KUMAUN CAR YATRA-02 SANDEEP PANWAR
इस यात्रा के पहले
लेख में आपने दिल्ली से रात भर चलकर सुबह-सुबह भीमताल, नौकुचियाताल व सातताल तक की
यात्रा देखी। अब उससे आगे। हम चारों गाडी में सवार होकर नैनीताल के लिये बढ चले। आज
दिनांक 13 अप्रैल 2014 की बात
है। सातताल से नैनीताल जाने के लिये पहले भवाली पहुँचना होता है। भवाली कस्बे/बाजार
से एक सीधा मार्ग अल्मोडा जाता है। जबकि ऊपर चढाई की तरफ़ उल्टे हाथ जाने वाला
मार्ग नैनीताल व दिल्ली/काठगोदाम के लिये अलग होता है। इस मार्ग पर लगभग तीन किमी
चलने के बाद एक तिराहा आता है यहाँ से दिल्ली वाला मार्ग नीचे की ओर कट जाता है
जबकि नैनीताल वाला मार्ग ऊपर चला जाता है। हमें नैनीताल जाना था जाहिर है हम भी
ऊपर वाले मार्ग पर चलते गये। यहाँ इस तिराहे से नैनीताल की दूरी मात्र 7 किमी ही रह जाती है। नैनीताल पहुंचते ही सबसे पहले नैनी झील के दर्शन हुए।
नैनीताल में हमारा स्वागत बारिश ने किया।
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हम चारों
में से सिर्फ़ मैं पहले भी यहाँ आ चुका था। नैनीताल में नैनीझील किनारे आगे जाते ही
टोल टैक्स चुकाना पडता है। हमारी कार को 50 रु का शुल्क चुकाना पडा। यह शुल्क पार्किंग वाले शुल्क से अलग है। चारों
को जोर की नीन्द आ रही थी। इसलिये तय हुआ कि पहले कुछ देर झपकी ले ली जाये। तब तक
बारिश भी रुक जायेगी। थोडी देर की झपकी के लिये होटल के चक्कर में किसे पडना था?
आगे जाकर सरकारी अस्पताल के सामने गाडी खडी करने की जगह मिल गयी। गाडी किनारे लगा,
सीट पर बैठे-बैठे सोने लगे। मुझे एक मिनट की नीन्द नहीं आयी। लगभग पौने घन्टे सोने
के बाद राजेश जी की आँख खुली। राजेश जी बोले, क्या करना है? हम क्या करेंगे? जो
करेगी बारिश करेगी? बाहर अभी भी बारिश हो रही थी।
गाडी के
शीशे बन्द थे जिससे बाहर की ठन्ड अन्दर नहीं आ रही थी। बाहर के मौसम का स्वाद लेने
के लिये गाडी से बाहर आये तो बारिश व ठन्ड के कारण हालत खराब हो गयी। तेजी से गाडी
में जाकर बैठ गये। अब क्या करे? चलो नैनी झील में बोटिंग ही कर लेते है। कोई छत
वाली नाव मिल ही जायेगी। गाडी वापिस लेकर चल दिये। नैनी झील किनारे आते ही बारिश
तेज हो गयी। बारिश देखकर लगता था कि नैनीताल की बारिश हमारा इम्तिहान ले रही है। हमारे
पास काफ़ी समय था जिससे इन्तजार किया जा सकता था।
सडक किनारे
एक चाय वाला (नरेन्द्र मोदी नहीं) गर्मागर्म चाय बेच रहा था। गाडी में बैठे-बैठे
ही उसे तीन चाय बनाने को कह दिया। चाय वाले ने हमारी बात अनसुनी कर दी। कुछ देर
बाद उसे फ़िर से कहा। चाय वाला बोला, चाय बनने में समय लगेगा? कितना? आधा घन्टा।
ठीक है आधे घन्टे बाद बना देना। बाहर बारिश चालू थी इसलिये बाहर निकलना नहीं जा
सकता था। गाडी में बैठे-बैठे ही गप्पे मारते रहे। गोल गप्पे होते तो चटखारे लेकर
खाते। गप्पे तो खाये नहीं जा सकते ना। इसलिये मारते रहे। हम गप्पेडी तो थे नहीं
इसलिये गप्पे भी ज्यादा देर चल नहीं पाये। गाडी चाय वाले के बराबर में ही खडी थी।
आधे घन्टे से पहले ही चाय वाले ने चाय बना कर दे दी। मेरे अलावा बाकि तीनों ने नमो
चाय का स्वाद लिया। चाय व दारु में जरुर कुछ खास बात होगी क्योंकि इन्हे पीने वाले
अधिकांश लोगों का गुजारा इनके बिना मुश्किल है। चाय पीने के बाद देखा कि बारिश अब
भी, उसी चाल से टपक रही थी। गाडी में बैठने के अलावा क्या कर सकते थे?
