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सोमवार, 28 जुलाई 2014

Orccha -Raya Parveen Mahal and Jhansi ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी प्रस्थान

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-11

इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद

आज के लेख में दिनांक 28-04-2014 को की गयी यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। यदि आपको इस यात्रा के बारे में शुरु से पढना है तो ऊपर दिये गये लिंक पर क्लिक करे। इस यात्रा में अभी तक आपने पढा कि खजुराहो के बाद ओरछा यात्रा में जहाँगीर महल देखने के बाद आगे चल दिये। बाहर आते ही रेल वाला अमेरिकी पेट्रिक मिला। हमारा फ़ोटो लेने के बाद वह जहाँगीर महल के अन्दर चला गया। हम राय प्रवीन देखने चल दिये। राय प्रवीण महल की कहानी भी काफ़ी मजेदार है। बुन्देल राज्य की सबसे होनहार गायिका, नृतिका व गीतकार का दर्जा इसी प्रवीण राय को प्राप्त था। राय प्रवीण की यही प्रसिद्दी इसकी मुसीबतों का कारण भी बन गयी। इनकी चर्चा मुगल बादशाह के कानों में भी पहुँची तो मुगल बादशाह ने ओरछा के राजा से कहा कि राय प्रवीण हमारे दरबार की शोभा बढायेगी। आखिरकार मुगल बादशाह ने राय प्रवीण को आगरा बुलवा लिया। यह गायिका राय प्रवीण भी पहुँची हुई चीज थी।

बुधवार, 23 जुलाई 2014

Orccha- Jahangir Mahal ओरछा का जहाँगीर महल

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-10

इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद

आज के लेख में दिनांक 28-04-2014 को की गयी यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। यदि आपको इस यात्रा के बारे में शुरु से पढना है तो ऊपर दिये गये लिंक पर क्लिक करे। इस यात्रा में अभी तक आपने पढा कि खजुराहो के बाद ओरछा यात्रा में ओरछा का किला देखने पहुँचा ही था कि मुकेश जी का फ़ोन आ गया। मुकेश जी अपने कहे अनुसार मात्र 5 मिनट में ही किले के प्रवेश द्वार पर पहुँच गये। मुकेश जी ने अपनी बाइक टिकट खिडकी के पास ही खडी कर दी। कल रात हम दोनों ने यही पर लाईट एन्ड साऊंड शो देखा था। जिसमें मुकेश जी के नाना जी भी साथ थे। अब दिन में नाना जी साथ नहीं आये। रात में किला देखना और अगले दिन उसे दिन के उजाले में देखना एक अलग ही अनुभव रहा। मुकेश जी बोले चलो संदीप जी पहले जहाँगीर महल देखने चलते है। किले के अन्दर जाने वाले दरवाजे अभी बन्द थे।
जहाँ मुकेश जी ने अपनी बाइक खडी की है उसके ठीक बराबर में एक विशाल दरवाजा है। इस दरवाजे के ठीक पार एक बोर्ड लगा हुआ है उस बोर्ड पर लिखा है कि राजा महल, जहाँगीर महल व शीश महल सीधे हाथ वाली दिशा में है जबकि नाक की सीध में जाने पर राय प्रवीण महल व हमाम खाना आदि के लिये जाया जा सकता है। वैसे भी जहाँगीर महल जाने का मुख्य मार्ग भी राय प्रवीण महल के सामने से होकर जाता है। हम वापसी में इसी मार्ग से आये थे। रात वाली सीढियों से चढते हुए जहाँगीर महल के सामने बने शीश महल पहुँच गये। रात को भोजन यही किया गया था। यहाँ के कर्मचारी व अधिकारी मुकेश जी को अच्छी तरह जानते है। आखिर आबकारी विभाग के अफ़सर जो ठहरे। आबकारी विभाग के अधिकारी को होटल वाले ना पहचाने ऐसा कैसा हो सकता है?
रात में जिन सीढियों पर टार्च की जरुरत आन पडी थी दिन में उन सीढियों की हालत देखी। अंधेरे में इन सीढियों पर आवागमन खतरे से खाली नहीं है। शीश महल राजाओं के समय में मेहमान खाना हुआ करता था। आजकल यह सरकारी होटल में बदल दिया है। सरकार ने यह बहुत ही अच्छा किया कि मेहमान खाने में आज भी मेहमान को ठहराने का प्रबन्ध किया जाता है। उस समय राजाओं के मेहमान मुफ़्त में यहाँ ठहरा करते होंगे जबकि आज यहाँ ठहरने के दाम चुकाने पडते है। सुख सुविधा में आज भी वैसा ही ठाट-बाट देखने को मिलता है जैसा राजाओं के काल में होता होगा। मुकेश जी ने शीश महल के एक कर्मचारी से कहा कि जहाँगीर महल देखना है इसका दरवाजा कौन खोलेगा? वैसे जहाँगीर महल खुलने में कुछ मिनट बाकी थे। शीश महल के कर्मचारी ने जहाँगीर महल खोलने वाले कर्मचारी से पूछा कि क्या दरवाजा खोल दिया गया है उसने कहा, हाँ दरवाजा खुला है आप लोग अन्दर जा सकते है।
ओरछा में कई महल है जिनमें राजनिवास, जहाँगीर महल, राजमहल, शीश महल प्रमुख है। आजकल इन सब में जहाँगीर महल को लोग सबसे ज्यादा देखने आते है। इस महल के बनने के पीछे बुन्देल राजा व मुगल बादशाह जहाँगीर की दोस्ती होना मुख्य वजह रहा है। इतिहास अनुसार निर्दयी क्रूर मुगल बादशाह अकबर (कुछ इतिहासकार जिन्होंने अकबर के पैसे खाये होंगे उन्होंने अकबर को तथाकथित रुप से महान बताने का षडयंत्र चलाया) ने अपने खास सेनानायक अबुल फ़जल को इकलौते शहजादे बागी सलीम उर्फ़ जहाँगीर को काबू में करने के लिये भेजा था। अबुल फ़जल सलीम को काबू कर पाता? उससे पहले सलीम की बुन्देल राजा वीरसिंह देव के साथ दोस्ती हो गयी। राजा वीरसिंह देव ने अबुल फ़जल का कत्ल करवा दिया। सलीम ने मुगल बादशाह बनने के बाद वीरसिंग देव को ओरछा जागीर की पूरी जिम्मेदारी दे दी थी। राजाओं महाराजाओ के समय दोस्ती दुश्मनी की कहानी बहुत देखने सुनने को मिलती है। जिसमें कई बार विश्वास करना भी मुश्किल हो जाता है यह हकीकत में हुआ भी होगा कि नहीं?
