बद्रीनाथ धाम में आये तो
यह सब भी देखे।
इस यात्रा में अभी तक आपने पढा कि कैसे हम दिल्ली
से एक रात व एक दिन में हरिद्वार से बद्रीनाथ तक बस से यात्रा करते हुए पहुँचे।
सबसे पहले बद्री-विशाल मन्दिर के दर्शन करने पहुँचे। वहाँ से लौट कर कमरे पर वापिस
आये तो देखा कि सभी साथी मन्दिर दर्शन से लौट कर आ चुके थे। सबसे मुलाकात की। यहाँ
सिर्फ़ दो साथी अलग मिले तो दिल्ली से साथ नहीं आये थे। एक सुशील कैलाशी भाई जो पटियाला
से आये थे और दूसरे रमेश शर्मा जो उधमपुर जम्मू से आये थे। हरिद्वार से सुशील व
रमेश जी उसी बस में साथ आये थे जिस में अन्य सभी साथी सवार थे। मुझे और बीनू को
अलग बस के चक्कर में इन दोनों से बद्रीनाथ पहुँचकर ही मिलना हो पाया। बीनू का
कैमरा उसके बैग में ही रह गया था।
इस यात्रा में कुछ पुराने साथी थे जिनसे पहले भी मुलाकात हो
चुकी है
1 कमल कुमार सिंह जिन्हे नारद भी कहते है। बनारस
के रहने वाले है।
2 बीनू कुकरेती बरसूडी गाँव, उत्तराखण्ड के रहने
वाले है।
3 अमित तिवारी को बनारसी बाबू कहना ज्यादा उचित
है।
4 सचिन त्यागी मंडौली दिल्ली के रहने वाले है।
नये दोस्त, जो इस यात्रा में पहली बार मिले, इनसे पहली बार
मुलाकात हुई।
1 योगी सारस्वत गाजियाबाद में रहते है।
2 संजीव त्यागी दिल्ली के कृष्णा नगर के निवासी
है।
3 विकास नारायण ग्वालियर के रहने वाले है।
4 सुमित नौटियाल श्रीनगर, उत्तराखन्ड के रहने
वाले है।
5 सुशील कैलाशी पटियाला, पंजाब के रहने वाले है।
6 रमेश शर्मा उधमपुर, जम्मू के रहने वाले है।
दिल्ली में जनवरी के महीने में कडाके की सर्दी पडती है उसके ठीक विपरीत जून के
महीने में भयंकर गर्मी भी होती है। कल की रात (जून की रात) हम दिल्ली की भयंकर
गर्मी में ही चले थे। आज बद्रीनाथ में पहुँचते ही कम्बल रजाई याद आ रही है। कई
महीनों बाद रजाई में सोने को मिल रहा है। मुझे ठन्ड बहुत पसन्द है। ठन्ड के मौसम
में रजाई में सोना बडा अच्छा लगता है। अब चार दिन ठन्ड में ट्रैकिंग पर रहेंगे
लेकिन वहाँ ट्रेकिंग पर रजाई का आनन्द नहीं मिल पायेगा। आज और कल दो दिन ही रजाई
का सुख है। ट्रैकिंग में तो कैदियों की तरह स्लिपिंग बैग में कैद होकर जबरदस्ती
सोना पडता है। जिसमें ढंग से नीन्द भी नहीं आ पाती है। सभी साथियों से मिलकर एक
ग्रुप में होने का अहसास हुआ। मैं अधिकतर यात्रा अकेले ही करता हूँ। ज्यादा
साथियों के कारण, बहुत बार यात्रा आगे-पीछे करने के चक्कर में यात्रा हो ही नहीं
पाती है। इसलिये अपनी ढपली-अपना राग बजाना ज्यादा बढिया लगने लगा है। साथियों के
साथ एक समस्या यह भी होती है। 1 महीने पहले यात्रा पर साथ
जाने की हाँ करेंगे 10, यात्रा से 1 सप्ताह पहले तक आधों को कुछ न कुछ काम याद आ
जायेगा। आखिर में जिस दिन जाना होता है। पता लगता है कि दो-तीन ही जा रहे है। कई
बार तो सभी हट जाते है। तब ऐसी हालत देखकर अकेले जाना ही सबसे बेहतर उपाय सिद्ध