रात भर से
गाडी में थे। सुबह का समय शरीर से कुछ वजन कम करने का होता है। इसलिये सबसे पहले
सार्वजनिक/शुल्क शौचालय की तलाश करने लगे। चाय वाले ने बताया कि थोडा सा आगे शुल्क
वाला शौचालय है। शौचालय के बाहर गाडी करने के लिये काफ़ी स्थान था। गाडी किनारे
लगते ही अपुन सबसे पहले शौचालय के अन्दर। शौचालय में महिला व पुरुष के लिये दो-दो
सीट ही थी। लेकिन सुबह बारिश के कारण कोई महिला वहाँ नहीं थी जिस कारण महिला वाले
शौचालय में पुरुष को जाने दिया गया। अजय बोला भाई जी क्या बात है? महिला वाला
शौचालय यूज करते हो? क्यों भाई शौचालय यूज करने से महिला बुरा मान जायेगी? अजय भाई
महिला आ गयी तो सोच में पड जायेगी कि यह गंजा टकलू महिला शौचालय में क्या कर रहा
था? खैर शौचालय संचालक उससे अपने आप निपटेगा।
जब तक
शौचालय आदि से निपटे तो बारिश के आतंक में कुछ कमी आयी। पहाडों की बारिश का कोई
भरोसा नहीं होता कि कब तेज हो व कब धीमी हो। ठीक वैसे ही यूपी की बिजली का कोई
भरोसा नहीं होता कि कब आ जाये व कब भाग जाये? इसलिये मैंने कहा अगर बारिश रुकती है
तो ठीक है नहीं तो यहाँ से कही और चलते है? जब तक बारिश की गति कम है तब तक नैनी
झील किनारे खडे होकर फ़ोटो खिचवाते है। राजेश जी बोले आप लोग जाओ मैं गाडी में ही
मिलूँगा। राजेश जी, प्रवीण व अजय गाडी में बैठेंगे, पहले आपका फ़ोटो लिया जायेगा।
सबसे पहले राजेश जी का झील किनारे फ़ोटो लिया। उसके बाद राजेश जी को गाडी की ओर
रवाना कर दिया। राजेश जी के जाने के बाद अजय व प्रवीण यानि हम तीनों नैनी झील
किनारे उतर गये।
झील किनारे
बत्तख का झुन्ड दिखायी दिया। बत्तखों के झुन्ड को क्या कहते है? मुझे नहीं मालूम?