यहाँ आने से पहले इस महल की वास्तुकला के बारे में बहुत सुना था आज पहली बार इस महल को जानने परखने का मौका मिल रहा है। जहाँगीर महल में घुसते ही जो नजारा आँखों के सामने आया उसे देख आँखे खुली रह गयी। यहाँ पर सबसे ज्यादा काम पत्थरों पर किया गया है। इस महल को हवा महल भी कह दे तो ज्यादा गलत नहीं होगा। इस महल की चारों दीवारों में पत्थर की सैंकडों जालियाँ वाली खिडकी है। सबसे बडा कमाल तो यह है कि हर जाली एक दूसरे से अलग बनी हुई है। कोई भी दो जाली एक जैसी नहीं है। मैंने शुरु में सभी जालियों के अलग होने वाली बात पर ध्यान नहीं दिया था।
जब मुकेश ने मुझसे पूछा कि इन जालियों में क्या कुछ विशेष दिखता है? तब मैंने इन्हे छूकर देखा। इससे पहले मैं सोच रहा था कि यह लकडी की बनी जालियां होंगी। लेकिन हाथ लगाकर पता लगा कि यह पत्थर की बनी जालियाँ है। मुकेश जी ने यह कहकर मुझे आश्चर्यचकित कर दिया कि यहाँ की सभी जालियाँ डिजाइन में एक दूसरे से अलग है। मैंने अब तक लिये गये फ़ोटो देखे तो मुकेश जी बात सही निकली। अब मैंने आगे आने वाली  सभी जालियों को बारीकी से देखना आरम्भ कर दिया।
यह महल तीन मंजिल का बना है। जिसमें प्रत्येक मंजिल की वास्तुकला कमाल की है। यहाँ का खुला गलियारा देखने लायक है। यहाँ के वास्तुशिल्प की एक खास बात मुकेश जी ने बतायी कि यहाँ की वास्तुशिल्प हिन्दू व मुस्लिम वास्तुकला का मिलाजुला संगम है। मुकेश जी ने इनका अन्तर भी दिखाया कि वो देखो एक किनारा हिन्दू शिल्प से बना है तो दूसरा किनारा मुस्लिम वास्तुकला को समेटे हुए है। जानवरों की मूर्तियाँ से लेकर पत्तों व फ़ूलों आदि के डिजाइन यहाँ देखे जा सकते है। इस महल के बीचो-बीच एक जगह ऐसी है जहाँ पर पत्थर की शिला पर बैठने का स्थान बनाया गया है। यहाँ बैठकर फ़ोटो लेते समय आगरे के तेजो महालय (ताज महल का असली नाम) की याद हो आयी। हमने इस शिला पर बैठकर फ़ोटो लिया और अपने आगे के कार्य में लगे गये।
इस महल में घूमते समय मुकेश जी ने अपना फ़र्ज जमकर निभाया। यहाँ पहली बार मुझे लगा कि मुकेश जी अपनी जैसे खोपडी वाले इन्सान है। जब एक जैसे आचार-विचार के दो मानव एक साथ किसी कार्य में लगे हो तो उस कार्य को करने में अलग सुकून मिलता है। यही सुकून हम दोनों को महसूस हो रहा था। मुकेश जी इस महल में कई बार आ चुके है। मैंने कहा, कई बार क्यों? वीआईपी लोगों के साथ अक्सर यहाँ आना पडता है उनके साथ गाइड भी होता है। गाइड जो बाते उन्हे बताता है वे बाते मुझे किसी फ़िल्म की तरह याद हो गयी है इसलिये इस महल में घुसते ही गाइड वाली फ़िल्म मेरे दिमाग में चालू हो जाती है। मुकेश की याददास्त कमाल की है। वैसे भी मुकेश भाई अपनी तरह इतिहास विषय के प्रेमी है। इतिहास विषय भी बडा कमाल का है इसमें जितना घुसो इसमें उतना रोमांच बढता जाता है।
बीते लेख में मैंने आपको यहाँ के इतिहास की कुछ खास बाते बतायी थी आज उसकी दूसरी किस्त में कुछ अन्य बाते बताता हूँ। बुन्देल के वीर हरदौल के बारे में मैंने बीते लेख में जिक्र किया था। ओरछा के लोक गीत संगीत में हरदौल का अहम स्थान है। एक समय ऐसा आया था जिसमें ओरछा राज्य में मुगल जासूसों का काफ़ी प्रभाव हो गया था। यह समय 1625-30 के आसपास का रहा होगा। मुगल जासूसों की साजिशों के कारण यहाँ के राजा को यकीन दिया दिया गया कि उसके भाई हरदौल के उसकी रानी के साथ अवैध सम्बन्ध है। हरदौल अपने बडे भाई का आज्ञाकारी था। राजा ने अपनी रानी को परखने के लिये कहा कि यह लो जहर। इसे ले जाकर हरदौल को पिला दो।