होता आया है। एक कहावत इसी मौके के लिये बनायी गयी है। “ना नौ मन तेल होगा, ना
राधा नाचेगी”। राधा तो रोज नाचती है। जाकर देखना पडेगा तभी तो पता लगेगा।
रात को 11 तक लगभग सभी सो गये। कल रात दिल्ली से बस में चले तो आज शाम
तक बस में यात्रा चलती रही। सभी की नीन्द पूरी नहीं हो पायी थी। सुबह उठने की कोई
जल्दी नहीं थी। इसलिये आराम से उठे। आज बद्रीनाथ के पास चरण पादुका व उसके आगे
नीलकंठ पर्वत के बेस तक ही होकर आना था। जो ज्यादा मुश्किल कार्य नहीं था। चरण
पादुका तो कमरे की खिडकी से सामने ही दिख भी रहा था। चरण पादुका वाला पहाड पार
करते ही नीलकंठ पर्वत का आधार नजदीक आने लगता है। आज सभी का इरादा मन्दिर के गर्म
पानी में स्नान कर मन्दिर दर्शन कर चरण पादुका तक व उसके आगे नीलकंठ पर्वत के आधार
तक जाने का था। मन्दिर पहुँचकर गर्मा-गर्म पानी में स्नान किया। पानी अत्यधिक गर्म
था जिसमें नहाना आसान नहीं था। कुछ लोग बाल्टी में ठन्डा पानी मिलाकर नहा रहे थे।
किसी तरह हाथों से पानी डाल-डाल कर नहाये।
नहाने के बाद देखा कि मन्दिर में दर्शन की लाइन
बहुत लम्बी है। चलो पहले कुछ खा-पी लेते है। उसके बाद चरण पादुका के लिये जायेंगे।
वहाँ आने-जाने में कई घन्टे लग जायेंगे। तब तक भूख के मारे सभी तंग हो जायेंगे।
मन्दिर के नजदीक ही पुल से ठीक पहले, एक भोजनालय में जाकर नाश्ता किया। जिसके जो
खाने की इच्छा थी, उसने वो बोला। मैंने दो परांठे व दही का स्वाद लिया। भोजन करने
के उपरांत मन्दिर के बराबर से उल्टी दिशा में अलकनन्दा नदी की दिशा के साथ-साथ चरण
पादुका के लिये चलना शुरु किया। थोडी दूर जाते ही गर्मा-गर्म जलेबी बनती दिखायी दी।
50 रु की जलबी लेकर खाते हुए
चल दिये। मुझे जलेबी दिख जाये और मैं बिन खाये आगे निकल जाऊँ, ऐसा तो सम्भव ही
नहीं था। जलेबी निपट चुकी थी। आगे बढने पर सीधे हाथ ऊपर पहाड की ओर से एक पक्की
पगडन्डी नीचे मिलती हुई देखी। एक दुकानदार से इसके बारे में पता किया। उसने कहा कि
यह मार्ग चरण पादुका के लिये जा रहा है। यहाँ से चरण पादुका की दूरी करीब ढाई किमी
है। इसी मोड पर पानी की टोंटी पर जलेबी वाला हाथ धोकर ऊपर की ओर बढ चले। अलकनन्दा
का किनारा छोडते ही ठीक-ठाक चढाई आरम्भ हो गयी।
चरण पादुका की ओर चढाई पर बढते समय एक-डेढ किमी
बाद एक लाल रंग का मन्दिर आता है इसे हनुमान मन्दिर कहते है। जो साथी आगे थे वे इस
मन्दिर के अन्दर बनी गुफा में चले गये। कुछ मेरे साथ बाहर ही बैठ गये। थोडी देर
बाद सभी बाहर आये तो आगे चरण पादुका की ओर बढे। मैंतो अभी तक इसे ही चरण पादुका
मान रहा था। इस मन्दिर से आगे चलते ही आधा किमी की अच्छी खासी चढायी है जिसको पार
करने के बाद सामने जो नजारा दिखता है उसे देख अब तक हुई सारी थकावट गायब हो जाती
है। यहाँ से आगे पगडन्डी की यात्रा थोडी आसान मिली। थोडी देर में चरण पादुका पहुँच