किसी को पता हो अवश्य बताये। मुझे तो यह पता है कि भेड बकरियों के झुन्ड को रेवड
कहते है। दो वर्ष पहले की एक घटना याद आ गयी। एक बार भाई नीरज जाट ने मणिमहेश
यात्रा पर मेरे साथ गये साथियों को रेवड की उपाधी दी थी। उस यात्रा में हम कुल
मिलाकर एक दर्जन बन्दे थे। सब के सब मणिमहेश के सफ़ल दर्शन करने के बाद ही वापिस
लौटे थे। मणिमहेश यात्रा की गिनती आसान यात्रा में नहीं होती है। मैंने वह यात्रा
सिर्फ़ दो बार की है। दोनों बार ही मणिमहेश झील के माईनस -4 या -5 तापमान के
मजेदार पानी में बर्फ़ की परत तोडकर स्नान भी किया है। उन दोनों यात्राओं का विवरण
मैंने लिखा हुआ है। घुमक्कडी व दोस्तों के मामले में अपनी किस्मत बहुत अच्छी है।
इन दोनों मामले में अपुन बहुत धनी हूँ।
फ़ालतू बातों
के चक्कर में अपनी यात्रा बीच में रह जायेगी। रेवड व गडरिये की कहानी की वही छोडो।
हमारे पास गर्म कपडे के नाम पर एक-एक चद्दर ही थी लेकिन फ़ोटो लेने के लिये हम
चद्दर को साथ लेकर नहीं आये। झील किनारे खडे होकर फ़ोटो खिचवाकर वापिस लौट गये।
फ़ोटो लेने में मुश्किल से 5-7 मिनट का
समय ही लगा होगा। इतना समय भी हल्की-हल्की फ़ुआरों के बीच चलती तेज व ठन्डी हवा में
बिताना बडी बात थी। मैंने सिर्फ़ टी शर्ट पहनी थी पाजामा भी साथ नहीं लाया था। बडा
निक्कर पहनकर ही काम चलाया जा रहा था। कैमरे को बारिश से बचाने के लिये पन्नी का
सहारा लिया गया। अजय व प्रवीण के जाते ही मैंने भी गाडी में बैठने में ही भलाई
समझी। राजेश जी अपने खजाने में से परांठे निकाल कर खाने लगे। उन्हे अकेले परांठे
कैसे खाने देते? सबने परांठे बाट लिये। अजय भाई अपने साथ नमक पारे लाये थे मौका
लगते ही उनपर हाथ साफ़ होता रहता था।
हम चारों ने
ठीक 11 बजे के आसपास फ़ैसला कर लिया कि बारिश के
चक्कर में यहाँ खडे रहने से कुछ नहीं होने वाला है चलो आगे चलते है। शायद बारिश
आगे ना मिले। फ़िर से भवाली के उसी तिराहे पर पहुँचे। जहाँ से अल्मोडा वाला मार्ग
अलग होता है। अबकी बार उल्टे हाथ मुडना पडा। यहाँ से अल्मोडा की दूरी करीब 65 किमी है। सडक की हालत कुल मिलाकर अच्छी है। बीच में कैंची धाम नामक जगह
आती है। यहाँ भी बारिश जारी थी। इसलिये बिना रुके आगे बढते रहे। चलती गाडी से कैंची
धाम का एक फ़ोटो लिया था। खैरना नामक जगह पर नदी पर लोहे का बडा पुल आता है। यहाँ
से रानीखेत वाला मार्ग अलग होता है। हमारी मंजिल अल्मोडा थी इसलिये सीधे चलते रहे।
कैंची धाम से
करीब 10 किमी आगे जाने के बाद राजेश जी बोले आँख फ़िर
से भारी हो रही है। मुझे भी नीन्द सता रही थी इसलिये मैंने गाडी चलाने को नहीं कहा।
लगभग आधा झपकी लेने के बाद, हम वहाँ से अल्मोडा की ओर चल दिये।
अल्मोडा से पहले सडक किनारे एक इमारत दिखायी दी। जिसे देखकर लगता था कि यह किसी सरकारी
परियोजना का हिस्सा है। इस इमारत के सामने पहुँचकर पता लगा कि यह नवोदय विधालय की इमारत
है। यहाँ आकर बारिश रुक चुकी थी। अल्मोडा पहुँचने से पहले उस तिराहे पर पहुँच गये