रानी जहर लेकर हरदौल के पास गयी तो सही, लेकिन उसे जहर नहीं पिला सकी। रानी ने हरदौल को सारी बात बता दी। हरदौल ने खुद को व रानी को निर्दोष साबित करने के लिये वह जहर खुद ही पी लिया। मुगल बादशाहों की राह में हरदौल एक बहुत बडे कांटे की तरह था। जिसे वे किसी भी कीमत पर हटाना चाहते थे। हरदौल के बारे में कहा जाता है कि वह बहुत बलशाली थी। जिसके आगे मुगलों की एक ना चलती थी। ताकत के बल पर उसको जीतना मुमकिन नहीं था। इसलिये मुगलों ने ऐसी कुटिल चाल चली थी। हरदौल जहर पीने के बाद चल बसा। राजा को अपनी गलती पर बडा पश्चाताप हुआ। यही से ओरछा के बुन्देल राज्य का पतन आरम्भ होना शुरु हो गया था। ओरछा का बुन्देल शासन सन 1783 में समाप्त हो गया।
जहाँगीर महल में कुल 136 कमरे बताये जाते है। इन सभी कमरों में शानदार चित्रकारी भी की गयी थी। आज चित्रकारी मुश्किल से ही देखने को मिलती है। समय बीतने के साथ चित्रकारी के रंग गायब होते जा रहे है। महल की सभी चौखट पत्थर की बनी हुई है। दरवाजे लकडी के है। मैं सोच रहा था कि चौखट भी लकडी की ही होंगी लेकिन मुकेश जी ने बताया तो मैंने उनकी जाँच की थी। सहसा मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई पत्थर में भी इतनी नक्काशी कर सकता है? यहाँ की हर चीज में हिन्दू मुस्लिम शैली का संगम है जो पत्थर की चौखट में भी देखने को मिलता है। चौखट के बाद ऊपर की मंजिल की चलते है।
सीढियों से ऊपर चलते समय मुकेश जी बोले। संदीप जी रुको। मैंने समझा, आगे कुछ गडबड है जिस कारण मुझे रुकने को कह रहे है। दीवार पर चारों एक छज्जा बनाया गया है इस छज्जे में हाथियों की मूर्तियाँ वाले स्तम्भ बनाये है। एक लाईन हाथियों की है जो अपनी सून्ड में कमल का फ़ूल लटकाये हुए किसी का स्वागत करते हुए दिख रहे है तो दूसरी लाईन में मुस्लिम शैली के साधारण स्तम्भ दिखायी देते है। मुस्लिम शैली तो बेजान दिखती है। जिसमें जीवन जैसे क्रिया वाले शिल्प नदारद रहते है।
जहाँगीर महल की छत से राज महल, चतुर्भुज मन्दिर, शीश महल के अतिरिक्त ओरछा की झलक भी दिखायी देती है। जहाँगीर महल की बेतवा किनारे वाली जालियों से बेतवा नदी भी  दिखायी देती है। जहाँगीर महल के आसपास बहुत जगह खाली दिखायी देती है। राजाओं के काल में इस खाली पडी भूमि में सेना आदि के रहने का प्रबन्ध किया जाता होगा। ओरछा पथरीली भूमि वाला इलाका है। यहाँ से जिधर नजर जाती है हरियाली युक्त पथरीली भूमि दिखायी देती है।
महल की छत पर भ्रमण करने के दौरान महल के सबसे ऊपर वाले गुम्बद पर एक चील/गिद्द बैठा दिखायी दिया। गिद्द की नजर हमारी ओर नहीं थी। मुकेश जी बोले संदीप जी उसका एक फ़ोटो लीजिए ना। गिद्द आसानी से कैमरे की पकड में नहीं आ रहा था। हमने कुछ देर तक उसके दाये-बाये होने की प्रतीक्षा की, लेकिन वह अपनी जगह से टस से मस ना हुआ तो हमें अंदेशा हुआ कि कही यह गिद्द नकली तो नहीं है। शुक्र रहा कि थोडी देर बाद गिद्द ने अपनी मुन्डी थोडी सी हिलायी तो पक्का हो गया कि गिद्द पत्थर का नहीं है। हम इसी आशा से आगे बढे कि हो सकता है कि आगे किसी अन्य किनारे से गिद्द कोई अच्छा पोज दे ही दे।
जहाँगीर महल की पत्थर से बनी जालीदार खिडकियाँ और इनमें बने मोर आदि के चित्र एकदम जीवंत दिखायी देते है। यहाँ बनी सभी जालीदार खिडकियाँ एक दूसरे से अलग है मुझे इस बात पर बडा ताज्जुब हुआ कि कारीगरों ने कितनी सावधानी व मेहनत से इन जालियों को बनाया होगा। यहाँ सैकडों जालियाँ है जो सभी पत्थर की बनी हुई है। इन सभी को बनाने के लिये पत्थर पर छैनी-हथौडे का प्रयोग किया गया है। पत्थर की इन जालियों में छैनियों के निशान आज भी ऐसे दिखायी देते है जैसे इन्हे कुछ दिन पहले बनाकर यहाँ स्थापित किया गया हो।  
हमारी दोस्ती ने जहाँगीर महल की घुमक्कडी का जमकर लुत्फ़ उठाया। झरोखों में खूब फ़ोटो लिये। जब दोनों मनमौजी एक जैसे विचार वाले हो तो फ़िर मस्ती करने से कौन रोक सकता है? मैं सोच रहा था कि मुकेश जी शर्मीले स्वभाव के होंगे लेकिन यहाँ उनके साथ घूमते हुए दिल खुश हो गया। फ़ोटोग्राफ़ी के मामले में मुकेश जी कम नहीं थे। हम दोनों फ़ोटो लेने लायक लोकेशन तलाश लेते थे। जिसको अच्छी लोकेशन मिलती थी कैमरा उसके हाथ में पहुँच जाता था। यहाँ किसने ज्यादा फ़ोटो लिये कहना मुश्किल है।
