पेज

बुधवार, 28 दिसंबर 2016

Trek to Laxmi Van, Satopant Lake बद्रीनाथ से लक्ष्मी वन होकर चक्रतीर्थ तक



महाभारत काल के स्वर्गरोहिणी पर्वत व पवित्र झील सतोपंथ की पद यात्रा।
दोस्तों, बद्रीनाथ हो गया। चरण पादुका हो गया। माना गाँव हो गया। अब चलते है स्वर्ग की यात्रा पर। स्वर्ग के नाम से डरना नहीं। इस स्वर्ग में जीते जी जा सकते है मरने की भी टैंशन नहीं। जैसा की नाम से जाहिर है कि स्वर्ग जाना है तो यह तो पक्का है तो यात्रा आसान नहीं रहने वाली है। आज की रात रजाई में सोने का आनन्द तो ले ही लिया। अब लगातार 5 रात रजाई की जगह स्लिपिंग बैग में कैद रहना पडेगा। स्लिपिंग बैग के चक्कर में ढंग से नींद भी पूरी नहीं हो पाती। सुबह 7 बजे सभी को चलने के लिये रात में ही बोल दिया गया था। इसलिये सभी साथी लगभग 7 बजे तक तैयार होकर कमरे से बाहर आ गये। सारा सामान खाने-पीने व रहने-ठहरने का रात को ही लाकर कमरे में रख लिया गया था। 5 दिन की इस यात्रा के लिये कुल 11 साथी तैयार हुए थे। जिनके हिसाब से खाने-पीने का सामान कल ही खरीद लिया था। रात को दो साथी सतोपंथ-स्वर्गरोहिणी यात्रा पर जाने की ना कह ही चुके थे। रात को सामान लाने के बाद दिल्ली वाले सचिन व जम्मू वाले रमेश जी की तबीयत खराब हो गयी थी इसलिये इन दोनों ने तो आगे जाने से ही मना कर दिया। 

रमेश जी 52 वर्ष पार कर चुके है। वो आज दिन में चरण पादुका आने-जाने में ही मन से हिम्मत हार चुके थे। वैसे उन्हे कोई ज्यादा समस्या भी नहीं हुई थी। दूसरे साथी सचिन त्यागी को उनके घर से जरुरी काम का फोन आ गया (घर से फोन न आता तो क्या सचिन जी वापिस जाते?) तो उन्हे भी यह यात्रा शुरु होने से पहले ही छोडनी पडी। एक तरह से देखा जाये तो अच्छा ही रहा। कोई यात्रा बीच में अधूरी छोडने से बेहतर है कि उसे शुरु ही न किया जाये। सचिन तो पूरी तैयारी कर के आया भी था। चलो घुमक्कडी किस्मत से मिलती है यह मैं हमेशा से कहता रहा हूँ। यहाँ इन दोनों के साथ यह बात एक बार पुन: साबित भी हो गयी। कई यात्राओं में ऐसे साथी भी साथ गये जो यात्रा बीच में छोड कर वापिस लौट आये। श्रीखण्ड महादेव ट्रेकिंग वाली यात्रा में ऐसे ही एक साथी नितिन भी लापरवाही से चलने से घुटने में चोट लगवा बैठा था। उसे उस यात्रा में दो बार चोट लगी थी। पहली चोट तो झेल गया लेकिन दूसरी वाली चोट उसे बहुत भारी पड गयी थी। जिस कारण वह अपनी यात्रा सिर्फ 5-6 किमी से आगे नहीं कर पाया था। 


चलो, लौटने वालों को छोडो। अपनी यात्रा बद्रीनाथ से आगे बढाते है। हम सभी ने बद्रीनाथ के मन्दिर के आगे से होते हुए यात्रा शुरु आरम्भ की थी। हमको बद्रीनाथ से ही अलकनन्दा को पार करना पडा। यदि बद्रीनाथ से अलकनन्दा को पार नहीं करते तो माना गाँव जाकर अलकनन्दा नदी को पार करना पडता। माना गाँव के ठीक सामने नदी पार माता मूर्ति मन्दिर है। यह बद्रीनाथ से तीन किमी दूरी पर है। इस साल बर्फ कम गिरी थी जिस कारण वसुधारा से पहले धानु ग्लेशियर अलकनन्दा नदी के ऊपर बन जाता है जिसे पार कर ट्रैकर सतोपंथ व स्वर्गरोहिणी के लिये जाते है। लेकिन इस साल धानु ग्लेशियर कम बर्फ होने से जल्दी ही टूट कर अलकनन्दा में समा गया। इसलिये हमें अलकनन्दा पार करने के लिये माना या बद्रीनाथ के अलावा कोई और जगह नहीं मिलनी थी। माता मूर्ति मन्दिर पर कुछ देर रुककर पीछे रह गये साथियों की प्रतीक्षा की। यहाँ तक समतल सा ही मार्ग है। यहाँ मन्दिर के बराबर में ताजे पानी की एक टोंटी है। जिस पर हम सभी ने पानी की अपनी-अपनी बोतले भर ली।   

