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गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

Delhi to Bikaner (Ladera camel festival) दिल्ली से बीकानेर (लडेरा गाँव, ऊँट उत्सव)


BIKANER LADERA CAMEL FESTIVAL-01
आज दिनांक 14-01-2014 को बीकानेर के लडेरा गाँव में होने वाले ऊँट उत्सव देखने चलते है। दो साल पहले राजस्थान घूमने गया था। उस यात्रा में जोधपुर, जैसलमेर के साथ बीकानेर के कई स्थल देखे गये थे। उस यात्रा के दौरान कोई उत्सव आदि देखने को नहीं मिला था। बीते वर्ष बीकानेर के रहने वाले राकेश बिश्नोई से ब्लॉग के जरिये मुलाकात हुई, जो आज एक अच्छी खासी दोस्ती में बदल गयी है। वैसे तो मैं ज्यादा दोस्त नहीं बनाया करता, क्योंकि अपने जैसे मिजाज के इन्सान कम ही टकराते है, लेकिन वर्तमान में जितने भी है। सभी घुमक्कड़ है या घुमक्कड़ी को चाहने वाले है। जब राकेश मेरे साथ किन्नर कैलाश की खतरनाक ट्रेकिंग करने गया था तो उसी यात्रा में राकेश ने बताया था कि बीकानेर के पास लडेरा गाँव में रेत के टीलों पर ऊँट उत्सव होता है। 



मैंने कहा ठीक है राकेश भाया, लडेरा ऊँट उत्सव भी देखने जायेंगे। राकेश के पास स्कारपियो जीप है। राकेश ने मुझे कई महीने पहले ही कह दिया था कि जाट भाई बीकानेर जीप से चलेंगे। ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा। कश्मीर यात्रा पर जाने से पहले मैंने राकेश को फ़ोन कर कहा, क्यों भाया? स्कारपियो ले जाओगे या रेल के टिकट बुक कर दूँ। राकेश ने एक बार फ़िर कहा जाट भाई, चिन्ता ना करो यदि स्कारपियो ना भी ले जा पाये तो बीकानेर की ट्रेनों में एक-दिन पहले भी आसानी से टिकट मिल ही जाता है। मैंने कहा, अगर ना मिला तो? मिलेगा कैसे नहीं? इतनी ठन्ड़ में राजस्थान जाने वाले लोगों की लाइन नहीं लगती है। आप टिकट की चिन्ता ना करे। अरे भाई टिकट की चिन्ता नहीं है। मैं तो बिना आरक्षण कराये भी चल दूँगा। मैंने दिल्ली से गोवा व नान्देड़ तक बिना आरक्षण यात्रा की हुई है। बस यही जाँच रहा था कि लडेरा जाओगे या नहीं।
जैसा मैं सोच रहा था वैसा ही हुआ। चार दिन पहले राकेश का फ़ोन आया कि जाट भाई रेल से चलेंगे। बीकानेर से भाई की कार लेकर आनी थी स्कारपियो वहीं छोड़कर आनी थी। लेकिन कुछ परिस्थिति ऐसी बनी है कि बिना स्कारपियो के ही जाना सही रहेगा। भारतीय रेल जिन्दाबाद। राकेश के साथ यात्रा करने में यह लाभ रहता है टिकट-विकट बुक करने का झंझट वही कर देता है। राकेश ने हम दोनों के टिकट बुक कर दिये। इस यात्रा में एक अन्य दोस्त अजय कुमार से भी बीकानेर जाने की बात हुई थी लेकिन अजय भाई भी अपनी घरेलू समस्या के चलते जाने में असमर्थ हो गये।
अपुन को तो आदत हो चुकी है कि किसी भी यात्रा पर जाने के आखिरी समय तक यदि एक आध दोस्त का नाम सूची से ना कटे, तब तक लगता ही नहीं है कि हम किसी यात्रा पर जा रहे है। वैसे भी अजय भाई बाइक प्रेमी है। आगामी कुछ दिनों में अजय के साथ हिमालय में एक सप्ताह का लम्बा बाइक कार्यक्रम बनने वाला है। हिमालय की उस सप्ताह भर लम्बी बाइक यात्रा में राकेश के जाने की हाँ भी हो चुकी है। यह तो समय ही बतायेगा कि उस हिमालय यात्रा में कौन-कौन साथ जा पायेगा?
