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गुरुवार, 22 अगस्त 2013

Dhuandhaar water fall to 64 Yogini Temple धुआँधार प्रपात से चौसट योगिनी मन्दिर तक

UJJAIN-JABALPUR-AMARKANTAK-PURI-CHILKA-14                              SANDEEP PANWAR
धुआँधार जलप्रपात देखकर व नहाने के उपराँत मैंने नर्मदा के साथ-साथ नदी के जल की धारा के विपरीत दिशा में चलने का फ़ैसला कर लिया। सुबह से यहाँ बैठे हुए कई घन्टे बीत चुके थे। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता जा रहा था नर्मदा भी उछल कूद मचाती हुई मेरी ओर चली आ रही थी। मैं नर्मदा के पानी से दूरी बनाकर चल रहा था अन्यथा नर्मदा मुझे पकड़ लेती। यहाँ नदी की धारा का बहाव काफ़ी तेज है जिस कारण पानी काफ़ी तेजी से नीचे की ओर भागता चला जाता है। पानी तेजी से लुढ़कने के कारण नदी में पानी काफ़ी धमालचौकड़ी मचाता हुआ उछल-उछल कर आगे चलता रहता है। पानी उछलने का मुख्य कारण तेज ढ़लान व नदी के बीच में बड़े पत्थर का होना है। थोड़ा आगे जाने पर एक मैदान आता है जहाँ पर कुछ लोग नहा धोकर अपने कपड़े सुखाने में लगे पड़े थे। यही नदी की धारा के साथ किनारे पर पड़े हुए पत्थरों में बने डिजाइन को देखकर मुझे कुछ मिनट वही ठहरना पड़ा, क्योंकि नदी किनारे पड़े पत्थरों पर वैसे ही आकृति बनी हुई थी जैसी आकृति समुन्द्र किनारे के खारे पानी की मार के कारण वहाँ की चट्टानों की हो जाती है।


लगभग पौन किमी आगे बढ़ने पर मुझे उल्टे हाथ एक पहाड़ी पर चढ़ने की पगड़न्ड़ी मिल गयी। मैंने नदी किनारे चलना छोड़ कर इस पहाड़ी पर चढ़ना आरम्भ कर किया। यह पहाड़ी बहुत ज्यादा ऊँची भी नहीं है मुश्किल से 100 मीटर की चढ़ाई रही होगी कि पहाड़ी समाप्त हो गयी। मैं तो सोच रहा था कि ऊपर जाने पर इससे भी ज्यादा ऊँचा पहाड़ मिल जायेगा लेकिन कोई बात नहीं, यहाँ इस ऊँचाई से भी नर्मदा नदी का बहाव काफ़ी दूर तक दिखायी देता था। ऊँचाई पर आने का यही तो लाभ है कि हम काफ़ी दूर तक की वस्तुएँ आसानी से देख लेने में सक्षम हो पाते है। उस पहाड़ी के ऊपर देखने लायक वैसे तो कुछ खास नहीं मिला, फ़िर भी मैंने समय बिताने के इरादे से आसपास खोजबीन करनी आरम्भ कर दी। 

उस खोजबीन का लाभ यह हुआ कि मुझे वहाँ अमरुद का एक छोटा सा बाग दिखायी दे गया। घूमने के कम व अमरुद ढ़ूंढ़ने के ज्यादा इरादे से मैंने बाग में प्रवेश किया। इस बाग में मुश्किल से 50 पेड़ ही रहे होंगे। जब बाग में मुझे अमरुद तो अमरुद अमरुद का बच्चा भी दिखाई नहीं दिया तो थोड़ी देर में बाग को देखने के उपराँत मैंने आसपास की अन्य जगह देखने की सोची। वहाँ ऊँचाई पर एक हरा-भरा मैदान दिखायी दिया। इस मैदान में घुसने से रोकने के लिये उसके चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगायी गयी है। मैंने उस बाड़ से अपने आप को बचाते हुए उस मैदान में प्रवेश किया। मैदान काफ़ी अच्छा था लेकिन बहुत छोटा था मैं मैदान में अच्छी तरह घुसा ही था कि मैदान समाप्त भी हो गया। इस छोटे से मैदान के एक कोने से एक घर नुमा इमारत दिखायी दे रही थी इस इमारत को देखने से लग रहा था कि यह किसी का घर ना होकर सामूहिक आवास जैसा कुछ है। मध्य प्रदेश में इस प्रकार के छात्रावास मैंने खरगोन में भी देखे है।