जहाँ से पाताल-भुवनेश्वर का मार्ग अलग होता है। यहाँ से कौसानी व बागेश्वर का
मार्ग भी अलग होता है। यह जगह अल्मोडा बाईपास कहलाती है। अब कहाँ जाये? फ़ैसला
पाताल भुवनेश्बर पर हुआ।
पाताल-भुवनेश्वर
जाने के दो मार्ग है एक बिनसर होकर इस मार्ग पर जागेश्वर नामक मन्दिर आता है। दूसरा
मार्ग बागेश्वर होकर है। अब क्या करे? सामने ही बाल मिठाई की एक दुकान थी। पहले तो बाल मिठाई का भाव पता किया। बाल
मिठाई का भाव २०० रु किलो था। वापसी में इसी दुकान से बाल मिठाई लेकर जाऊँगा। बाल मिठाई
वाले ने बताया कि सीधे हाथ वाले मार्ग से जाओ। यह मार्ग थोडा छोटा है। बागेश्वर वाला
मार्ग थोडा लम्बा है। तय हुआ कि इस मार्ग से जाते है व उस वाले बागेश्वर मार्ग से वापिस
आयेंगे।
मैंने उस दुकान
पर अपना मुँह पानी से अच्छी तरह भिगोया जिससे बचा कुचा आलस भी जाता रहा। अब गाडी चलाने
की जिम्मेदारी मैंने सम्भाली। अल्मोडा शहर को पार कर आगे बढते रहे। अल्मोडा पहली नजर
में शिमला की याद दिला रहा था। अधिकतर पहाडी शहर एक जैसे ही होते है लेकिन शिमला व
अल्मोडा में काफ़ी समानता थी। हम जिस मार्ग पर बढ रहे थे वह शेराघाट गंगोलीहाट वाला
मार्ग था। यह मार्ग बैरीछीना से उल्टे हाथ मुडता है। बैरीछीना से जागेश्वर का
मार्ग सीधे हाथ जाता है। इस मोड से जागेश्वर की दूरी 18 किमी रह जाती है। हमें जागेश्वर नहीं जाना
था इसलिये हम उधर नहीं मुडे।
सडक की हालत
अल्मोडा के नजदीक तक ठीक थी। राजेश जी के साथ सबसे बडी समस्या यह है कि वह दूसरे की
ड्राईविंग पर जरा भी भरोसा नहीं कर पाते। अगर मेरा ध्यान पहाडी नजारे देखने में जरा
भी इधर-उधर होता तो वे मुझे टोक देते थे। एक दो मोड
पर कार का पहिया कच्चे में उतरा तो कहते थे कि संदीप जी आगे देखो। इस सडक पर गाडी चलाते
समय पता लग रहा था कि अल्मोडा के बाद जिस सडक पर हम निकल आये है वह सडक ज्यादा अच्छी
स्थिति में नहीं है। शाम होने में समय था। इसलिये आराम से चले जा रहे थे।
इस मार्ग में
एक मजेदार बात हुई कि हम हर 10-15 किमी
बाद किसी न किसी बन्दे से पता करना चाहते थे कि गंगोलीहाट पाताल भुवनेश्वर वाला मार्ग
यही है या बीच में से कोई दूसरा कट तो नहीं गया। हमने लगभग 50 किमी की दूरी तय कर ली होगी लेकिन जिस बन्दे से भी हमने पाताल की दूरी पता
की उन सभी 70-75 किमी ही बतायी थी। सडक किनारे दूरी बताने वाले
बोर्ड भी इक्का दुक्का ही आये थे जिससे लोगों की बात पर बडा गुस्सा आता था कि दो घन्टे
हो गये चलते-चलते फ़िर भी दूरी घट नहीं रही है। यह रास्ता
बीरबल की खिचडी तरह हो गया था जो समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा था।
शाम को करीब
05:15 पर राई आगर नाम जगह पहुँचे। यहाँ राई
आगर तिराहे से पाताल व गंगोलीहाट का मार्ग सीधे हाथ जाता है। जबकि उल्टे हाथ वाला
मार्ग पिथौरागढ व बागेश्वर के लिये चला जाता है। वहाँ काफ़ी गाडियों खडी थी। उनसे
पाताल भुवनेश्वर का मार्ग पता किया। उन्होंने कहा कि अब तो पाताल के बन्द होने का
