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शनिवार, 14 सितंबर 2013

Puri to Delhi पुरी से दिल्ली तक

UJJAIN-JABALPUR-AMARKANTAK-PURI-CHILKA-30         SANDEEP PANWAR
पुरी से दिल्ली की पुरुषोत्तम एक्सप्रेस ट्रेन रात के नौ बजे की थी इस तरह मेरे पास कई घन्टे खाली थे। सबसे पहले एक खाली प्लेटफ़ार्म देखकर उस पर मोबाइल चार्जिंग का ठिकाना तलाश किया। अब दो रात+एक दिन तक ट्रेन में ही रहना था इसलिये मोबाइल चार्ज करना बहुत जरुरी था। जहाँ मैं बैठा हुआ था उसके सामने ट्रेन से आया हुआ काफ़ी सारा सामान पड़ा हुआ था। घन्टे भर बाद उस सामान को उठाने वाले लड़के वहाँ पहुँच गये। रेलवे में अपना सामान भेजते समय लोग सोचते होंगे कि हमारा सामान सुरक्षित पहुँच जायेगा। मैंने यहाँ लोगों के सामान की दुर्दशा होते हुए देखी। सबसे पहले सामान ढ़ोने वालों ने कुछ पेटियाँ वहाँ से हटायी, ये लोग इतनी लापरवाही से सामान पटक रहे थे कि उनमें से दो पेटियाँ वही उधेड़ दी। उन पेटियों में मेडिकल चिकित्सक काम मॆं आने वाले इन्जेक्सन रखे थे। ऐसा ही वाक्या इन्होंने एक मन्दिर की घन्टा बजाने वाली मशीन के साथ किया। बीच में जब इन्हे खाली समय मिलता था तो मैंने एक बन्दे से कहा कि इतनी लापरवाही से लोगों का सामान क्यों पटकते हो? उसने टका सा जवाब दिया कि यह सामान भुवनेश्वर तक जाना है रेलवे वाले इसे हमें तंग करने के लिये पुरी उतरवाते है यहाँ से दुबारा दूसरी ट्रेन में भरकर भुवनेश्वर वाली गाड़ी में लादना पड़ता है। जब लोग सामान टूटने की शिकायत करेंगे तो उनका सामान यहाँ नहीं आयेगा।


उसके साथ काफ़ी बाते हुई, उसकी बात सुनकर रेलवे का काफ़ी झमेला समझ आने लगा। मुझे केवल समय पास करना था इसलिये मैं खाली प्लेटफ़ार्म देखकर वहाँ आया था। वहाँ उस प्लेटफ़ार्म पर शाम होते होते लोगों की भीड़ जुटनी आरम्भ हो गयी थी जिससे पता लगा कि जल्द ही यहाँ से कोई ट्रेन जाने वाली है। वहाँ से जबलपुर मार्ग की ओर जाने वाली एक ट्रेन रवाना हुई थी। इस ट्रेन ने जब प्लेटफ़ार्म छोड़ा तो उसे पकड़ने के लिये बहुत सारे बन्दे उसक पीछे दौड़े थे। ट्रेन भी कमाल की थी ट्रेन की गति मुश्किल से उतनी ही थी जितनी कोई आम इन्सान तेजी से चल सकता था। जो लोग तेज दौड़ रहे थे उन्होंने तो ट्रेन आसानी से पकड़ ली लेकिन जिनके बस में तेज दौड़ना नहीं था वे उस ट्रेन के पीछे-पीछे प्लेटफ़ार्म समाप्त होने तक लगे रहे। ढ़ीले लोगों के धीमे चलने से कई लोगों की ट्रेन निकल गयी।