पहाड़ के शीर्ष पर देखने लायक इससे ज्यादा और कुछ नहीं था। यह सब देखकर मैंने वहाँ से वापसी चलने का फ़ैसला किया। धीरे-धीरे वहाँ से नीचे उतरना आरम्भ किया। नीचे उतरते समय पगड़न्ड़ी के ऊपर गिरे एक मोटे से पेड़ के नीचे से झुक कर निकलना पड़ रहा था। पेड़ काफ़ी मोटा था हो सकता है कि किसी ने जानबूझ कर उस पेड़ को काटा हो या पेड़ अपने वजन को ना सम्भाल पाया हो। खैर जो भी हो उससे मुझे क्या? मैं पहाड़ी से नीचे उतर कर फ़िर से नर्मदा के साथ-साथ बहाव की दिशा में चलता रहा। ऊपर से धुआँधार बहुत अच्छा लग रहा था। नीचे आने के बाद ऊपर वाले नजारे समाप्त हो चुके थे। अब काफ़ी समय हो चुका था, सुबह के मुकाबले अब वहाँ काफ़ी रौनक हो चुकी थी।

मैं धीरे-धीरे टहलता हुआ पुन: एक बार फ़िर से धुआँधार के पास आ पहुँचा अबकी बार मुझे यहाँ फ़ोटो लेने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी क्योंकि अपने मतलब के फ़ोटो मैं सुबह ही ले चुका था। यहाँ संगमरमर के पत्थरों से मूर्तियाँ बनाने वाले कारीगर अपना जादू बिखेरने में लगे हुए थे। मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ता कुछ ना कुछ नया अजूबा देखने को मिल जाता था। कोई मूर्ति बनाने में लगा पड़ा था कोई पहले से बनाई हुई मूर्ति को बेचने की फ़िराक में बैठा हुआ था। वे अपनी कारीगरी को आने वाले लोगों को बेचकर अपनी आजीविका चला रहे थे। मैं कही जाता हूँ तो बहुत कम (बेहद जरुरी) खरीदारी करता हूँ कम खरीदारी करने का यही कारण है कि अगर मैं ऐसे ही चीजे खरीदता रहा तो मेरा घर दुकान या संग्रहालय बन सकता है जो मैं नहीं चाहता हूँ।

आप अंदाजा लगा लो कि मैं सन 1991 से घुमक्कड़ी कर रहा हूँ। जिसमें से कई हजार किमी पैदल चल चुका हूँ, अब तक सवा लाख किमी साईकिल चला चुका हूँ। घूमने में केवल 700-750 किमी साईकिल चलायी होगी। अपनी शारीरिक क्षमता बरकरार रखने के लिये साईकिल प्रतिदिन चलाता हूँ। मोटर बाइक घूमने में सिर्फ़ सवा लाख का आकंड़ा पार गयी है। ट्रेन व बस से मैं मजबूरी में ही यात्रा करना पसन्द करता हूँ ट्रेन का आकंड़ा भी अब तक कभी का लाख से ऊपर जा चुका होगा।

नर्मदा नदी Narmada River को माँ का दर्जा प्राप्त है जिस कारण लोग यहाँ आकर हरिद्धार की तरह पुण्य कमाने के इरादे से चले आते है। यही लोग इस पुण्य के नाम पर अपने पुराने कपड़े छोड़ कर गन्दगी भी फ़ैला जाते है। अपने प्रेम सिंह तो यहाँ साथ नहीं थे उनकी भी ऐसी ही आदत है कि वे जिस पवित्र स्थान पर जाते है वहाँ अपना एक कपड़ा जानबूझकर छोड़ आते है। ऐसा अन्धविश्वास किस काम का जो स्थलों पर गन्दगी फ़ैलाता हो। मेरे लिये नर्मदा सिर्फ़ एक नदी है। जो भारत के एक बहुत बड़े इलाके को सिंचाई की जरुरत का पानी उपलब्ध कराती है। पुण्य कमाने वाले लोग ही पवित्र स्थलों पर अत्याचार को बढ़ावा देते है। मैं कभी पुण्य कमाने के इरादे से घूमने नहीं जाता हूँ अपुन को जगह देखने का शौक है अत: उससे किसी का क्या बिगड़ता है?