यहाँ के बारे में मेरे वर्दीधारी दोस्त मुकेश चन्दन पाण्डेय जी ने घुमक्कडी करते समय गाइड का रोल भी बखूबी निभाया। यहाँ के हर कोने में हिन्दू व मुस्लिम शैली के वास्तुशिल्प का उदाहरण सामने मिलता था। एक दीवार पर हिन्दू शैली मिलती थी तो उसके ठीक सामने वाली दीवार मुस्लिम वास्तुशिल्प का लबादा ओढे मिलती थी। मैं भारत के सैंकडो स्थलों की यात्रा की है। इस प्रकार की मिली जुली संस्कृति मुझे अन्य किसी स्थल पर देखने को नहीं मिली।
जहाँगीर महल में बहुत सारी बाते ऐसी थी जिनमें कुछ ना कुछ खास था लेकिन मुझे यहाँ की सबसे महत्वपूर्ण वास्तु शिल्प पत्थर वाली जाली में बनाया गया सुराख ने मुझे खासा प्रभावित किया था। पत्थर वाली जाली में एक सुराख देखा। यहाँ के पत्थरीले जालीदार झरोखों की जालियों में छोटे-छोटे सुराख देखकर मैं दंग रह गया। जाली बनाने तक तो बात फ़िर भी ठीक थी। इन जालियों में सुराख बनाने वाली कारीगरों की वास्तुकला को मेरा सलाम। इन सुराखों को बनाने के क्रम में ना जाने कितनी जाली जालियाँ पूरी होने से पहले टूट गयी होंगी? फ़िर भी कारीगरों की मेहनत काबिल तारीफ़ है।
यहाँ जहाँगीर महल के बीचों बीच एक फ़ुव्वारा लगाने वाला स्थल भी है। महल के प्रांगण में अष्टकोणीय कुन्ड बने हुए है। इन कुन्डों में भी दोनों शैली (हिन्दू-मुस्लिम) का मिला जुला रुप है। महल के प्रांगण में आकर एहसास होता है कि हम किसी विशाल हवेली के अन्दर खडे है। इस जगह का नाम महल अवश्य है लेकिन इसका क्षेत्रफ़ल राजस्थान की बडी हवेलियों जैसा है। राजस्थान की कई हवेलियाँ इससे बडी भी हो सकती है। इस महल के भीतर का देखने लायक सब कुछ देख लिया तो बाहर आने की बारी थी। महल से बाहर आते समय मुकेश जी ने मुझे मुख्य दरवाजे के ठीक ऊपर वाली छत पर देखने को कहा। मैंने ऊपर देखा तो ऐसा लगा जैसे नीच का ऊपर फ़र्श से जाकर छत से चिपक गया हो। छत पर फ़र्श जैसा मारबल कैसे बनाया गया होगा?
मुख्य दरवाजे की छत ने मुझे अचम्भित कर दिया। उस उलझन से बाहर निकल कर दरवाजे पर पहुँचा तो मुकेश जी बोले संदीप जी यहाँ मुख्य दरवाजे के पत्थर में की गयी शानदार नक्काशी देखिये। यहाँ भी दोनों शलियाँ दिखायी दी। दरवाजे की चौखट में दो विभिन्न प्रकार के रंग देखने को मिले। मुझे लगा कि यहाँ तो लकडी का उपयोग हुआ होगा। लेकिन मेरा भ्रम यहाँ भी टूट गया। इस दरवाजे की चौखट भी पत्थर की ही निकली।
आखिरकार जहाँगीर महल से बाहर निकल ही आये। इसके मुख्य प्रवेश दरवाजा की ऊँचाई भूमि तल से एक मंजिल की ऊपर है। दरवाजे के दोनों किनारों पर पत्थर के हाथी बनाये गये है इन हाथियों को बनाने के पीछे भी संदेश छिपा है। इनमें से एक हाथी की सून्ड में जंजीर बनी है तो दूसरे हाथी की सून्ड में फ़ूलों का हार दिखायी देता है। जंजीर वाले हाथी का साफ़ संदेश है दोस्ती नहीं निभायी तो दुश्मनी झेलने को तैयार हो जाओ। फ़ूल वाले हाथी का साफ़ इशारा है कि हम आपका स्वागत फ़ूलों से करते है यदि आपको फ़ूलों से स्वागत पसन्द नहीं आया हो तो दूसरे हाथी की बात पर अमल करना हम जानते है।
जहाँगीर महल भले ही समाप्त हो गया हो लेकिन जहाँगीर महल के आश्चर्यचकित करने वाले पल अभी जारी थे। जैसा मैंने पहले कहा कि महल समतल भूमि से एक मंजिल ऊँचाई पर है। महल के दरवाजे तक पहुँचने के लिये कुछ सीढियों उतरनी पडी। इन सीढियों पर राजा के उपयोग में आने वाले घोडे, ऊँट व हाथी जैसे भिन्न-भिन्न ऊँचाई वाले जानवरों की सवारी करने के लिये अलग-अलग ठिकाने (प्लेटफ़ार्म) बनाये गये है। इनसे हाथी, घोडे या ऊँट पर सवार होने में आसानी होती थी।