पुरी से चलने से पहले मैंने शाम का खाना खाने का ठिकाना स्टेशन के बाहर उल्टे हाथ 200-250 मीटर दूरी पर तलाश कर लिया था। शाम के 7 बजे मैं खाने के इरादे से स्टेशन से बाहर आने लगा तो एक टीटी ने मुझे टोका। मैंने कहा पुलिस स्टाफ़, उसने एक बार भी यह नहीं कहा कि अपना आई कार्ड़ दिखाओ! मैं रात्रि खाना खाने के लिये बाहर गया। वहाँ कई भोजनालय एक साथ बने हुए है जो उधर आने वाले किसी भी ग्राहक को अपने पक्ष में करने के लिये जोर-जोर से आवाज लगाते रहते है। मैंने पहले ही सबसे आखिरी वाले ढ़ाबे में खाना खाने का मन बनाया हुआ था इसलिये मुझ पर उनकी आवाज का कोई प्रभाव नहीं हुआ। मैंने आखिर ढ़ाबे पर जाते ही खाने की थाली के दाम के बारे में पता किया। यहाँ चावल व रोटी दो तरह की थाली थी। चावल वाली थाली का दाम मात्र 10 रुपये कम था। मुझे रोटी सब्जी खानी थी इसलिये मैंने रोटी सब्जी वाली थाली के पैसे दे दिये थे। एक थाली भोजन का दाम 50 रुपये था। भोजन कुल मिलाकर मस्त बना था।

भोजन करने के उपराँत मैंने फ़िर से स्टेशन का मार्ग पकड़ा। स्टेशन पहुँचकर अपनी ट्रेन वाला प्लेटफ़ार्म तलाश किया। यह प्लेटफ़ार्म उससे अलग था, जहाँ मैंने कई घन्टे बिताये थे। पुरी के स्थानीय पानी का स्वाद अपुन को पसन्द नहीं आया था। प्लेटफ़ार्म पर दो-दो लीटर की पानी की बोतली मिल रही थी। मैंने एक साथ दो बोतले ले ली थी कल पूरे दिन व रात भी पानी की आवश्यकता पड़ने वाली थी। चार लीटर पानी से काम तो चलने वाला नहीं था। बाकि ट्रेन मॆं ले लिया जायेगा। जैसे ही ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर लगी तो मैंने अपना डिब्बा देखकर उसमें अपनी सीट पर अपना डेरा जमा दिया। रात को अपने समय से ट्रेन दिल्ली के लिये रवाना हो गयी थी। पूरी रात बाहर तो कुछ दिखायी नहीं देने वाला था। इसलिये सबसे अच्छा था कि सो जाऊँ। सुबह उजाला होने पर बाहर के नजारे देखने लगे।

सुबह उजाला होने के बाद जहाँ से हमारी ट्रेन गुजर रही थी वहाँ बाहर रेलवे लाइन किनारे बहुत सारे खजूर के पेड़ दिखायी दे रहे थे। पहले मैंने समझा कि नारियल के पेड है लेकिन नहीं, इनके पत्ते उतने लम्बे नहीं है यह खजूर ही है। खजूर के ढेर सारे पेड देखकर मुझे शिमला से आगे मशोबरा तत्तापानी वाला रोड याद आ गया जहाँ सतलुज किनारे लेकिन पहाड के ऊपर बहुत सारे खजूर के पेड है जो हजारों की संख्या में है। ट्रेन धड़धड़ाती हुई दौड़ी चली जा रही थी। दिन का सबसे पहले वाला स्टॆशन टाटानगर आया था। पहली बार पश्चिम बंगाल की धरती देखी थी।

आगे आने वाला मुख्य स्टेशन का नाम देखकर मैं चौंक गया था इसका नाम पुरुलिया था यह वही पुरुलिया है जहाँ कुछ सालों पहले विदेशियों ने हेलीकाप्टर या हवाई जहाज से हथियार गिराये थे। मैंने अब तक इसका नाम ही सुना था आज पहली बार देख भी लिया था। मार्ग में आने वाले बहुत से स्टेशनों के फ़ोटो लिये गये थे। बीच में बेहद ही शानदार नजारे देखने को मिल जाते थे। नदी नाले तो हर कुछ किमी बाद आते ही रहते थे। कभी-कभार बड़ी नदी भी आ जाती थी। ट्रेन में बैठकर नदियों का पुल पार करने में बड़ा आनन्द आता है। जब ट्रेन नदियों के लम्बे पुल को पार करती हुई चलती है तो ऐसा लगता है कि पुल ट्रेन का वजन सहन नहीं कर पायेगा। ट्रेन में सामान बेचने वाले इतने ज्यादा थे कि प्रत्येक 5 मिनट में कोई ना कोई टपका ही रहता था, उन्हे देख लगता था इस ट्रेन में लोग यात्रा करने नहीं सिर्फ़ सामान खरीदने के लिये ही बैठे है। 