गये। चरण पादुका पहुँचकर थोडा सुस्ताने के इरादे से बैठे हुए थे कि चरण पादुका में
काम करने वाले एक बन्दे को पता नहीं क्या सूझी कि वो जोर-जोर से चिल्लाना शुरु कर
दिया। उसके इस व्यवहार को देखकर सभी साथियों ने चरण पादुका में अन्दर जाने से मना
कर दिया। वो बन्दा किस बात पर भडका, पता नहीं लगा। चलते समय एक साथी ने उसको कुछ
दक्षिणा देनी चाही तो उसने वो भी ना ली। वहाँ से आगे नीलकंठ पर्वत के आधार स्थल की
ओर बढ चले।
चरण पादुका से एक किमी आगे पहुँचने पर पक्की
पगडन्डी समाप्त हो गयी। इसके बाद एक पहाड को पार किया। अब हमारे सामने एक और पहाड
था जिसके बाद ढलान में नीलकंठ पर्वत का आधार था। एक गाय चराने वाला नीलकंठ पर्वत
के आधार पर अपनी गाय को लेकर जा रहा था। यहाँ मौसम ने पल्टा खाया। हल्की-हल्की बारिश
आरम्भ हो गयी। सबको अपने रैन कोट पहनने पडे। आगे जो कच्चा मार्ग दिख रही थी उसकी
हालत बहुत खराब थी। कच्चा मार्ग बरसाती नालों को पार करते हुए जा रहा था। बरसाती
नालों में बरसात के मौसम व बारिश की पूरी सम्भावना देखते हुए उनके पार जाना ही
नहीं चाहिए। अगर अभी बारिश शुरु हुई ही हो तो इन्हे आसानी से पार किया जा सकता है
लेकिन एक बार बारिश थोडी तेज हो जाये तो इन्हे पार करने के लिये कई-कई घन्टे व
कई-कई दिन तक खडे रहकर देखने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता है। रमेश जी यहाँ तक ही
बडी मुश्किल से आये थे। उन्हे यहाँ से ही वापिस भेज दिया गया। रमेश जी तो पहले ही
आगे बढने की मना कर चुके थे। इस वाले पहाड तक ही बडी मुश्किल से आये थे। अब बरसात
आरम्भ होने से यह यात्रा जारी रखना खतरे से खाली नहीं था। सुशील कैलाशी व विकास
नारायण रुकने के मूड में नहीं थे। वे दोनों बरसात के बावजूद भी उन नालों को पार कर
आगे निकल पडे। दो तीन साथी काफी पहले से नदी के दूसरे किनारे पर चले गये थे।
उन्हें हमारी आवाज भी सुनायी नहीं दे रही थी। उन दोनों को आगे जाने दिया गया। हम सभी वापिस
लौटने लगे।
करीब एक किमी वापिस आने के बाद पहले पहाड से
उतर कर पीछे मुड कर देखा कि दो बन्दे दूर पहाड की चोटी पर हमारी ओर आते दिख रहे है।
हो न हो ये अपने साथी कैलाशी व नारायण ही होंगे। चलो अच्छा किया कि बारिश देखते
हुए वे दोनों लौट आये। दो किमी नीचे उतरने के बाद बारिश बन्द सी हो गयी। चरण
पादुका से नीचे आने के बाद सामने वाले पहाड पर गिरी बर्फ में अभ्यास करते एक टीम
को देखकर कुछ समय बिताया। कुछ देर रुककर नीचे उतरना शुरु किया। अबकी बार हनुमान मन्दिर
से पक्की पगडंडी छोडकर सीधे नीचे खाई की ओर उतरना शुरु किया। यहाँ से हमें
बद्रीनाथ जी के मन्दिर के आगे से लम्बा चक्कर नहीं लगाना पडा। तीखी उतराई पर
सावधानी से उतरना पडा। खेतों को पार करते हुए, झूला पुल से अलकनन्दा को पार किया।