जहाँगीर महल से नीचे आते ही वह अमेरिकी पुन: मिल गया जो खजुराहो से साथ आया था। वही जो होटल में साथ ठहरा था। अमेरिकी जिसका नाम पेट्रिक है सही मौके पर मिला। हमे उस समय कोई ऐसा बन्दा चाहिए था जो हम दोनों मनमौजियों का एक फ़ोटो ले सके। पेट्रिक भारत के नार्थ इस्ट की रहने वाली किसी भारतीय लडकी से शादी करने वाला है जिसने इसे हिन्दी के कुछ शब्द सिखा दिये है। अगर पेट्रिक ने पहले बता दिया होता तो वह हिन्दी के कुछ शब्द जानता है तो मुझे बेवजह अंग्रेजी की ऐसी तैसी ना करनी पडती। हमारा फ़ोटो लेने के बाद उसका भी एक फ़ोटो लिया गया। पेट्रिक का फ़ोटो सबसे आखिर में है जबकि पेट्रिक का लिया गया फ़ोटो सबसे ऊपर है। इसके बाद पेट्रिक अन्दर चला गया। जबकि हम यहाँ बचे अन्य स्थल देखने चले गये। (यात्रा जारी है।)













































शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

Orccha-Raja Ram temple and Chaturbhuj Temple ओरछा-राम राजा मन्दिर व चतुर्भुज मन्दिर

KHAJURAHO-ORCHA-JHANSI-09

आज के लेख में दिनांक 28-04-2014 को की गयी यात्रा के बारे में बताया जा रहा है। यदि आपको इस यात्रा के बारे में शुरु से पढना है तो नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे। इस यात्रा में अभी तक आपने पढा कि मैं ओरछा में बेतवा किनारे बनाया गया कंचना घाट देखकर चतुर्भुज व राम मन्दिर देखने पहुँच गया। कंचना घाट से आते समय मुख्य सडक पर चतुर्भुज मन्दिर नजदीक पडता है। वैसे भी यह मन्दिर यहाँ ओरछा में सबसे ऊँचा है। यहाँ के राजा बडे चतुर थे जिस कारण यह मन्दिर बच गया नहीं तो औरंगजेब ने इसको मस्जिद बनाने का हुक्म दे दिया था। इस मन्दिर का शिखर इतना ऊँचा है कि यह आसपास के कस्बों व गाँवों से भी दिखायी देता है। इसे देख लगता है कि जैसे यह आसमान से मुकाबला कर रहा हो।
इस यात्रा के सभी लेख के लिंक यहाँ है।01-दिल्ली से खजुराहो तक की यात्रा का वर्णन
02-खजुराहो के पश्चिमी समूह के विवादास्पद (sexy) मन्दिर समूह के दर्शन
03-खजुराहो के चतुर्भुज व दूल्हा देव मन्दिर की सैर।
04-खजुराहो के जैन समूह मन्दिर परिसर में पार्श्वनाथ, आदिनाथ मन्दिर के दर्शन।
05-खजुराहो के वामन व ज्वारी मन्दिर
06-खजुराहो से ओरछा तक सवारी रेलगाडी की मजेदार यात्रा।
07-ओरछा-किले में लाईट व साऊंड शो के यादगार पल 
08-ओरछा के प्राचीन दरवाजे व बेतवा का कंचना घाट 
09-ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर व राजा राम मन्दिर
10- ओरछा का जहाँगीर महल मुगल व बुन्देल दोस्ती की निशानी
11- ओरछा राय प्रवीण महल व झांसी किले की ओर प्रस्थान
12- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का झांसी का किला।
13- झांसी से दिल्ली आते समय प्लेटफ़ार्म पर जोरदार विवाद



मुख्य सडक से चतुर्भुज मन्दिर पहुँचने के कई मार्ग है लेकिन मुझे जो मार्ग दिखाई दिया उस पर शादी समारोह होने वाले कई मैरिज होम बने हुए मिले। उस दिन शादी का सीजन चल रहा था जिस कारण दो मैरिज होम में बारात विदाई की तैयारी भी हो रही थी। मुझे जिस गली नुमा सडक से होकर चतुर्भुज मन्दिर तक जाना पडा। उसके ऊपर शादी ब्याह में लगायी जाने वाली चमकनी लगी होने के कारण पूरी गली की छत चमचमाती हुई दिख रही थी। बाराती बारात घर के बाहर ही डेरा डाले हुए थे। यहाँ सुबह की चाय नाश्ता वाला दौर चालू था एक बार तो मेरा लालची मनवा भी डोलने लगा कि चलो नाश्ते पर हाथ साफ़ कर दिया जाये। लेकिन एक गडबड थी कि मन की मानता तो कैसे? एक तो मैं सुबह कुछ खाता पीता ही नहीं हूँ। दूसरा चाय का दौर चल रहा था जो मेरे किसी काम की नहीं थी। यदि दूध जलेबी होती तो सुबह होने के बावजूद कुछ खाया जा सकता था?