बीकानेर जाने का दिन 14 जनवरी की रात को दिल्ली सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन से बीकानेर जाना तय हुआ था। अपुन के घर के पास से सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन के लिये सीधी बस मिलती है। अपना हमेशा से नियम रहा है समय से कुछ पहले पहुँचा जाये ताकि भागम-भाग की गुन्जाईश ना रहे। मैं ट्रेन चलने के नियत समय से 1 घन्टा पहले ही स्टेशन पहुँच गया। राकेश को फ़ोन लगाया तो पता लगा कि वह अभी घर से निकला है। आ जा भाई टिकट तो तेरे मोबाइल में ही है। अगर तुम समय पर नहीं आये तो मैं भी वापिस चला जाऊँगा। राकेश ट्रेन चलने से मात्र 15 मिनट पहले पहुँचा। जब तक राकेश आया तब तक मैंने अपना बोरिया बिस्तर बिछा कर उसमें अपना डेरा जमा भी लिया था।
राजस्थान आने-जाने वाली ट्रेन में रेत की समस्या बहुत होती है। हमारी सीटे ऊपर वाली थी। यह ट्रेन राजस्थान से कुछ देर पहले ही आई थी। जब मैं अपनी सीट पर लेटने के लिये गया तो वहां रेत देखकर खोपड़ी खराब हो गयी। शुक्र रहा कि ट्रेन में आशाराम बापू लगभग हर सीट पर मौजूद थे। आशाराम बापू हर सीट पर दिखाई दे रहे थे। आप सोच रहे होंगे कि आशाराम बापू तो जोधपुर की जेल में कई महीनों से बन्द है फ़िर उस ट्रेन में क्या कर रहे थे? चलिये राज से पर्दा हटाते है।
ट्रेन की लगभग हर सीट पर आशाराम की पुस्तके बिखरी हुई थी। हो सकता है कि इस ट्रेन के डिब्बे में महात्मा गाँधी जैसे कथित सन्त आशाराम बापू के भक्त बैठे हो। खैर मुझे ना आशाराम से मतलब था, ना उनके भक्तों से। हमारे डिब्बे में आशाराम की पुस्तके राजस्थान की धूल हटाने के काम आने वाली थी। मैंने कई पुस्तके उठा ली। उन किताबों की सहायता से राजस्थान की धूल सीट से हटा दी गयी। मैं अक्सर अपने साथ सीट साफ़ करने का कपड़ा नहीं ले जाया करता। लेकिन इस यात्रा ने बता दिया कि अब एक छोटा कपड़ा साथ लेकर जाना पड़ा करेगा।
सामने साइड़ वाली ऊपर की सीट पर जमा धूल को हटाने एक बन्दा लगा हुआ था। उसने भी आशाराम की पुस्तकों का सहारा लिया। जब उसने वह सीट लगभग साफ़ ही कर दी तो उस सीट पर हक जमाने के लिये एक अन्य बन्दा आ पहुँचा। पता लगा कि पहले से सीट साफ़ कर रहे बन्दे ही सीट नीचे वाली है। सीट साफ़ करने वाला बन्दा मेरी ओर देखकर काफ़ी देर तक हँसता रहा। मैं उसे देखकर मुस्करा दिया। कभी-कभी हालत ऐसे हो जाते है कि हम चाहकर भी अपने आप को हँसने से रोक नहीं पाते?
मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं 8 वी कक्षा में पढते समय की एक घटना आज भी याद आती है तो बरबस हँसी आ जाती है। बात यह थी कि बारिश के कारण स्कूल के मैदान में एक जगह पानी जमा था। सभी दोस्तों में उस जमा पानी को कूद कर पार करने की होड़ लग गयी। एक-एक कर सभी दोस्त उसे पार कर गये, लेकिन जब अपुन की बारी आई तो माहौल कामेड़ी से भर गया। हुआ यह था कि जब मैं उस पानी को पार करने के लिये कूदा तो पानी के उस तरफ़ पै टिक नहीं पाये और मैं पिछवाड़े के बल फ़िसल गया। मैंने उठने में इतनी तेजी दिखाई थी कि जैसे किसी ने मुझे देखा ही ना हो। उस समय मुझे छोड़कर बाकि सभी साथी जमकर हँस रहे थे। कहते है ना, समय कभी एक जैसा नहीं रहता। थोड़ी बाद जब एक अन्य लड़का मेरी तरफ़ फ़िसल गया तो मुझे भी हँसने का मौका मिला।
