UJJAIN-JABALPUR-AMARKANTAK-PURI-CHILKA-24 SANDEEP PANWAR
अमरकंटक यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
18-अमरकंटक की एक निराली सुबह
19-अमरकंटक का हजारों वर्ष प्राचीन मन्दिर समूह
20-अमरकंटक नर्मदा नदी का उदगम स्थल
21-अमरकंटक के मेले व स्नान घाट की सम्पूर्ण झलक
22- अमरकंटक के कपिल मुनि जल प्रपात के दर्शन व स्नान के बाद एक प्रशंसक से मुलाकात
23- अमरकंटक (पेन्ड्रारोड़) से भुवनेश्वर ट्रेन यात्रा में चोर ने मेरा बैग खंगाल ड़ाला।
जब मैं भुवनेश्वर स्टेशन पर ट्रेन से उतरा तो दिन का उजाला चारों ओर फ़ैल चुका था। अपनी साइड़ यानि जिस दिशा में ट्रेन जा रही थी उसके उल्टे हाथ वाली दिशा में स्टेशन से बाहर निकलने का मार्ग दिखायी दिया। स्टेशन से बाहर निकल कर सबसे पहले कुछ दूरी पर स्थित मुख्य सड़क पर जा पहुँचा। यहाँ से लिंगराज मन्दिर कम से कम 4 किमी दूरी पर तो रहा होगा। सुबह का समय होने के कारण स्थानीय लोग-बाग टहलने में लगे हुए थे। मैंने आटो की प्रतीक्षा में वहाँ रुककर समय नष्ट करना ठीक नहीं समझा, इसलिये पैदल ही लिंगराज मन्दिर की ओर चलता रहा। कोई एक किमी आगे जाने के बाद एक ऑटो वाले मुझे देखकर पूछा ??/.,<. मतलब उसने उडिया भाषा में कुछ बोला था लेकिन मेरे पल्ले कुछ नी पड़ा तो मैंने कहा लिंग राज मन्दिर। उसने बैठने का इशारा किया तो मैंने कहा देख भाई मैं पहली बार यहाँ आया हूँ तुम किराया कितना लोगे यह पहले से ही बता दो कही वहाँ जाकर तुम 50 माँगों और मैं 10 रुपये देने लगूँ तो पंगा हो जायेगा। उसने कुछ सोचकर कहा 20 रुपये। तीन किमी के बीस रुपये एकदम ठीक भाड़ा बताया। चलो भाई लिंगराज मन्दिर दिखा दो।
ऑटो वाला कुछ दूर तक तो मुख्य मार्ग पर चला, उसके बाद उसने मुख्य मार्ग से हटते हुए कालोनी की गलियों जैसी सड़क पर चलना आरम्भ कर दिया। मैंने नेट पर जो नक्शा समझा था उस लिहाज से वह सही जा रहा था क्योंकि लिंगराज मन्दिर मुख्य सड़क से लगभग 600-700 मीटर अलग हटकर बना हुआ है। थोड़ी देर में ही उसने सुबह के समय खाली मार्ग होने का फ़ायदा उठाकर तीन किमी फ़टाफ़ट तय कर लिये। दूर से मन्दिर का शिखर दिखायी देने लगा था। उसने मुझे बताया भी था सामने जो चोटी दिख रही है वही मन्दिर का शिखर है। मन्दिर के पास जाकर उसने अपना ऑटो रोक दिया और बोला कि बस यहाँ से आगे ऑटो ले जाना मना है। लोग झगड़ा करते है। वैसे भी मन्दिर की चारदीवारी के साथ ही मैं खड़ा हुआ था। मन्दिर का प्रवेश मार्ग भी मुश्किल से 100 मीटर भी नहीं होगा।