समय हो गया है। कल सुबह 8 बजे जाना। वैसे तो पाताल में
कुमायूँ विकास निगम का सरकारी विश्रामालय है लेकिन वहाँ जाकर भी तो सोना ही है
यहाँ से पाताल की दूरी मुश्किल से २० किमी ही है। इसलिये यहाँ रात्रि विश्राम करते
है। एक होटल में कमरे देखे। 700 रु में दो कमरे तय किये।
पाताल में 150 रु में डोरमेट्री उपलब्ध हो जाती है।
होटल वाली
से (होटल मालिक उस समय वहाँ नहीं था) उसी किराये के साथ सुबह गर्म पानी देने की
बात भी तय हो गयी थी। होटल वालों का अपना भोजनालय था जिससे भोजन करने के लिये कही
ओर नहीं जाना पडा। साढे पाँच बज चुके थे। एक घन्टे बाद भोजन उपलब्ध कराने को कहकर
अपने कमरे में घुस गये। जैसे ही सूरज महाराज पहाडों के पीछे गायब हुए। वैसे ही
पहाडों की ठन्ड ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया। राजेश जी चद्दर ओढकर लेट गये।
थोडी देर में ही उन्हे नीन्द आ गयी। रजाई इनके ऊपर डालकर अजय को आवाज लगाई। होटल
के ठीक पीछे खेतों का शानदार चित्र देखकर जीते जी स्वर्ग लोक जैसा अनुभव किया।
हम अपनी रजाई
में बैठे थे कि तभी होटल वाली ने कहा कि भोजन तैयार है। हम भोजन करने के लिये कमरे
के बराबर वाले भोजनालय में आये। होटल वाली ने भोजन की थाली के बारे में बताया
जिसमें से 80 रु वाली पसन्द आयी।
इसमें दो सब्जी के साथ दही भी दी गयी थी। जबकि इससे महँगी थाली में मिठाई साथ थी।
मिठाई की हमें कोई जरुरत नहीं थी। हम अपने साथ खाने का काफ़ी सामान लाये थे। अजय
भाई एक किलो नमक पारे लेकर आये थे। अभी तक एक पाव भी कम नहीं हुए है। चलो खाना
पीना हो गया। जोर की ठन्ड लगने लगी है। अभी रजाई में घुसते है। सुबह गर्मागर्म
पानी में स्नान कर धरती में 130 फ़ीट गहरे बेहद संकरे मार्ग
वाली पाताल भुवनेश्वर की ओर प्रस्थान किया जायेगा। (यात्रा अभी जारी है।)
क्या जगह है वाह....कमाल है जी कमाल
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-05-2014) को "संसार अनोखा लेखन का" (चर्चा मंच-1602) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर वर्णन और चित्र
जवाब देंहटाएंकुछ ज्यादा ही जी लगा दी संदीप जी
जवाब देंहटाएंमुझे तो फोटो बहुत पसंद आये।
जवाब देंहटाएंआपकी यात्रा पढ़कर हमे भी अपने पाताल भुवनेश्वर की यात्रा को पुनः स्मरण कर लिया..... | हम लोग रानीखेत, कौसानी और बागेश्वर होकर गए थे | राई आगर के उस होटल में भी हमे अपने ड्राइवर के कहने पर कमरे देखे थे....पर हमने पाताल भुवनेश्वर पहुचकर पर्यटक आवास गृह में कमरा लेना कुछ ज्यादा उचित समझा था...... |
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी यात्रा
हम भी पातळ भुवनेश्वर जाना चाह्ते थे पर रास्ता इतना लँबा हो गया कि वापस आ गये -सोमेश्वर । आज १२ मई को पुरे २ साल हो गए है --नैनीताल यात्रा को --बहुत याद आती है वो यात्रा
जवाब देंहटाएंgarmi mein bhi sardhi ka ahasas....
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