मैं सोच रहा था कि राकेश कब आयेगा? उसको फ़ोन लगाया तो पता लगा कि वह 5 मिनट में पहुँचने वाला है। राकेश भी थोड़ी देर में आ गया। राकेश की सीट भी गन्दी थी। उसने भी आशाराम का सहारा लिया। शुक्र रहा कि आशाराम जी वहाँ पुस्तकों के रुप में मौजूद थे। मैं आज तक किसी किस्म के साधु, सन्त या सत्संग आदि के चक्कर में नहीं पड़ा हूँ। कुछ धार्मिक पुस्तके तो जरुर पढी है उनमें से सबसे अनमोल पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश” लगी है। जिसने यह पुस्तक पढी हो उसका कल्याण हो जाता है। कमी निकालने वाले इस पुस्तक में भी कमियाँ निकालते है। लेकिन वे अन्य पुस्तकों के बारे में बात करने से बचना चाहते है। सत्यार्थ पुस्तक पढने वाला हर तरह के पाखण्ड़ से दूर हो जाता है। राकेश भी अपनी सीट पर  स्लीपिंग बैग बिछाकर लेट गया।
ट्रेन अपने तय समय पर बीकानेर के लिये रवाना हो गयी। ट्रेन चलने के बाद मैंने अपने स्लीपिंग बैग में अपने आप को छुपा लिया था। आधे घन्टे बाद टी-टी ने उठाया। टीटी को आयकर विभाग से जारी पहचान पत्र दिखाकर संतुष्ट कर दिया कि मैं ही संदीप पवाँर हूँ। राकेश ने भी अपना पहचान पत्र दिखाया। रात को कब नीन्द आयी? नहीं पता। सुबह बीकानेर उतरने वाली सवारियों की हलचल देखकर अंदाजा हो गया कि बीकानेर आने वाला है। यह ट्रेन बीकानेर तक ही जायेगी। ट्रेन रुकने के बाद हम दोनों सीट से उतरे। अपना स्लीपिंग बैग समेट कर बैग में ड़ाल लिया। जब तक हमने अपना सामान बान्ध लिया, तब तक अन्य सवारियाँ ट्रेन के डिब्बे से निकल चुकी थी।
स्टेशन से बाहर आने के लिये फ़ुटओवर ब्रिज से होकर निकलना पड़ा। पैदल पुल के ऊपर पहुँचते ही सूर्योदय दिखाई दे रहा था। यह नजारा देखकर बैग से कैमरा निकाल लिया। स्टेशन का भवन राजस्थान वास्तुकला की स्पष्ट झलक दिखाता है। यहाँ पर ऐसा लगता है कि हम किसी किले में खडे हो। उगता लाल-लाल टमाटर जैसा सूर्य देखकर मन में एक उमंग उभरती है कि इस सूर्य की तरह पूरे दिन जोश से भरपूर रहना चाहिए। स्टेशन व सूर्योदय के कई फ़ोटो लेकर स्टेशन से बाहर निकल आये।
स्टेशन परिसर के पार्किंग क्षेत्र में राकेश के बड़े भ्राता अपनी कार में हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। राकेश ने ट्रेन बीकानेर पहुँचने से आधा घन्टा पहले ही भाई को फ़ोन कर बता दिया था कि हम इतने समय में पहुँच जायेंगे। अपने बैग कार की डिग्गी में डाल कर हम राकेश के बीकानेर वाले घर की ओर चल दिये। स्टेशन के बाहर आकर देखा कि 2 साल पहले जिस हालत में यह स्टेशन आखिरी बार देखा था आज भी यह उसी हालत में है। राकेश का घर बीकानेर स्टेशन से करीब 7-8 किमी होगा।
राकेश के घर जाने के लिये बीकानेर किले के आगे से होकर जाना हुआ। यह देखकर याद आया कि इस किले को तो मैंने अन्दर से अच्छी तरह देखा हुआ है। इस किले में अच्छी चित्रकारी देखने को मिली थी। किले से थोड़ा आगे एक तालाब भी है। इस तालाब की एक खासियत है कि यदि राजस्थान में बीजेपी की सरकार होती है तो यह तालाब साफ़ सुथरा मिलता है लेकिन सरकार कांग्रेस की हो तो यह गन्दा मिलता है। राजस्थान की राजनीति का अल्ला मालिक है? ठीक उसी तरह जिस प्रकार भारत सरकार जुगाड़ भरोसे चलती है। यह राजनीति बड़ी कुत्ती चीज है। जनता को नेताओं की असलियत पता ही नहीं चलती है, यदि चलती भी है तो गुलामों की तरह उसके अनुयायी रहते है।
शहर से बाहर हाईवे पर आते ही, मैंने राकेश से कहा, यह कौन सा मार्ग है? राकेश ने बताया था कि यह हाइवे गंगानगर/ हनुमानगढ जाता है। यही मार्ग आगे चलकर एक तिराहे से जैसलमेर कि लिये मुड़ जाता है। थोड़ी देर में ही कुछ मोड़ मुड़ने के बाद राकेश भाई का घर आ गया। राकेश भाई का घर बहुत शानदार लगा। आधुनिक सुख सुविधाओं से युक्त घर राकेश भाई के सपनों का घर है। राकेश के छोटे भाई आज सुबह दिल्ली पहुँच गये होंगे। उन्हे राकेश की गैरहाजिरी में दिल्ली का काम सम्भालना होगा।
