:00 बजे का समय हो चुका था और उस पैदल मार्ग पर बहुत भारी भीड़ थी। जो गाड़ियां भीड बढने से पहले आगे गई हुई थी। वे अभी इस भीड वाले मार्ग पर रेंगते हुए वापिस आ रही थी। शनिधाम पर गाडियों के लिये बहुत ज्यादा स्थान नहीं है। वहाँ पर एक समय में ज्यादा से ज्यादा 5000 गाडियाँ ही पार्क हो सकती है। वहाँ पहले ही अधिक संख्या में गाड़ियां पहुंच चुकी थी। जिस कारण पुलिस वालों ने और गाड़ियों को आगे जाने से रोक दिया था। सभी साथियों को पहले ही बता दिया था कि जूते-चप्पल गाड़ी में ही छोड़कर जाने हैं। आज मंदिर पर जमा भयंकर भीड में वहां पर जूते-चप्पल निकालेंगे तो वापसी में उनसे मिलने का कोई भरोसा नहीं होगा। मैंने साथियों की चप्पल वाली सलाह नहीं मानी। दो किमी जाना और दो किमी आना, वो भी पक्की सडक पर, नंगे पैर। मुझसे नहीं हो पायेगा। मैं नंगे पैर आधा किमी भी नहीं चल पाता हूँ। मैं साथियों के साथ चप्पल पहनकर पैदल ही बढ चला।
भीड भरे मार्ग पर हमें चलते हुए आधा घंटा ही हुआ होगा कि मंदिर सामने दिखाई देने लगा। यहाँ परिक्रमा मार्ग आरम्भ होता है। कुछ भक्त दंडवत परिक्रमा करते हुए मंदिर की ओर धीरे-धीरे सरकते हुए जा रहे थे। हम दंडवत तो नहीं थे। हम तो ग्यारह नम्बर की गाड़ी से दनादन बढ़ते जा रहे थे। हमारे जो साथी पहले से यहां आते रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमें लोगों के साथ इस परिक्रमा मार्ग पर नहीं चलना है। मैंने उनसे कहा, ऐसा क्यों? उन्होंने कहा इस परिक्रमा को तय करने में कम से कम 2 घंटे का समय लगेगा और उसके बाद बाद दर्शन करने से पहले नहाना भी होगा। नहाने में भी कम से कम आधा-पौना घंटा लग जाएगा। तब तक दर्शन करने वाली लाइन इतनी लम्बी हो जायेगी कि कल सुबह तक भी दर्शन होने मुश्किल है। उससे अच्छा है कि नहाने के बाद सीधे मंदिर के दर्शन कर लेते है। आज बहुत भयंकर भीड़ है। आज परिक्रमा नहीं करते हैं। दोबारा फिर कभी आएंगे तो पैदल परिक्रमा कर लेंगे। चलो भाई, आप लोगों की सहमति से मैं भी सहमत। वैसे भी मैं ठहरा ब्लॉगर बन्दा, मुझे यात्रा में लिखने के साथ कुछ फोटो भी चाहिए होते है। रात में फोटो-सोटो भी ढंग के ना आने वाले है। एक बार दिन में तो यहाँ आना ही पडेगा। वो भी किसी ऐसे दिन, जब यहाँ न शनिवार हो, ना कोई त्यौहार हो। तभी यहाँ चैन से (पैंट वाली नहीं, तसल्ली वाली चैन) अपनी इच्छा अनुसार सम्भव हो पायेगा।
ठीक है तो सबसे पहले हम यहां से स्नान कुंड की तरफ चलते है। स्नान कुंड के पास पहुंचे तो देखा कि वहां सैकड़ों की संख्या में भक्त लोग जोर-जोर से जयकारा लगाते स्नान करने लगे पड़े थे। हमने भी एक किनारा ढूंढ कपड़े उतारे और जल कुन्ड में कूद पडे। नहा-धोकर वहां से निकलने लगे तो मुझे बताया गया कि यहां इस कुन्ड में जो पहली बार नहा रहा है। वह अपना कच्छा (अन्डरवियर) यहां सामने वाले कंटीले पेड पर एक बारी फैकने पर ही अटका देगा तो वो किस्मत वाला होता है। यदि किसी का निक्कर ऊपर झाड में अटक गया तो उसे वापस लेकर नहीं जाना है उसे झाड पर ही छोड देना होता है। मुझे इस परम्परा पर आश्चर्य हुआ था। कैसे-कैसे लोग है? कैसी-कैसी परम्परा बना लेते है? दोस्तों जैसे कि बताया कि वह कीकर के पेड़ पर अपने उपयोग किये पुराने या नये निक्कर फैकने में भी एक पंगा था कि जो जिसका निक्कर पहली बार में पेड पर टंग/अटक गया। कहते हैं कि उसकी ही मनोकामना पूरी होती है। अब यह क्या था? भाई नहीं पता, मैंने उन लोगों के साथ अपना कच्छा पेड़ पर नहीं फेंका।                        