ऑटो वाला अपने बीस रुपये लेकर वापिस उसी मार्ग से चला गया जिससे वह मुझे लेकर आया था। मैंने मन्दिर की ओर बढ़ना शुरु ही किया था कि एक दुकान वाला बोला मन्दिर। हाँ प्रसाद लेकर नहीं जाओगे? क्यों प्रसाद लेकर जाना जरुरी है क्या? मेरी इस बात ने उस दुकानदार का दिल तोड़ दिया। अपनी आदत नहीं है कि मन्दिरों में जाकर प्रसाद चढ़ाया जाये। भगवान भाव का भूखा है प्रसाद के भूखे तो हम लोग है। मन्दिर के सामने पहुँचते ही एक नारियल वाला पीछे पड़ गया कि शिवजी पर नारियल चढाओ बड़ा पुण्य़ मिलेगा? अच्छा नारियल चढ़ाने से पुण्य मिलता है ना चाहिए पुण्य़, हमारे पास पहले से बहुत सारा पुन्य़ जमा है। वो बेचारा भी सोचता होगा कि कैसा इन्सान है जो कुछ खरीदता ही नहीं।
मन्दिर के प्रवेश द्धार के सामने 10-15 लोग खड़े हुए थे। मन्दिर का मुख्य दरवाजा अभी बन्द था। पता लगा कि मन्दिर सुबह 06:30 मिनट पर आम लोगों के लिये खुलता है अभी 10-15 मिनट बाकि थे। मन्दिर के सामने बनी बैठने की जगह पर मैंने अपना डेरा ड़ाल दिया था। धीरे-धीरे लाइन लम्बी होती जा रही थी। मुझे लाइन लम्बी होने से कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि मुझे पता था कि मन्दिर में कितनी भी लम्बी लाईन लगा लो कितना भी समय बर्बाद कर लोग आखिरकार 5-10 सेकिंड़ की झलक मिलती है जिसमें मुख्य मूर्ति देख सकते हो।
जब मैं बैठा हुआ था तो मेरे पास दो तीन स्थानीय औरते भी आकर बैठ गयी। उनके पास टोकरी थी जिसमें फ़ल-फ़ूल रखे हुए थे एक साँड़ फ़ल देखकर उनके पास आ धमका। साँड को अचानक सामने देखकर मेरी भी हालत देखने लायक थी। लेकिन साँड़ किसी को टक्कर मारने न्हीं आया था उसने उन औरतों की टोकरी में रखे फ़ल चट कर दिये। औरते साँड़ से ड़रकर पहले ही भाग चुकी थी। साँड़ और जाट इन दोनों से सबको ड़र लगता है। क्या यह सही बात है? साँड़ फ़ल खाकर वहाँ से चलता बना। उन औरतों ने उस साँड़ को प्रणाम किया। जबकि मैं वही बैठा सब कुछ देखता रहा। उन औरते के चेहरे के भाव देखकर लग रहा था कि उन्हे जरा सा भी मलाल नहीं है कि एक साँड उनके फ़ल खा गया जो वह भगवान के मन्दिर में अर्पण करने के लिये लायी थी।
जैसे ही मन्दिर में अन्दर जाने के लिये दरवाजा खोला गया तो लाईन में लगे लोग ऐसे टूट पड़े जैसे अन्दर जाकर कोई वर्ल्ड़ रिकार्ड़ कायम कर देंगे। मुश्किल से दो-तीन मिनट में ही सारी भीड़ मन्दिर के अन्दर समाहित हो गयी। अब मेरे लिये मन्दिर में जाने का मार्ग प्रशस्त हो चुका था। मैंने अपना बैग उठाया और सीधा मन्दिर में जा घुसा। अरे हाँ, सभी लोग नंगे पैर अन्दर जा रहे थे इसलिये उन्हे देखकर मैंने अपनी चप्पले अपने बैग में ही समा ली थी। मैं भी नंगे पैर हो चुका था। मेरा पहला लक्ष्य सम्पूर्ण मन्दिर को बाहर से अच्छी तरह देखना था। उसके बाद ही मुख्य मन्दिर तक जाने की इच्छा थी।
एक कोने से लेकर मैंने मन्दिर में क्या-क्या देखा यह सब आपको दिखाने के लिये उनके फ़ोटो भी लगाये गये है। इस यात्रा में मेरे पास कैमरा नहीं था सारे फ़ोटो 5 MP के मोबाइल से ही लिये गये है। मैंने जी भर कर मन्दिर को देखा था। उसके बाद मुख्य मन्दिर देखने का क्रम आया तो मैं वहाँ भी चला गया। आधा घन्टा मैं वहाँ रहा था लेकिन भीड़ अब तक कम नहीं हुई थी। कुछ मिनटों में अपुन का नम्बर भी दर्शन के लिये आ ही गया था। मैंने भगवान को राम-राम किया और मुख्य मन्दिर से बाहर चला आया।