बीकानेर आने से पहले हम दोनों का कार्यक्रम उसी बाइक से लडेरा गाँव जाने का था जिससे हम दोनों किन्नौर व लाहौल-स्पीति घाटी घूम कर आये थे। हमारा कार्यक्रम देखकर राकेश के बडे भाई बोले कि मैं भी साथ चलूँगा। अब हम 2 से 3 हो गये थे जाहिर है बाइक पर बात नहीं बनने वाली थी। अब कार से जाने की योजना बन गयी। राकेश की माता जी व बड़ी भाभी जी सुबह का नाश्ता बनाने में लग गयी। ठन्ड़ का मौसम होने के कारण बाहर निकली धूप देखकर, मैं छत पर चला गया। छत पर राकेश भाई की माताजी बिजली के पंखे के सामने गेहूँ उछाल कर साफ़ कर रही थी। राकेश भाई का 3 महीने का भतीजा मेरे साथ धूप के मजे ले रहा था। गेहूँ को चुगने के लिये एक काली चिडिया अपनी मौजूदगी दिखा रही थी। ऊपर छत से आसपास का अच्छा नजारा दिख रहा था। एक सब्जी बेचने वाला बैलगाड़ी पर सब्जी बेचने आया हुआ था।
नाश्ता बन गया तो मैं नीचे चला गया। नाश्ते में भोजन के साथ मथुरा जैसे स्वाद के पेड़े भी मिले। यह पेड़े शायद वहाँ के किसी मन्दिर से प्रसाद के रुप में लाये गये थे। नाश्ते के उपराँत हम तीनों कार में सवार होकर लडेरा ऊँट उत्सव देखने चल दिये। कालोनी के अन्दर की गलियाँ रेत से भरी हुई थी। राकेश भाई का घर जिस कालोनी में है वह बीकानेर की सबसे बडी आवासीय कालोनी है। माता प्रसाद कालोनी उर्फ़ एम पी कालोनी कई किमी लम्बी सीमाये लिये हुए है। रेतीली गलियों से होकर हाइवे पर पहुँचे।
हाइवे पर आने से पहले एक रेलवे लाईन पार करनी होती है। जिस जगह रेलवे लाइन पार की जाती है उसके ठीक बराबर में लालबाग नाम का रेलवे स्टेशन बना हुआ है। बीकानेर में यह दूसरा मुख्य स्टेशन है। हाइवे पर आने के बाद सड़क की हालत अच्छी मिली। सड़क के दोनों ओर कीकर व छेझडी के पेड बहुतायत संख्या में दिखाई देते है। छेझड़ी के पेड़ के फ़ूलों से सांगरी नामक सब्जी बनायी जाती है जो बहुत स्वादिष्ट होती है। छेझड़ी के पेड़ राजस्थान के सूखे में भी हरियाली लिये हुए थे। इस पेड़ के बारे में कहा जाता है कि इस पेड़ को वर्ष में एक बार पानी मिल जाये फ़िर कोई फ़िक्र नहीं रहती। मेरी राजस्थान की दूसरी यात्रा है पिछली यात्रा में मैंने इस पेड़ के फ़ूलों की सब्जी खायी थी। आज भी पहली यात्रा की तरह दूसरी यात्रा में भी कार की सवारी हो रही है। हाईवे पर जाते समय उल्टे हाथ एक गोदाम मिला, जहाँ ट्रकों की लाईन लगी थी।
लगभग 30 किमी सीधे हाईवे पर चलने के बाद लडेरा गाँव के लिये सीधे हाथ पर एक बोर्ड़ दिखायी दिया। इस मोड़ से लडेरा गाँव की दूरी 15 किमी बाकि थी। अब पतली सी पक्की सड़क से होकर चलते रहे। 11 किमी जाने के बाद मालासर आता है यहाँ से एक बार फ़िर सीधे हाथ मुड़ना होता है मालासर से लडेरा ऊँट उत्सव स्थल मात्र 4 किमी बाकि रह जाता है। अब हमें रेत से भरे मार्ग से होकर निकला पड़ा। इस मार्ग पर रेगिस्थान के जहाज कहलाने वाले ऊँट को गाड़ी खींचता हुआ देखा। रेगिस्थान में ऊँट गाड़ी के पहिये बहुत मोटे रखे जाते है जिससे वह रेत में धंस नहीं पाती है। लडेरा की दूरी 0 किमी दर्शाता हुआ बोर्ड हमारे सामने था। लडेरा तो पीछे जा चुका था लेकिन ऊँट उत्सव कहाँ गायब हो गया? (यात्रा अगले लेख में जारी है)

























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