पश्चिम बंगाल पार करने के बाद दोपहर तक बिहार की धरती पर हमारी ट्रेन पहुँच चुकी थी। गया नामक स्टेशन देखकर याद आया कि यहाँ बताते है कि लोग अपने पूर्वजों के जन्म मरण से छूटकारा दिलाने के लिये यहाँ आते है। जहाँ देखो पण्ड़ों का मायाजाल बिखरा हुआ है। मैं सोच रहा था कि पन्ड़ों की झलक ट्रेन से दिखायी दे जाती होगी लेकिन नहीं ऐसा कुछ नहीं हो पाया। बिहार आरम्भ होने के बाद एक बात हो गयी थी कि अब तक हम शाँति से बैठकर यात्रा कर रहे थे। लेकिन बिहार के एक स्टेशन पर भीड का ऐसा रेला आया कि मेरी साइड वाली सीट पर मुझे मिलाकर 5 लोग बैठ गये थे। भीड की यह मारामारी 3-4 घन्टे तक चलती रही। दिन में वैसे भी ज्यादातर समय बैठकर बाहर की झलक देखने में बीत जाता है यदि यही भीड रात को हो जाये तो फ़िर तो रात का सत्यानाश होना तय है। ऐसा एक बार तमिलनाडु के मदुरै में हो चुका है।

जब ट्रेन ने बिहार पार कर उत्तप्रदेश में प्रवेश किया तो पता नहीं लग पाता है क्योंकि बिहार व पूर्वी उत्तर प्रवेश के लोगों का रहन-सहन व पहनावा काफ़ी मिलता जुलता है। बिहार का अंतिम स्टेशन भाबुआ रोड़ है इसके बाद मुगलसराय आ जाता है। शाम को अंधेरा होने से पहले ही ट्रेन मुगलसराय नामक जंक्सन पर पहुँच गयी थी। मेरा पूरे दिन कुछ खाने का मन नहीं किया था। यहाँ आकर दो समोसे लिये उन्हे खाकर अपना पेट का स्टाक पूरा हो गया। अब सुबह दिल्ली घर जाकर कुछ खाया पिया जायेगा। मुगलसराय से चलने के बाद मिर्जापुर आता है। इन दोनों स्टेशनों के मध्य चन्द्रकाता-क्रूर सिंह वाला नाम भी दिखायी देता है। आऊँगा कभी इसे देखने भी। वैसे यहाँ तक आते-आते अंधेरा हो गया था। अंधेरे में ज्यादा देर खिड़की पर खड़े होने से क्या होता? मैंने अपनी सीट पर आकर सोने की तैयारी की,

सुबह दिल्ली तक पहुँचते-पहुँचते ट्रेन दो घन्टे देरी से चल रही थी। शाहदरा उतरने की सोची थी लेकिन ट्रेन रुकी नहीं, इसलिये पुरानी दिल्ली लोहे के पुल से पहले पुराने सीलमपुर में सिगनल ना मिलने से ट्रेन रुकी तो अपुन उतरकर अपने घर के लिये निकल लिये। ऑटो में बैठकर आधा घन्टे में अपने घर। इस तरह इस यात्रा का समापन हुआ। (समाप्त)

भुवनेश्वर-पुरी-चिल्का झील-कोणार्क की यात्रा के सभी लिंक नीचे दिये गये है।






















6 टिप्‍पणियां:

  1. राम राम जी, संदीप जी आप भी अब रेल यात्रा के एक्सपर्ट हो गए हो, बधाई.....बहुत अच्छा यात्रा वृत्तान्त....वन्देमातरम...

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  2. अरे वाह जाट देवता इतनी लम्बी यात्रा का सहयात्री हमने भी बना लिया

    बढ़िया मिजाज़ की पोस्ट

    शुभ प्रभात स्वर्णिम प्रभात

    जप नामो नामो ॐ नामो नामो

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  3. बहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट पर आ पाया हूँ...काफी यात्राएं कर डालीं हैं आपने...कल रविवार को फुर्सत में पढूंगा...

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  4. बहुत ही सुन्दर यात्रा, इसी ट्रेन से हम घर जाया करते थे।

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