अब कुछ जानकारी मन्दिर के बारे में भी पढ़ लो कि इस मन्दिर का वर्तमान ढांचा भगवान त्रिभुवनेश्वर को समर्पित है और इसका निर्माण सन 1090-1104 की अवधि में किया गया था। वैसे ललाटेडुकेशरी ने 617-657 की अवधि में इसे बनवाया था ऐसी जानकारी भी कुछ ग्रन्थ में मिलती रही है। इसकी ऊँचाई 180 फ़ुट बतायी जाती है। इस मन्दिर में शिव मूर्ति नहीं है इसमें आधी मूर्ति शिव की व आधी मूर्ति विष्णु भगवान की है इस तरह दोनों के रुप को आधा-आधा मिलाकर पूर्ण रुप दिया गया है। इन दोनों को हरि और हर कहा गया है। मन्दिर का स्थापत्य व शिल्प देखने लायक है परिसर में बने सैकड़ों मन्दिर पर की गयी कलाकारों की मेहनत देखते ही बनती है। जबलपुर के भेड़ाघाट की तरह यहाँ भी मात्र 16 किमी दूर 64 योगिनी मन्दिर बना हुआ है। नजदीक ही खन्ड़गिरी-उदयगिरी की पहाडियों में बनी चट्टानों को खोदकर बनायी 18 जैन गुफ़ाएँ देखने लायक है। उन गुफ़ाओं में हाथीगुफ़ा और रानी गुफ़ा जरुर देखकर आनी चाहिए, लेकिन मैं इस यात्रा में स्वयं नहीं जा पाया। कोई बात दूसरी व सपरिवार यात्रा में उन्हे भी लपेटा जायेगा।
मुख्य मन्दिर से बाहर आते समय देखा कि मुख्य दरवाजे के पास मन्दिर की चारदीवारी के अन्दर ही एक जगह कपड़े पर बहुत सारे नोट और सिक्के ड़ाल कर रखे हुए है। इस तरह लोगों को रुपये ड़ालने के लिये उकसाने का काम किया जाता है। क्या फ़र्क है इनमें और भिखारियों में? अगर मैंने इसका फ़ोटो ना लिया होता तो मुझे याद भी नहीं रहा होता कि जहाँ नोट रखे गये थे उसका नाम नागराज मन्दिर है। मैंने अपना मोबाइल निकाल कर इसका एक फ़ोटो ही लिया था कि मन्दिर के अन्दर इस रुपये वाले मन्दिर के सामने के एक अन्य मन्दिर से एक पुजारी चिल्लाया। ऐ NO PHOTO अच्छा नहीं लेता। मैंने अपना मोबाइल अपनी जेब में ड़ाल लिया था अगर वे मेरा मोबाइल देखते तो उन्हे पता लग जाता कि मैंने इसका फ़ोटो पहले ही ले लिया है। लेकिन उनके पास उस समय ग्राहक (भक्त) आये हुए थे। वे ग्राहकों से सौदा तय करने में व्यस्त थे। चलिये इनकी दुकानदारी से मुझे क्या मतलब? अपुन आगे चलते है।
मन्दिर से बाहर आने के बाद मैं एक नारियल वाले के पास पहुँचा मैंने उससे एक नारियल लिया। नारियल वाला सोच रहा था कि यह बन्दा जाते समय तो नारियल लेकर नहीं गया था लगता है कि मन्दिर के अन्दर इसने किसी को नारियल चढ़ाते देखा होगा तभी यह दुबारा नारियल लेने आया है। मैंने उससे कहा अरे भाई इसे तोड़ने का औजार मिलेगा क्या? क्या मन्दिर में नहीं चढ़ाओगे? नहीं भगवान को नारियल की आवश्यकता ही नहीं है यह सब वस्तुएँ तो भगवान ने हम मानवों के लिये बनाई है। उसने मेरा नारियल तोड़ दिया, वही से उसकी कच्ची गिरी खाता हुआ आगे चल दिया। नारियल वाला भी सोचता होगा कैसे-कैसे लोग है? दुनिया में। दुनिया क्या कहती है? उससे अपुन को कोई लेना देना नहीं है।