यहाँ पर बिक रहे सिन्दूर आदि वस्तुओं में मेरी कोई रुचि नहीं थी। मैं यहाँ लगे बाजार को निहारता हुआ आगे बढ़ने लगा कि तभी मेरी नजर एक कटे हुए पेड़ के तने जैसी दिखने वाली वस्तु पर गयी। मैंने उसके बारे में जानना चाहा तो पता लगा कि यह कन्दमूल है। इसे खाकर अयोध्या के राजा रामचन्द्र जी ने अपना वनवास काटा था। क्या इसे खाया जा सकता है हाँ लो, कितने का है? कन्दमूल बेचने वाला बोला दो रुपये का एक पीस और ज्यादा लेने हो तो दस रुपये के छ: पीस मिलेंगे। ठीक है मुझे दस रुपये के दे दो। मैं कन्दमूल के 6-7 पीस शायद उसने 8 दे दिये थे उन्हे लेकर खाता हुआ आगे बढ़ चला। कन्दमूल खाने में ना खटटा था मीठा था। स्वाद की पूछो मत बिल्कुल बेस्वाद था। मुझे कन्दमूल खाते समय लग रहा था कि जैसे मैं कोई कच्चा आलू जैसी चीज खा रहा हूँ।

आगे बढ़ने रहने पर धुआँधार का यह बाजार भी समाप्त हो गया। इस बाजार में जीप व बाइक जैसे वाहन भी खडे हुए थे जिससे यह पता लगता है कि यहाँ किनारे तक वाहन आसानी से आ जाते है। आगे सड़क पर बढ़ते हुए सड़क से हटकर नदी की ओर जाती हुई पक्की सीढियाँ दिखायी दी, मैं उन पक्की सीढियाँ से बढ़ने लगा तो वहाँ झाडियों में कुछ हलचल देखकर रुकना पड़ा। मैं सोच रहा था कि वहाँ कोई जानवर या बन्दर होगा लेकिन हद हो गयी जब मुझे वहाँ पर जवान छोरा-छोरी गुटर गू करते हुए दिखायी दिये। मुझे उनकी इश्कबाजी से कोई वास्ता नहीं था मेरा लक्ष्य पक्की सीढियाँ थी जिनसे होता हुआ मैं ऊपर चढ़ने लगा। ऊपर जाकर वहाँ से नर्मदा नदी का शांत नजारा देखना था।


इन सीढियों ने ऊपर जाने से नर्मदा नदी की धारा का शांत पानी देखना अच्छा लगा। यहाँ नर्मदा काफ़ी शाँत होकर आगे बढ़ती है। थोड़ी देर यहाँ रुकने के उपराँत मैं वापसी उसी मार्ग की ओर चल दिया जो मुझे चौरासी योगिनी मन्दिर की ओर लेकर जाने वाला था। सबसे पहले मैं मुख्य सड़क पर आया ठीक वही जहाँ पर बोर्ड़ लगा था कि वाहन पार्किंग शुल्क 100 रुपये है। मन्दिर अभी पहाड़ी के ऊपर दिख रहा था जो काफ़ी दूर था मैंने सोचा क्यों ना मन्दिर तक पहुँचने के लिये शार्टकट मार दिया जाये, इस सिलसिले में मैंने घूमकर आने वाली सड़क छोड़ दी और पहाड़ी पर सीधा चढ़ने लगा। यही मुझे एक सफ़ेद सुन्दर सा पेड़ दिखायी दिया। शार्टकट तो मैंने लगा दिया था लेकिन उसे पार करने के लिये तारों की बाड़ के ऊपर से कूदना पड़ा। यहाँ मुझे एक मार्ग नीचे जाता हुआ दिखायी दिया, उससे होता हुआ मैं चौरासी योगिनी मन्दिर के ठीक सामने जा पहुँचा। (जबलपुर यात्रा अभी जारी है।)
जबलपुर यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
























5 टिप्‍पणियां:

  1. आपसे ईर्ष्या होती है. कंदमूल हर प्रसिद्ध जगह पर बेचा जाने लगा है, मैंने आज तक नहीं चखा. हिन्दुओं के अन्दर पर्यावरण के प्रति अधिक चेतना नहीं है. पार्किंग की जैसी लूट हिन्दुओं के तीर्थ-स्थलों पर होती है, अन्यत्र कहीं नहीं. इस मामले में सिखों के धर्मस्थल एक मिसाल हैं.

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  2. राम राम जी, कंदमूल तो एक बार हमने भी खाया था. पुणे में साईं मंदिर के पास....वन्देमातरम....

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  3. उस फल को राम फल भी कहते हे मेने भी निलकणठ मनदिर के पास खाया था।सवाद अचछा नही लगा।ऱही बात गनदगी फैलाने की वो लोग कभी नही समझगे की हमारे अंधविसवास के कारण नदी तालाबो का हम शोषण कर रहे है।

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  4. कल कल कल कल बहता जल प्रवाह मन मोह लेता है।

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  5. Bhai Ji Bandar dekhne ke chakkar mein bahut kuch dekh gaye... haha... hahaha...

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