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शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

अमरकंटक की एक निराली सुबह की झलक A rare morning in Amarkantak

UJJAIN-JABALPUR-AMARKANTAK-PURI-CHILKA-18                              SANDEEP PANWAR
हमारी बस पेन्ड़्रा रोड़ से चलते समय कुछ दूरी तक तो शहरी आबादी से होकर चलती रही, जिस कारण बिजली वाले बल्बों के उजाले के कारण अंधेरे का पता ही नहीं लग पाया था कि बस कहाँ-कहाँ से होकर आगे बढ़ती रही। मार्ग में अंधेरा भले ही था लेकिन जब बस बलखाती नागिन की तरह झूमती हुई आगे बढ़ने लगी तो समझ में आने लगा कि बस किसी पहाड़ पर चढ़ने लगी है। जब बस मुड़ती थी तो उसकी आगे वाली हैड़ लाईट की रोशनी में इतना नजर  रहा था कि जिससे यह पता चलने लगा था कि अब सीधी सड़क नहीं है पहाड़ आरम्भ हो गये है। अगर सीधी सड़क पर इस तरह गाडी बलखाती हुई चलने लगे तो सड़क पर चलने वाले आम लोग सड़क छोड़ कर भाग खड़े होंगे।



जब पहाड़ी मार्ग समाप्त हुआ और हमारी बस एक जगह रुकी और सवारियों में हलचल हुई कि अमरकंटक गया है तो मैंने भी सीट छोड़ने में ही भलाई समझी। जिस बस में बैठकर मैं यहाँ तक आया था वही बस आगे छतीसगढ़ में कही जा रही थी। बस ने सवारियाँ उतारने चढ़ाने के बाद फ़िर से आगे की राह पकड़ ली। मैं अमरकंटक के बस स्थानक पर भले ही पहुँच गया था लेकिन अंधेरा होने के कारण वहाँ कुछ दिखायी ही नहीं दे रहा था। बस के शीशे बन्द थे जिस कारण बस की यात्रा करते समय ठन्ड़ महसूस नहीं हुई। बस से बाहर आते ही अमरकंटक की गुलाबी ठन्ड़ ने अपना असर दिखा दिया था। 

ठन्ड़ लगने के कारण मैं बस स्थानक में उजाला होने तक रुकने की सोचकर अन्दर प्रवेश किया लेकिन यह क्या गजब? अन्दर जाने के बाद जो हालत मैंने वहाँ की देखी तो मेरे होश ही उड़ गये। बस स्थानक की छत भले ही पक्की थी लेकिन उसकी दीवारे एकदम खुली पड़ी थी या यू कहे कि दीवार थी ही नहीं तो ज्यादा उपयुक्त शब्द रहेगा। सिर्फ़ कंकरीट के पिलर के सहारे बस स्थानक की छत टिकी हुई थी। उस बिना दीवार वाले विशाल कमरे में सैकडों लोग जहाँ-तहाँ पड़कर सोने में लगे हुए थे। उनमें से कुछ के पास ठन्ड़ से बचने के लिय पर्याप्त कपड़े ही नहीं थे। मैंने ठन्ड़ से बचने के लिये अपने थैले से अपनी गर्म चददर निकाल ली, मेरी यह चददर बीते 15 साल से मेरे साथ घुमक्कड़ी में साथ निभाती रही है। 

इस यात्रा में मेरे बैग को भी यात्रा करते हुए पूरे 22 वर्ष पूरे हो गये है मेरे इस बैग ने सड़क+रेल+बाइक+पैदल कुल मिलाकर दो लाख से ज्यादा की यात्रा पूरी कर ली है। इस यात्रा के बाद मैंने अपने इस बैग को अवकाश देने का फ़ैसला कर लिया है। मेरा यह बैग अब मेरे पलंग में सुरक्षित रखा जायेगा, इसकी जगह पर नया बैग जुलाई माह 2013 में ले लिया गया है। पुराना वाले बैग को अवकाश प्रदान कर दिया गया है। पुराने कैमरे को तो बहुत पहले ही रिटायर कर दिया गया था। अब तक आसान समझी जाने वाली अधिकतर पद यात्राएँ भी पूरी हो चुकी है आने वाले समय में अधिकतर पहाड़ी पैदल यात्राओं का लक्ष्य कम से कम 12000 फ़ुट से अधिक ऊँचाई वाले स्थल रहेंगे।  