माता मूर्ति मन्दिर के सामने अलकनंदा नदी पार द्रोपदी का मन्दिर दिखायी देता है। यदि हम वसुधारा के लिये जाते तो द्रोपदी मन्दिर के सामने से होकर निकलते। माता मन्दिर से आगे कुछ दूर तक साधारण मार्ग है उसके बाद थोडी चढाई आती है। जहाँ चढाई समाप्त होती है उसे आनन्द वन कहते है। जिसने भी इस जगह का आनन्द वन रखा होगा। उसे ज्यादा सोचना नहीं पडा होगा। कारण, आनन्द वन के दोनों ओर ढलान है। ट्रैकर बद्रीनाथ से आये या सतोपंथ से, उसे दोनों ओर से चढाई मिलनी ही है। इसलिये जब यात्री चढाई चढकर घास के छोटे से मैदान में पहुँचता है तो उसका मन थोडी देर सुस्ताने का कर ही जाता है। जब यात्री साँस फूलने के बाद थोडी देर घास के बिस्तर पर पैर पसारता है तो उस समय जो आनन्द उसे प्राप्त होता है उसे देखते हुए इस जगह का नाम आनन्द वन एकदम सही रखा गया है। 

आनन्द वन में बडे पेड नहीं है। छोटी-मोटी झाडियाँ ही यहाँ दिखायी देती है। आनन्द वन से आगे चलते ही जोरदार ढलान मिलती है। यह ढलान मात्र सौ मीटर की ही है लेकिन यहाँ पर जरा सी असावधानी बहुत भारी पड सकती है। ढलान पार करने के बाद सौ मीटर भूस्खलन का इलाका पार करना पडा। जिसके तुरन्त बाद धानू गलेशियर आ जाता है। यदि यह ग्लेशियर पिघला नहीं होता तो हम आनन्द वन के आनन्द को महसूस करने से वंचित रह जाते। गलेशियर के इधर वाले भाग में नाले के ऊपर बर्फ अभी तक सुरक्षित थी। लगभग 15 मीटर बर्फ पार करने के बाद 50 मीटर की तीखी चढाई नाले के साथ-साथ चढनी पडी। आनन्द वन से उतरने में जो आनन्द आया था वो आनन्द इस चढायी ने रफू-चक्कर कर दिया। इस चढाई ने सबकी साँस फूला डाली। नाले की चढायी पार करते ही हरा भरा मैदान देखकर सारी थकावट गायब हो गयी। यहाँ 2-3 मिनट ठहर कर साँस सामान्य की गयी। जब सभी साथी आ गये तो आगे की यात्रा आरम्भ हुई।

धानू ग्लेशियर से आगे, कई किमी तक का मार्ग हरा-भरा है। पूरे मार्ग में चढायी लगातार बनी रहती है। लेकिन चढायी बहुत ज्यादा तीखी नहीं है जिस कारण बिना रुके कई किमी आसानी से पार हो गये। एक जगह भेड-बकरियों का एक डेरा देखा। भेड व बकरियों ने पगडंडी पर ही कब्जा जमाया हुआ था। जब हम बकरियों के नजदीक पहुँचते तो बकरियों डर के कारण पगडंडी से हट जाती थी। कुछ भेड व बकरियाँ डर नहीं रही थी। तो ऐसी जगह हम उनके बराबर से होकर निकल रहे थे। ऐसी भेड-बकरियों के डेरों के साथ कई पहाडी कुत्ते उनकी सुरक्षा में तैनात रहते है। इन सुरक्षा वाले कुत्तों के गले में लोहे का कांटेदार पटटा होता है। जो इन्हे भालू व बाघ के हमले से बचाता है। ये कुत्ते भौटिया प्रजाति के होते है दो-तीन कुत्ते मिलकर बाघ या तेंदुआ का शिकार भी कर डालते है। 