शादी के बारातियों को चाय नाश्ता करते छोड आगे बढता हूँ। सामने ही चतुर्भुज मन्दिर है। जैसे-जैसे मन्दिर नजदीक आता जा रहा है इसका शिखर ऊँचा होता प्रतीत होता जा रहा है। शुक्र है कि गर्मी के दिन है सर्दी के दिन होते तो सिर की टोपी भी सम्भालनी पड जाती। मन्दिर के बराबर में एक दो पुराने खण्डहर की दीवार भी खडी हुई है। इन्हे देखकर लगता है यह भी मन्दिर का ही हिस्सा रहे होंगे। आज भले ही कोई इन खण्डहरों को पूछने वाला नहीं है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिये सीढियों से होकर जाना पडता है। मन्दिर तक पहुँचने के लिये दो-चार सीढियां नहीं है। मैंने गिनी तो नहीं थी लेकिन अंदाजे से कहता हूँ कि कम से कम सौ सीढियाँ तो रही होगी जिन्हे चढकर मन्दिर में प्रवेश करना होता है।
सीढियों के ठीक सामने कुछ दुकाने है। दुकाने पक्की नहीं है। तख्त पर सामान रखकर ठिया रुपी दुकान का रुप दे दिया गया है। यहाँ एक बोर्ड भी लगा हुआ था जिस पर ओरछा में घूमने लायक स्थलों के बारे में संख्या क्रम लिखकर नाम सहित बताया गया है। इस मन्दिर का निर्माण राजा मधुकर शाह व उनकी रानी कुवांरी गणेश बे अपने शासन काल में कराया था। राजा मधुकर की रानी गणेश कुवांरी ने अपने आराध्य देव राजा राम की स्थापना के लिये भले ही कराया था। लेकिन राम राजा की इस मन्दिर में पूजा ना हो सकी। राजा राम की कहानी आगे बतायी जा रही है। मन्दिर का निर्माण कार्य काफ़ी पहले आरम्भ हो चुका था। किन्तु पश्चिमी बुन्देलखन्ड पर मुगल आक्रमण में राजकुमार होरल देव की असमय मृत्यु के कारण निर्धारित समय में निर्माण पूर्ण नहीं हो पाया। इस कारण रानी ने राजा राम की प्रतिमा को अपने महल में ही रख लिया था। अगले महाराजा वीर सिंह के काल में इस मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। नागर शैली में बनाया गया यह विशाल मन्दिर काफ़ी भव्य है। आज इस मन्दिर को बने सैकडो वर्ष हो चुके है यदि इसका रखरखाव ठीक से किया जाये तो आने वाले वर्षों तक यह ऐसे ही खडा रह सकता है।
इस मन्दिर के बराबर में राजा राम का मन्दिर है। यहाँ से दो लम्बी मीनारे दिखायी दे रही थी जिनके बारे में पता लगा कि इनका नाम सावन-भादो है। ओरछा में जितनी भी इमारते है। उनके पीछे कोई ना कोई कहानी है। सावन भादो मीनार थोडी दूर है पहले चतुर्भुज मन्दिर देख लेता हूँ। सीढियाँ चढता हुआ मन्दिर के प्रवेश दरवाजे पर जा पहुँचा। मन्दिर का दरवाजा बन्द मिला। समय देखा, अभी सुबह के आठ भी नहीं बजे थे। हो सकता है कि ओरछा के मन्दिर देर से खुलते हो। राजा राम मन्दिर भी बराबर में ही है। चलो अब उसकी ओर चलता हूँ। लेकिन यह क्या हुआ? यह भी बन्द है। वहाँ तैनात सिपाही से पता किया कि मन्दिर खुलने में कितनी देर है? उसने कहा कि अभी एक घन्टा बाकि है। ठीक है तब तक ओरछा का किला देख आता हूँ। किला देखने के बाद वापिस आऊँगा तो मन्दिर भी खुला मिलेगा।
किले की ओर बढने से पहले मन में आया कि इन मन्दिरों की बाहरी दीवारों के कुछ फ़ोटो ही ले लिये जाये। वैसे भी मन्दिर के बाहर के ही फ़ोटो लिये जा सकते है अधिकांश मन्दिरों के अन्दर कैमरा लेकर जाने नहीं देते है। कैमरा लेकर जाने से मन्दिरों की पोल पटटी खुल सकती है। मेरे जैसा शैतान खोपडी का बन्दा तो पोल पट्टी खोलकर ही मानता है। मन्दिर के फ़ोटो लेते समय मेरी नजर मधु मक्खी के शहद वाले छत्तों पर गयी। यहाँ एक दो नहीं बहुत सारे शहद के छत्ते दिखाई दे रहे थे। उन छत्तों में नये व पुराने दोनों तरह के छत्ते दिखायी दे रहे थे। मन्दिर की दीवार पर ऊँचे छज्जे के नीचे लगे होने के चलते इनके साथ छेडछाड नहीं होती होगी। जिससे इनका ठिकाना यहाँ लगातार बनता जा रहा है। मन्दिर के ठीक पीछे जाने पर एक छोटा सा मन्दिर दिखाई दिया। मैं समय बीताने के इरादे से वहाँ मन्दिर के नजदीक ही बैठ गया। तभी थोडे-थोडे समय अन्तराल पर कई भक्त उस मन्दिर में प्रसाद लेकर गये। मेरा मन मन्दिर में अन्दर जाने का नहीं हुआ। जब बडे मन्दिर नहीं खुले तो छोटे मन्दिर में मुझे नहीं जाना है।