घन्टा भर बस अड़ड़े में प्रतीक्षा करने के उपराँत आकाश में उजाला होने लगा। जैसे ही आसपास कुछ दिखने लायक उजाला हुआ तो मैंने एक बार फ़िर अपना बैग कंधे पर लाधा और आगे की यात्रा पर दनदनाता हुआ चल दिया। अमरकंटक का बस अड़ड़ा काफ़ी बड़ा है। बस अड़्ड़े से आगे सीधे हाथ चलते ही मुश्किल से 200-300 मीटर दूर ही गया था कि एक चौराहा गया। इस चौराहे से उल्टे हाथ जाने वाला मार्ग अमरकंटक नर्मदा नदी के उदगम स्थल के लिये जाता है जबकि नाक की सीध वाला मार्ग छतीसगढ़ कपिल धारा नामक झरने घाटी के लिये जाता है सामने वाले मार्ग से ही छतीसगढ़ जाने वाला मार्ग भी एक-दो किमी जाने के बाद उल्टे हाथ जंगलों में से होते हुए निकल जाता है। अब बच सीधे हाथ वाला मार्ग वो वही घूम के बस अड़ड़े पर आकर मिल जाता है। या कही आगे जाता होगा मैं कह नहीं सकता!

चौराहे से आगे वाहन जाने से रोकने के लिये पुलिस ने बैरियर/अवरोधक लगाये हुए थे जिससे कोई वाहन आगे नहीं जा रहा था। पैदल यात्री के आने-जाने पर रोक नहीं नहीं थी जिससे अपुन भी आगे बेखटके बढ़ते चले गये। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता जा रहा था अमरकंटक की खूबसूरती मेरी आँखों के आगे आती जा रही थी। जिन लोगों को अपने घर जाने की जल्दी थी सिर्फ़ वही लोग सड़कों पर आते-जाते मिल रहे थे अन्यथा सड़क किनारे बनी दुकानों छप्परों में लोग ठन्ड़ के कारण दुबके पड़े थे। अमरकंटक पहुँचकर मेरा पहला लक्ष्य नर्मदा उदगम स्थल था। इसलिये मैं सीधा नर्मदा उदगम के लिये चलता चला गया। कोई दो किमी चलने के बाद सड़क एक टी बिन्दु पर समाप्त होकर दो भागों में विभाजित हो जाती है। यहाँ से मुझे सीधे हाथ जाना पड़ा। इस मार्ग पर आगे बढ़ते हुए एक जगह एक नौटंकी के कारण लगी भयंकर भीड़ से बचते हुए आगे निकलना पड़ा। कल ही महाशिवरात्रि का मेला समाप्त हुआ है इस कारण ग्रामीण अंचल के ठेट देशी लोग अभी वही जमें हुए थे। 

नौटंकी वाले स्थल से आगे निकलने के लिये सड़क छोड़नी पड़ी। सड़क पर आगे निकलने के लिये दुकानों के पीछे बनी खाली जगहों से होकर आगे जाना पड़ा। अब तक आकाश में काफ़ी उजाला हो चुका था सूर्य महाराज ने भी आकाश में अपनी लाली बिखेरनी आरम्भ कर दी थी। मैं नर्मदा नदी के उदगम स्थल वाले मन्दिर के सामने पहुँचा ही था कि मेरी नजर वही सामने एक पहाड़ी पर गयी। मैं नर्मदा स्थल को बाद में देखने की सोच धीरे-धीरे उस पहाड़ी पर जा पहुँचा। पहाड़ी टीले पर पहुँचने के बाद मैंने मध्यप्रदेश के असली ग्रामीण जीवन की दुर्लभ झलक देखी। वहाँ पर लोग रात्रि की ठन्ड़ से बचने के लिये आग जलाकर डेरा जमाये बैठे मिले। चूंकि दिन निकल चुका था इसलिये अधिकतर लोग आग को छोड़कर अपना सामान समेटने में लगे हुए थे।