सभी आराम से चले जा रहे थे कि हल्की-हल्की बूँदा-बांदी शुरु हो गयी। सभी को अपने रैन कोट निकालने पडे। थोडा आगे बढने पर एक बडा सा पत्थर दिखाई दिया। उसकी ओट में बैठकर बारिश रुकने का इन्तजार किया। तब तक दोपहर के भोजन के लिये लाये गये 30 पराँठों के पीछे पड गये। जब तक पराँठो का काम तमाम किया, तब तक बारिश भी रुक गयी। बारिश रुकते ही आगे चले पडे। थोडी देर में ही छोटा सा चमटोली नामक बुग्याल दिखाई दिया। सुबह माता मन्दिर पर हमारे से आगे निकले लोग यहाँ टैंट लगा चुके थे। हमें यहाँ नहीं रुकना था, हमें दो-तीन किमी और आगे जाना था। आगे चलकर पत्थर के बोल्डर का एक किमी का इलाका पार करना पडा। बोल्डर पार करते ही एक और मैदान आया। जिसे लक्ष्मी वन कहते है। दोपहर के 2 बजे तक लक्ष्मी वन पहुँच गये। इस जगह भोज पत्र के बहुत सारे पेड है जिस कारण इसे लक्ष्मी वन कहा जाता है। लक्ष्मी वन की समुन्द्र तल से ऊँचाई 3650 मीटर है। लक्ष्मी वन में ही पहली रात ठहरने का निर्णय लिया गया था। वैसे दिन छिपने में अभी 6 घन्टे बाकि थे अभी हम अंधेरा होने से पहले 8-10 किमी आराम से चल सकते थे। यदि मैं अकेला होता तो यहाँ बिल्कुल नहीं ठहरता। आगे निकल जाता। कुछ साथी बेहद आराम से चल रहे थे घन्टा भर में वे सभी आ गये। लक्ष्मी वन ही वह स्थान बताया जाता है जहाँ पाँच पांडवों में से नकुल ने अपने प्राण छोडे थे।

लक्ष्मी वन में रात्रि विश्राम की तैयारी के लिये टैंट लगा दिये गये। मौसम साफ हो चुका था। अच्छी खासी धूप खिली हुई थी। हमारे गाइड व पोर्टर शाम के भोजन की तैयारी करने लगे। मैं, कमल, योगी और सुशील भोज पत्र के पेडों को देखने के लिये नदी की ओर चले गये। भोज पत्रों के पेडों के पास फोटो लेने के लिये गजब की लोकेशन मिल गयी। सुशील और मैं काफी देर तह वहीं जमे रहे। जब धूप गायब हुई तो ठन्ड का अहसास भी होने लगा। अपने-अपने टैंटों में आकर घुस गये। शाम के खाने से पहले टमाटर सूप लिया गया। उसके बाद दाल-चावल खाये गये। रात को ठन्ड कितनी होगी यह अंदाजा नहीं था। इसलिये अपने-अपने स्लिपिंग बैग में घुसकर सो गये। वैसे भी स्लिपिंग बैग में, रात को ढंग से नींद कहाँ आती है। सुबह जल्दी उठने की आदत है तो उठ गये। सुबह के दैनिक कार्यों से निपट कर अपना समान समेटना शुरु किया। टैंट पानी में भीगे हुए थे। रात को शायद हल्की बून्दा-बांदी हुई होगी।

लक्ष्मी वन में सुबह का नाश्ता कर अगली मंजिल की ओर बढ चले। लक्ष्मी वन से एक किमी आगे बंधार नामक जगह आती है। अगली मंजिल सहस्र धारा के लिये लक्ष्मी वन से 4 किमी दूरी तय करनी पडती है। सैकंडों झरनों के आगे से होते हुए जाना पडता है। इन झरनों के आगे वसुधारा झरना बच्चे के समान भी नहीं मिला। सहस्रधारा व उसके आगे की मंजिल चक्र तीर्थ तक हम पहाड के किनारे-किनारे ही चलते रहे। सीधे हाथ अलकनन्दा नदी व उसका ग्लेशियर है। इसलिये यदि कोई अकेला व अजनबी यात्री पहली बार इस इलाके में आये तो सिर्फ यह ध्यान रखे कि जहाँ कही भी उसे मार्ग भटकने का खतरा लगे। वह उलटे हाथ वाले पहाड के साथ-साथ चलना शुरु कर दे। यदि उल्टे हाथ वाले पहाड से दूर जाने की कोशिश करोगे तो गलत दिशा में चले जाओगे। लक्ष्मी वन से आगे ऐसा हमारे साथ भी हुआ। कि लक्ष्मी वन से कोई दो किमी आगे जाने पर एक पहाड के लगभग ऊपर जाने पर मार्ग साफ दिखाई नहीं देता है तो यहाँ पर कुछ साथी पहाड से दूर हो गये। जब हमारे गाइड ने हमें रुकने को बोला तो समझ आया कि कुछ न कुछ तो गडबड है। इसलिये याद रहे कि पहाड के साथ चलो ना कि पहाड से दूर हटो।