बीते लेख पर प्रतिक्रिया करते हुए भाई सचिन त्यागी, रितेश गुप्ता व दर्शन कौर जी ने कहा कि ओरछा के इतिहास के बारे में कुछ बता देते। लाईट एण्ड साऊंड शो में यहाँ के इतिहास की काफ़ी बाते पता लगी थी। चलो उसी से कुछ बाते आपके लिये निकाल लाया हूँ। यहाँ का मुख्य इतिहास यह है कि ओरछा मध्यकाल में परिहार राजाओं की राजधानी रहा है। परिहार राजाओं के बाद चन्देल राजाओं ने भी ओरछा पर पर राज्य किया। चन्देल राजाओं के बाद बुन्देल राजाओं का समय आया। ओरछा को अपना गौरव पुन: प्राप्त कराने में बुन्देल राजाओं का मुख्य योगदान रहा। बुन्देल राजाओं में ओरछा को पहचान दिलाने वालों मुख्य राजा मधुकर शाह थे जिनका मुगल हमलावार की निर्दयी औलाद अकबर से युद्द के मैदान में कई बार सामना हुआ। मुगलों ने भले ही पूरे भारत में अपना परचम लहराया होगा लेकिन मुगलों को बुन्देलखड के राजाओं (ओरछा के राजाओ) ने चैन से नहीं रहने दिया। जिस मुगल बादशाह ने बुन्देल राजाओं से पंगा लिया वह चैन से नहीं रह पाया।
सन 1501-1531 के मध्य ओरछा पर शासन करने वाले राजा रुद्रप्रताप ने ओरछा को बसाया था। ओरछा के किले को बनाने में 8 साल का समय लगा। ओरछा से पहले बुन्देल राजाओं की राजाओ की राजधानी गढकुन्डार हुआ करती थी। ओरछा में राजाओं के लिये महल सन 1539 में बनकर तैयार हुए। महल तैयार होते ही ओरछा राजधानी घोषित कर दी गयी। अकबर के काल में ओरछा राजाओं के साथ लडाईयाँ होती रहती थी। जब जहाँगीर (अकबर का लडका) ने अपने पिता से विद्रोह कर दिया तो उस मौके का जहाँगीर व बुन्देल राजा दोनों ने लाभ उठाया और जहाँगीर ने बुन्देल राजा से दोस्ती कर ली। यह दोस्ती भविष्य में बडे काम आयी।
जहाँगीर ने बुन्देल राजा वीरसिंहदेव के साथ जमकर दोस्ती निभायी। वीरसिंहदेव ने जहाँगीर से दोस्ती करने के बाद जहाँगीर के कहने पर अकबर के दरबारी अबुलफ़जल की हत्या तक करवा डाली थी। अकबर नहा धोकर ओरछा के राजाओं के पीछे पडा रहा लेकिन उसे सफ़लता ना मिल सकी। जब जहांगीर मुगल बादशाह बना तो उसने वीरसिंहजुदेव को पूरे ओरछा का राजा बना दिया था। इससे पहले वीरसिंह देव ओरछा राज्य की बडौनी जागीर के मालिक थे। बुन्देलखन्ड की लोक-कथाओं का नायक हरदौल वीरसिंह देव का छोटा पुत्र था। वीरसिंह देव का बडा लडका जुझार सिंह था। इतिहासकार कहते है कि जुझार सिंह ने शाँहजहाँ के साथ कई लडाईयाँ लडी। औरंगजेब काल में छ्त्रसाल ने बुन्देलखन्ड का नाम रोशन किया।
बुन्देल राजाओं के काल में ओरछा में कई इमारतों का निर्माण किया गया। इनमें जहाँगीर महल सबसे मुख्य है। जहाँगीर महल को वीरसिंह देव ने जहाँगीर के लिये बनवाया था लेकिन जहाँगीर इस महल में वीरसिंहदेव के जीवन काल में नहीं ठहर सका। आपको अगले लेख में इसी जहाँगीर महल का भ्रमण कराया जायेगा। ओरछा के राजकवि केशवदास का भवन, ओरछा की राज नृतकी व गायिका राय प्रवीण का भवन भी अगले लेख में ही दिखाया जायेगा। ओरछा के नजदीक कुंढार बुन्देलों कीए राजधानी जरुर रही लेकिन उसे इतनी शोहरत नहीं मिल पायी जितनी ओरछा को मिली।
अब बात मन्दिर की करते है। यहाँ के मन्दिरों के पीछे मजेदार कहानी है। यहाँ का चतुर्भुज मन्दिर भगवान राम की मूर्ति स्थापना के लिये ही बनवाया गया था। लेकिन राम की मूर्ति यहाँ ओरछा में लाने के बाद स्थापना तिथि से कुछ समय पहले मंगवा ली गयी थी। उस समय तक इस मन्दिर में कुछ काम बाकि था। जिस कारण राम जी की मूर्ति को रानी ने अपने महल में रखवा लिया। लेकिन जब मन्दिर बनकर तैयार हो गया तो यह मूर्ति यहाँ से ट्स से मस ना हो सकी जिस कारण मूर्ति वही रह गयी। कहते है भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है। तभी तो राजा-रानी की इच्छा के विपरीत राम जी मूर्ति इस मन्दिर में ना आ सकी।
राम जी की यह मूर्ति राजा मधुकर शाह के शासन के दौरान उनकी रानी राम नगरी अयोध्या से लेकर आयी थी। राजा रानी का महल ही वर्तमान राम राजा मन्दिर या राजा राम मन्दिर कहलाता है। वैसे तो राम जी का जन्म अयोध्या में हुआ है लेकिन उनकी यहाँ भी उतनी ही मान्यता है। राम नवमी के दिन यहाँ हजारों लोग इकट्ठा होते है। यहाँ की राम मूर्ति के कारण राम को ही ओरछा का राजा माना जाता है। मूर्ति का चेहरा मन्दिर की ओर ना होकर महल की ओर होना भी इसका मुख्य कारण है। रानी ने चतुर्भुज मन्दिर को कुछ इस तरह बनवाया था जिससे कि रानी अपने महल के कक्ष से भगवान के दर्शन करती रहे।
अब राजा-रानी व मूर्ति की कहानी शुरु की जाये। ओरछा के राजा मधुकर की रानी रानी कुवंरी भगवान श्री राम की परम भक्त थी। जबकि राजा मधुकर राधा–श्रीकृष्ण भक्त थे। सही है यदि एक भगवान नाराज हो तो दूसरे को मना लिया जायेगा। राजा ने अपनी रानी से मजाक में कहा या चिढाने के इरादे से कि यदि तुम्हारे राम श्रीकृष्ण से ज्यादा महान है तो उन्हे ओरछा ले आओ। रानी को राजा की बात दिल पर लग गयी। अयोध्या जाने से पहले ही रानी ने राम जी के लिये चतुर्भुज मन्दिर भी बनवाना आरम्भ कर दिया था। जब मन्दिर का निर्माण अन्तिम चरण में था तो रानी भगवान राम को ओरछा लाने के लिये अयोध्या पैदल ही चली गयी।