हमने जहाँ गाड़ी खड़ी की थी। वहां पर एक बोर्ड लगा हुआ था। उस बोर्ड से पता चला कि यह रोड कोसी से बरसाना के लिए जाता है। यही-कही पास में किशोरी कुंड है। बृजभूमि में स्नान कुंड भरे पड़े हैं। ऐसे कुन्ड बहुत सारे मिलेंगे। हां जी, जहां पर हम स्नान कर रहे थे। वही कोकिलावन है। जिसकी दूरी कोसीकला-बरसाना मार्ग से 2 किलोमीटर है। यहां से 3 किलोमीटर दूर नंदगांव है। वहाँ अभी जाना नहीं था। फिर कभी हो आएंगे। अभी तो कोकिलावन के शनिधाम मंदिर के आस-पास ही जमे रहते हैं। स्नान के पश्चात हम लोग वहां से आगे बढ़े। आगे बढ़ते ही एक गौशाला का मुख्य द्वार आता है। गौशाला के दरवाजे पर लोग गायों की सेवा के लिए आटा, दाल, गेहूं और बहुत सारी चीजें घर से लेकर आए थे। कोई पोटलियाँ में, कोई बैग में, कोई कट्टे में सामान लाया था। वहां पर बने ड्रम में अलग-अलग वस्तुएँ डालते जा रहे थे। हमारे साथ जो साथीइन गायों के लिये सामान लाये थे। उन्होंने अपने साथ लाया समान उसमें डाल दिया।
इससे आगे बढ़े तो एक विशाल भंडारे का बोर्ड दिखाई दिया। हम यहाँ खाने-पीने नहीं आये थे। भूख भी नहीं लगी थी। यदि भूख लगी होती तो यह भंडारा मददगार होता। राजू भंडारी को पीछे छोड़ कर आगे बढते ही सीधे हाथ शनिदेव मंदिर का मुख्य द्वार दिखाई दिया। मुख्य द्वार के ठीक ऊपर श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु जी की बैठक लिखा हुआ था। द्वार के ठीक सामने कोकिलावन की पुलिस चौकी थी। यह जो कोकिलावन है, थाना कोसीकला के अंतर्गत आता है जिसका जिला मथुरा, राज्य उत्तर प्रदेश और यह तो हम सब जानते ही है कि यह सब भारत भूमि है।                       
मंदिर के अंदर प्रवेश करने से पहले दोस्तों ने सभी के लिए सरसों का तेल, धूपबत्ती जैसे पूजा के लिये जरुरी सामान ले लिया था। जो शनि महाराज पर चढ़ाया जाएगा। शनि महाराज जी को तेल कुछ ज्यादा ही पसंद है। लोगों भी दिल खोल कर, जम के तेल चढ़ाते हैं। मैं अकेले आया होता तो कभी भी तेल न चढाता। दोस्तों ने सभी के लिये ले लिया तो चलो भाई। भेड़ चाल में यह पुण्य भी सही। तेल वाली दुकान पर अपनी चप्पले छोड दी। मुख्य मंदिर से थोड़ा पहले ही भीड़ को कंट्रोल करने के लिए लोहे की रेलिंग लगाई हुई थी। जिनमें दाएं-बाएं, दाएं-बाएं में घूमते-घूमते-घूमते मंदिर तक पहुंचा जाता है। हम भी इन सर्पीली रेलिंग के बीच में से होते हुए मंदिर तक पहुंचे। यहां पर भी कुछ लोग बदमाशी कर रहे थे। रेलिंग के ऊपर से कुछ लोग छलांग लगाते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। थोड़ी देर में हम लोग मंदिर पहुंच गये। बारी-बारी सब लोगों ने दिया-बत्ती जलानी शुरू कर दी। उसके बाद एक जगह शीशी में लाया सरसों का तेल चढ़ाया। यह सब पूजा पाठ करके कुछ लोगों को हनुमान चालीसा पाठ व शनि पाठ करना था। वह लोग एक तरफ बैठकर पाठ करने लगे। थोड़ी देर बाद सब लोग मंदिर से बाहर आ गए। मंदिर से बाहर आने के बाद टाइम देखा तो सुबह के 4:00 बज चुके थे कि हमें लगभग 4 घंटे यहां पर आए हुए हो चुके थे।                        
मंदिर से बाहर आकर देखा कि हमारी संख्या पूरी है। कोई भाई अन्दर नहीं रह गया है। हम लोग वहां से अपनी गाड़ी की तरफ चल दिए। गाड़ी वहां से लगभग 2 किलोमीटर दूरी पर थी। हमारे आगे-आगे भी हजारों लोग वापस जा रहे थे। हजारों की संख्या में लोग मंदिर की ओर चले भी आ रहे थे। सड़क पर इतनी भीड भी कि चाह कर भी किसी को पैदल भी ओवरटैक नहीं कर पा रहे थे। धीरे-धीरे इस भीड़ में चलते रहे लगभग पौन घंटे में 2 किलोमीटर तय कर गाड़ी के पास आए। थोड़ी देर बाद अपनी गाड़ी लेकर अपने घर की ओर रवाना हो गये। सुबह 6:00 बजे तक अपने घर पहुंच गए। आज रविवार है, ड्यूटी भी नहीं जाना था। इसलिए घर आकर सबसे पहले नींद पूरी करनी है। (समाप्त)    