सहस्रधारा का इलाका पार करने के लिये दो किमी पत्थरों के बीच से होकर निकलना पडता है। कहते है कि सहस्रधारा में सहदेव ने अपने प्राण छोडे थे। जहाँ सहस्रधारा की सीमा समाप्त होती है वहाँ से खडी चढाई आरम्भ हो जाती है। यहाँ चढाई चढने से पहले दोपहर के भोजन के लिये मैगी बनायी गयी। मैगी खाकर सामने वाली चढायी पार की गयी। इस चढायी को पार कर बर्फ का एक ढेर मिला। जिसके बाद जैसे-जैसे आगे बढते रहे। पानी के कई स्रोत पार करने पडे। इन पानी की छोटे-छोटे धारा को पार करने के बाद सामने दूर नीचे एक बडा मैदान दिखायी देने लगता है। सामने दिखाई दे रहा मैदान ही चक्र तीर्थ का मैदान कहलाता है। चक्रतीर्थ की समुन्द्र तल से ऊँचाई 4100 मीटर है। सहस्रधारा से चक्रतीर्थ की दूरी 5 किमी है। चक्रतीर्थ में ही रात्रि विश्राम करने का निर्णय हुआ था। अभी दोपहर बाद के तीन बजने वाले थे। सतोपंथ यहाँ से मात्र तीन किमी बाकि है। यहाँ मैं टैंट में नहीं सोया। एक गुफा खाली थी उसी में सोया था। मेरे टैंट वाला साथी सुमित भी मेरे साथ गुफा में ही सोया। गुफा बडे मोटे पत्थर के नीचे खाली जगह रहने से बनी थी। कहते है कि चक्रतीर्थ में अर्जुन ने अपने प्राण छोडे थे।

चक्रतीर्थ के ठीक सामने एक विशाल पहाडी धार थी। पता चला कि इसी धार को पार कर उस पार निकलना है। सामने वाली उस धार को दूर से देखकर ही पसीने आ रहे थे। कल सुबह उस पर चढेंगे तो पता लगेगा कि यह क्या हाल करती है? शाम को अंधेरा होने के समय दो-तीन पोर्टर आगे सतोपंथ की ओर जा रहे थे। मैं उन पोर्टर को उस धार पर चढने में लगने वाले समय को देखने लगा। उन पोर्टर ने हमारे टैंट से लेकर उस धार की चोटी तक जाने में 45 मिनट का समय लगाया। दूरी रही होगी एक सवा किमी के आसपास। कल देखते है यह चक्रतीर्थ की चढाई कितनों की नानी याद दिलायेगी। (Continue)
























 

9 टिप्‍पणियां:

  1. यात्रा विवरण बहुत ही अच्छा ओर दूसरे घुमक्कड़ के लिए प्रेरणा स्रोत

    जवाब देंहटाएं
  2. यात्रा विवरण बहुत ही अच्छा ओर दूसरे घुमक्कड़ के लिए प्रेरणा स्रोत

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही रोमांचक यात्रा है।क्या इसे बिना गाईड के किया जा सकता है।

    जवाब देंहटाएं
  4. जी भाई मैं पूरी तयारी के साथ आया था लकिन किसी जरुरी काम की वजह से लोटना पड़ा .आपके साथ थोडा ही समय बिता सका लकिन वो समय भी याद हमेशा रहेगा..आगे कभी मोका मिला तो सतोपंथ जरुर जऊँगा.

    जवाब देंहटाएं
  5. फिर से यादें ताजा हो गई ! मजेदार यात्रा रही

    जवाब देंहटाएं
  6. संदीप जी, आप टेंट और स्लीपिंग बैग्स साथ ले कर गए थे या बद्रीनाथजी से रेंट पे लिए थे। अक्टूबर लास्ट में क्या सातोपंथ ट्रेक किया जा सकता है?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मैं अपना स्लीपिंग बैग साथ लेकर गया था।
      वैसे बद्रीनाथ में सभी सामान किराये पर मिल जाता है।
      अक्टूबर में बर्फबारी न हुई हो तो कोई दिक्कत नहीं आयेगी।

      हटाएं

Thank you for giving time to read post comment on Jat Devta Ka Safar.
Your comments are the real source of motivation. If you arer require any further information about any place or this post please,
feel free to contact me by mail/phone or comment.