यहाँ इस टीले पर कई बड़े-बड़े सैकडों वर्ष पुराने पुराने कई पेड़ भी दिखायी दिये। इन्ही में से एक पेड़ के नीचे जलती लावारिस आग के छोटे से ढेर के पास बैठकर मैंने भी अपनी सर्दी दूर की थी। पेड़ के नीचे पत्ते काफ़ी मात्रा में बिखरे हुए थे जिसको उठाकर मैं उस बुझती आगे में ड़ालता जा रहा था। जहाँ मैं आराम से बैठा हुआ था वहाँ से सूर्य देवता जमीन से निकलते हुए साफ़ दिखायी दे रहे थे। मैंने सूर्योदय के कई फ़ोटो लिये। सूर्य की रोशनी चारों ओर छाने के बाद मैंने अपनी चददर को बैग में वापिस रख दिया। इसके साथ ही अपना बैग उठाकर उस टीले से दिखायी दे रही आसपास की जगह देखने की शुरुआत कर दी। सबसे पहले उस टीले का एक लम्बा चक्कर लगाया गया। उसके बाद टील के सामने दिखायी दे रहे एक मन्दिर के सामने पहुँचा।

मन्दिर में जाने की कोई इच्छा नहीं हुई अत: मन्दिर के दरवाजे से ही वापिस लौट चला। यहाँ एक दीवार के पीछे सैकड़ों हजारों साल पुराने मन्दिर के दर्शन हो रहे थे। सबसे पहले इस विशाल पुराने मन्दिर को देखने की इच्छा उत्पन्न हुई। इसे देखने के लिये वापिस नर्मदा उदगम स्थल की ओर आना था। यहाँ आते समय एक दुकान पर गर्मा-गर्म पौहा देखकर खाने का मन कर आया। मन्दिर को छोड़कर पहले गर्मागर्म पौहा की एक प्लेट खाने के लिये ले ली गयी। दुकान वाले ने उसके साथ एक कप चाय भी दे दी। मैंने कहा अरे भाई चाय तो मैंने बोली ही नहीं थी। वह बोला "बिना चाय के पौहा कैसे खाओगे?" मुझे देखते जाओ, फ़िर कहना कि कैसे खाओगे? मैंने 4-5 मिनट में ही पौहा की प्लेट सफ़ाचट कर दी। पौहे वाले को उसके पैसे चुका कर आगे बढ़ चला।

पौहा खाने के उपराँत टीले से नीचे उतरता हुई मन्दिर के मुख्य दरवाजे की ओर बढ़ना जारी रखा। मुख्य दरवाजे के पास पहुँचकर देखा कि वहाँ तो अन्दर जाने का अभी समय ही नहीं हुआ है। मैंने उस मन्दिर के गार्ड़ से पूछा "क्यों भाई मन्दिर किस समय खुलेगा और टिकट कहाँ से मिलेगा?  उसने कहा कि मे्ले की अवधि के दौरान यहाँ टिकट नहीं लगता है साथ ही समय पर भी कोई पाबन्दी नहीं होती है बस रोशनी होनी चाहिए। मैंने वहाँ फ़ोटो लेने के बारे में पता किया तो कहा कि यहाँ फ़ोटो लेने पर भी कोई रोक नहीं है। चलिय अगले लेख में इसी पुराने लेकिन शानदार मन्दिर के सम्पूर्ण दर्शन कराये जा रहे है। (अमरकंटक यात्रा अभी जारी है)


जबलपुर यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।


अमरकंटक यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।

18-अमरकंटक की एक निराली सुबह
19-अमरकंटक का हजारों वर्ष प्राचीन मन्दिर समूह
20-अमरकंटक नर्मदा नदी का उदगम स्थल
21-अमरकंटक के मेले व स्नान घाट की सम्पूर्ण झलक
22- अमरकंटक के कपिल मुनि जल प्रपात के दर्शन व स्नान के बाद एक प्रशंसक से मुलाकात
23- अमरकंटक (पेन्ड्रारोड़) से भुवनेशवर ट्रेन यात्रा में चोर ने मेरा बैग खंगाल ड़ाला।














7 टिप्‍पणियां:

  1. पुरा मध्यपरदेश छान दिया आपने सन्दीप भाई।

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  2. "Wah kitna aacha hai. aaj es googal ki vajah se bache , kitne aasani se apna work pura Kar rhe hai."so,thanks googal."!

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