मन्दिर से मुख्य सड़क की दूरी मुश्किल से पौना किमी रही होगी। मैंने धीरे-धीरे पैदल चलते हुए मुख्य सड़क तक का फ़ासला तय कर लिया था। इस दूरी को तय करते हुए बीच में कई अन्य स्थानीय छोटे-मोटे मन्दिर और भी दिखायी दिये थे। लेकिन इतने मन्दिर देखकर अब छोटे-मोटे मन्दिर देखने की इच्छा ही नहीं बची थी। लिंगराज मन्दिर के मुख्य दरवाजे के ठीक सामने वाली सड़क उस मार्ग में मिल जाती है जहाँ से सीधे पुरी या कोणार्क जाने के लिये बस मिल जाती है। मैं सड़क पर जाकर बस की प्रतीक्षा करने लगा। पहले कोणार्क जाऊँ या पुरी यह मन में चल रहा था। सोचा जो बस पहले मिल जायेगी उसी में आगे की यात्रा की जाये। (यह यात्रा अभी जारी है)
जबलपुर यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
अमरकंटक यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
18-अमरकंटक की एक निराली सुबह
19-अमरकंटक का हजारों वर्ष प्राचीन मन्दिर समूह
20-अमरकंटक नर्मदा नदी का उदगम स्थल
21-अमरकंटक के मेले व स्नान घाट की सम्पूर्ण झलक
22- अमरकंटक के कपिल मुनि जल प्रपात के दर्शन व स्नान के बाद एक प्रशंसक से मुलाकात
23- अमरकंटक (पेन्ड्रारोड़) से भुवनेश्वर ट्रेन यात्रा में चोर ने मेरा बैग खंगाल ड़ाला।
भुवनेश्वर-पुरी-चिल्का झील-कोणार्क की यात्रा के सभी लिंक नीचे दिये गये है।
वाह बहुत बड़े कलेवर की पोस्ट व्यंग्य भी वृत्तांत भी। चप्पल जूता गाय गोबर मंदिर एक साथ एक जगह पर देख हिन्दुस्तान याद आ गया। यहाँ भी हिन्दू टे- म्पिल हैं लेकिन यहाँ मजमा नहीं लगता न भिखमंगी होती है।
जवाब देंहटाएंवीरूभाई कैंटन(मिशिगन )
वाह
जवाब देंहटाएंसांड ने फल खा लिए फिर भी महिलाओं ने उसे नमस्कार किया ...
"साँड़ और जाट इन दोनों से सबको ड़र लगता है।" सँदीप भाई जी ऐसा तो कुछ नही है आप भी मनोरंजन के लिए कुछ भी लिख देते हो।
जवाब देंहटाएंहजार वर्षों से भी अधिक का इतिहास..सुन्दर चित्र, सुन्दर वर्णन।
जवाब देंहटाएंआज की बुलेटिन विश्व साक्षरता दिवस, भूपेन हजारिका और ब्लॉग बुलेटिन में आपकी इस पोस्ट को भी शामिल किया गया है। सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंरोचक एवं महत्वपूर्ण जानकारी
जवाब देंहटाएं3 taarikh ko darshan kar ke lauta hoon, ye details padh kar achchha laga... !!
जवाब देंहटाएंwaise Jaat bhai itni photos kaise le li aapne,
hame to camera le kar jaane hi nahi diya ....
Sir puri jate samay 2012 me meri bhi mobile Bhubaneswar station k baad chori ho gai thi bhut muskilo se collage k paise bacha k phon li thi ... waha chor kuch jyada hi active h.
जवाब देंहटाएंSir aap chattisgarh ka bhi tour kare...
जवाब देंहटाएंApka anubhav hamare bahut kam me aata h.