अयोध्या पहुँचकर रानी ने सरयू नदी के लक्ष्मण घाट पर श्रीराम जी की तपस्या आरम्भ कर दी। जब तपस्या करते हुए काफ़ी दिन बीत गये लेकिन राम जी ने दर्शन ना दिये तो रानी कुवंरी गणेश ने सरयू नदी में प्राण त्यागने का निर्णय ले लिया। तभी भगवान राम बाल रुप में रानी की गोद में आकर बैठ गये। रानी ने राम जी को बालरुप में पहचान लिया और ओरछा चलने को कहा। बाल रुप राम जी ने रानी के सामने तीन शर्त बतायी कि यदि इन्हे मानो तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ। पहली शर्त यह थी कि ओरछा में जहाँ बैठ जाऊँगा वहाँ से नहीं उठूँगा। वहाँ का राज्य पाठ मुझे देना होगा। जिसका अर्थ है कि ओरछा का राजा तुम्हारे पति को नहीं मुझे मानना होगा। तीसरा मैं पुण्य नक्षत्र में ही वहाँ जाऊँगा। रानी ने तीनों शर्त मान ली तो राम जी बाल रुप में ओरछा की ओर चले गये।
ओरछा के पास पन्ना नामक स्थान पर राम जी ने रानी को श्रीकृष्ण रुप दिखाकर आश्चर्य चकित कर दिया था। राम जी बोले कि यहाँ मेरा जुगल किशोर नाम का स्थान सर्व पूज्य होगा। श्रावण शुक्ल तिथि पंचमी 1630 को अयोध्या से पुण्य नक्षत्र में ओरछा के लिये प्रस्थान किया गया। अयोध्या से ओरछा पहुँचने की तिथि चैत्र शुक्ल की नवमी थी। अयोध्या से ओरछा पहुँचने में 8 माह व 27 दिन का समय लिया गया। राम जी ने ऐसी माया रची कि रानी को बाल रुप भगवान राम जी को रानी वास/महल में ही रुकाना पडा। जबकि रानी चाहती थी कि रामजी की स्थापना चतुर्भुज मन्दिर में ही हो। कहते है कि जैसे ही बालरुप भगवान जमीन पर बैठे तो उसी समय बालरुप भगवान मूर्ति में बदल गये। उसी दिन से राजा-रानी के महल में अयोध्या के राम लला ओरछा के राजा राम बनकर विराजमान है। ओरछा का राज्य संचालन उसी समय से राम जी के नाम पर ही चलने लगा। यहाँ एक बात विचारणीय है कि राम जी बालरुप में अयोध्या से ओरछा आये थे जिस कारण जानकी सीता का निवास अयोध्या ही रहा। इसलिये राम जी दिन में ओरछा में वास करते है तो रात्रि में सोने के लिये अयोध्या लौट जाते है। ओरछा वासी आज भी राम जी को अपना राजा मानते है। इतिहास को पीछे छोडकर आगे चलते है।
अब थोडा आगे चलते है। सावन भादो मीनारे यहाँ का एक अन्य मुख्य आकर्षण है इनके बारे में कहते है कि यह वायु यंत्र है। इनके नीचे सुरंग बनी हुई बतायी जाती है। जिन्हे राज परिवार अपने आवागमन में उपयोग करता था। इन मीनारों के बारे में एक झूठ भी सुनने को मिला। बताया गया कि सावन के समाप्त होते व भादो के आरम्भ होते समय ये दोनों मीनारे आपस में जुड जाती थी। इस तरह की बाते केवल चर्चा में बने रहने के लिये लिये होती है। मीनारों के नीचे सुरंगों में जाने के मार्ग बन्द कर दिये है। सुंरग बन्द हो गयी तो क्या हुआ? ओरछा में जमीन के ऊपर देखने लायक बहुत कुछ है।
मुकेश जी का फ़ोन अभी तक नहीं आया। मैंने भी उम्मीद छोड दी थी। अब अकेला ही किला व जहाँगीर महल देखने चलता हूँ। उसके बाद देखता हूँ कि क्या करना है?
रात को यहाँ का किला देखा था दिन की रोशनी में देखता हूँ कैसा दिखता है? मैं महल की ओर बढता जा रहा था। मुख्य सडक पार कर बरसाती नाले का पुल पार कर किले के परिसर में पहुँचा ही था कि मुकेश जी फ़ोन आ गया। एक बार तो मन किया कि घन्टी बजने दूँ। लेकिन अगले पल सोचा कि चलो मुकेश जी की बात सुन कर देखू तो सही कि वे सुबह ना आने का क्या बहाना बनाते है?
मुकेश जी बोले संदीप जी कहाँ हो? रात वाली जगह पर ही हूँ। मुकेश जी बोले अभी होटल में ही हो। नहीं भाई, लाइट एन्ड साऊंड शो वाली जगह पर पहुँच गया हूँ। मेरी बात सुनते ही मुकेश जी बोले, आप वही ठहरो मैं 5 मिनट में पहुँचता हूँ। मैंने कहा, आप सुबह से कहाँ थे? आप अपने मोबाइल पर मेरी कॉल सुन भी नहीं उठा रहे थे। मुकेश जी ने बताया कि संदीप जी रात को देर से कोई दो बजे सो पाया था। जिस कारण सुबह जल्दी आँख ही नहीं खुली। मोबाइल की घन्टी बन्द थी उसका पता ही ना चला। वर्दीधारी लोगों को इतनी भयंकर निन्द्रा की आदत नहीं होनी चाहिए। चलो जी मुकेश का इन्तजार करके देखते है कि सुबह ना आने की कमी अब कैसे पूरी कर पायेंगे? अगले लेख में मुकेश जी ने देर से आने की कमी जहाँगीर महल में दोस्त कम गाइड बनकर बारीक से बारीक जानकारी बताकर पूरी की। (यात्रा जारी है।)