यहाँ से बस अडडे तक आधा किमी की चढाई चढकर बस अडडे पहुँचे। बस अडडे के बराबर एक
खाली सडक सीधे मन्दिर तक जाती है। जिसको ना के बराबर लोग उपयोग करते है।
बस अडडे के सामने ही अपना कमरा था। कमरे के
बाहर सडक किनारे ही, एक दुकान नुमा भण्डारा यहाँ लगा हुआ था। उस दिन वहाँ भण्डारे
में कढी-चावल बनाये हुए थे। लगभग सभी ने कढी-चावल का भर-पेट स्वाद लिया। यहाँ की
कढी बडी स्वादिस्ष्ट थी। मैंने तो अलग से दो बार केवल कढी ही ली थी। भण्डारा
प्रसाद ग्रहण करने के बाद सामर्थ्य लोगों को उचित दान भी, दान पात्र में डालना
आवश्यक होता है ताकि इस प्रकार के भण्डारे हमेशा चलते रहे। ऐसे भन्डारे का गरीब
लोगों व मजबूर लोगों के लिये बहुत महत्व हो जाता है। भंडारे के ठीक पीछे हमारा
कमरा था। सभी कमरे पर पहुँचे। कल सुबह अपनी स्वर्गरोहिणी-संतोपंथ की ट्रैकिंग
आरम्भ होनी है। अपने कुछ साथी उसी के लिये सामान खरीदने बाजार चले गये।
मैंने, कमल, नारायण व सचिन भाई ने माणा गाँव तक
आने-जाने की योजना बनायी हुई थी। मन्दिर के करीब ही माणा चौक नाम की जगह से माणा
के लिये जीप मिलती है। हम चारों ने माणा तक आने-जाने के लिये एक जीप 300 रु में बुक की। जीप वाले ने हमें माणा में
रुकने के लिये 2 घन्टे का समय दिया। जीप
वाला पहले तो 400 से कम में मान ही नहीं
रहा था। हम उसे 300 रु बोल आगे बढ गये कि अब
पहुँचे आधे घन्टे में माना गाँव। बद्रीनाथ से माना गाँव की दूरी केवल 3 किमी ही है। बढिया मार्ग बना हुआ है। चढाई न के बराबर ही
है। तीन किमी में केवल 30 मीटर ही चढाई हो तो उसे
सडक पर न के बराबर ही समझना चाहिए। तीन किमी में 300 मीटर चढना पडे तो अलग बात हो जायेगी। जब हम पैदल आगे बढने
लगे तो उन्हे लगा कि 300 रु भी गये हाथ से। हम दो
सौ मीटर ही गये होंगे कि जीप वाला जीप लेकर आया बोला कि चलो बैठों 300 रु ही दे देना। चलो दोस्तों इस तरह हम तो जीप
में बैठ माणा चलते है। भारत का अंतिम गाँव कहलाता है माणा। वैसे कच्ची सडक तो माणा
गाँव से 50 किमी आगे माणा पास चीन की
सीमा के करीब तक भी बन चुकी है। जिस पर केवल सेना के वाहन ही जाते है अन्य वाहनों
को जोशीमठ से एस डी एम की आज्ञा लेनी पडती है। (continue) अगले लेख में माणा गाँव का भ्रमण।
कल का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंमाना पास वाली सडक शायद कच्ची ही रहेगी रोडरोलर कैसे जायेगा☺😊
बहुत सुन्दर फोटो गजब का वर्णन
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर।:-D
जवाब देंहटाएंसदैव की तरह मनोरंजक
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसंदीप भाई माना गाव आपके साथ योगी भाई नहीं, मैंगया था .
जवाब देंहटाएंयाद दिलाने का धन्यवाद, अपडेट कर दिया भाई।
हटाएं
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा लेखन।
सुन्दर फोटो संदीप भाई एक से बढ़कर एक
जवाब देंहटाएंशानदार
जवाब देंहटाएं