इस बोर्ड के ठीक सामने शनि की विशाल मूर्ति है जो रात में फोटो में ना आ सकी।


गौशाला में दान देने वालों की लाइन

शनि धाम में स्नान करते भक्तगण



शनि देव मंदिर का प्रवेश द्वार


11 टिप्‍पणियां:

  1. क्या ये यात्रा 2 साल पहले की थी
    आज सनी धाम की भी यात्रा करा दी
    शानदार लेख

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  2. लेख तो बढिया है पर फोटो की कमी रही।ऐसे स्थानों पर दो चार जगह और देख कर एक ही लेख लिखा जाये तभी निरंतरता बनी रहती है।

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  3. बढ़िया एक रात की यात्रा,
    गुजरात मे भी कुभेर भंडार करके धाम है वहाँ भी अमावश के दिन ऐसी ही यात्रा होती है

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (31-07-2017) को "इंसान की सच्चाई" (चर्चा अंक 2682) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. पढ़कर यात्रा का आधा आनन्द तो पा ही लिया -धन्यवाद .

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  6. मैं गया हूँ यहाँ ...2012 में तब कोई मेला था यहाँ लाखों की संख्या में पत्तल बिखरे पड़े थे ...और सरसों का तेल इतना था कि रैम्प पर चल नही पा रहे थे ।

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  7. मेरे लिए ये जगह बिलकुल नहीं जगह है, ब्लॉग लिखने और पढ़ने का यही तो फायदा है कि हमें नए नए जगह के बारे में जानकारी मिलती है और वहां जाने का मार्ग , रुकने के स्थान आदि का पता चलता है, रात की फोटो है पर जो भी बढ़िया है, जानकारियां मिल गई फोटो न भी मिल पाए तो कोई बात नहीं

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  8. बहुत बढ़िया संदीप भाई ! तो फिर दिन में दोबारा यात्रा का संयोग बना कि नहीं ? मुझे भी जाना है लेकिन उस दिन जाऊँगा जिस दिन न शनिवार हो न त्यौहार , आपकी तरह ही ! और दिन में चलेंगे ! प्रोग्राम बने तो बताइयेगा जरूर !!

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