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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

Baniket and Dalhousie बनीखेत व ड़लहौजी

SACH PASS-PANGI VALLEY-02                                                    SANDEEP PANWAR
जालंधर शहर के बाहरी इलाके में खाना खाने के बाद हम चम्बा के लिये चल दिये। यहाँ से पठानकोट की सड़क मार्ग से दूरी लगभग 110 किमी रह जाती है। जिस गति से हम चले आ रहे थे उससे यह दूरी पार करने में लगभग दो घन्टे का समय लगना तय था। ठीक 01:30 मिनट पर हमने जालंधर छोड़ दिया था। दिल्ली से सुबह 04:30 पर हमने आज की बाइक यात्रा की शुरुआत की थी। इस तरह देखा जाये तो दोपहर तक हमने काफ़ी यात्रा तय कर ली थी। दिल्ली से अम्बाला व लुधियाना आते आते तो मौसम ठीक-ठाक ही था लेकिन लुधियाना पार करने के बाद जालंधर आते-आते मौसम भी गर्म होने लग गया था। जब जालंधर से चले तो सूरज महाराज हमारी परीक्षा लेने के लिये सड़क पर ही तैयार खड़े थे।


सड़क की स्थिति बहुत ही शानदार है इसकी जितनी तारीफ़ की जाये, कम ही रहेगी। मेरे साथ विशेष मलिक बैठा हुआ था। उसे तो बाइक चलानी आती ही नहीं है अत: अपुन को यह चिंता ही नहीं थी किसी और से बाइक चलवायी जाये, जबकि साथी बाइकर पल्सर वाले दोनों ही बाइक चलानी जानते थे जिस कारण वे अम्बाला पार करने के बाद हर सौ किली चलते ही बाइक पर अदला-बदली कर लेते थे। इस रूट पर जालंधर से पठानकोट वाले भाग में गाड़ी चलाने में काफ़ी मजा आता है कारण इसमें भीड़ व गाँव बहुत ही कम आते है जिस कारण गाडियाँ बिना धीमी किये लगातार चलती रहती है। मैं ऐसे मार्ग पर टाँगों को राम देने के लिये लैग गार्ड़ पर पैर फ़ैला लेता था।

हम अपनी 60 वाली सुरक्षित गति से बाइक दौड़ाये जा रहे थे कि सड़क के उल्टे हाथ रेलवे लाइन पर एक मालगाड़ी हमारी दिशा में ही आगे जाती हुई दिखायी दी। मन किया कि चलो इस मालगाड़ी की गति को नापते है। मालगाड़ी हमारे से पीछे वाली दिशा से आयी थी और आगे निकलती जा रही थी उसकी गति हमसे थोड़ी तेज थी मालगाड़ी की बराबरी करने के लिये हमें अपनी बाइक 70 किमी/घन्टा पर ले जानी पड़ी। सुबह अम्बाला तक इसी गति से आये थे लेकिन अम्बाला के बाद 60 की गति पर ही चल रहे थे। हम मालगाडी के साथ-साथ 15-20 किमी से भी ज्यादा दूरी तक चलते रहे। आगे चलकर एक शहर आया जहाँ आबादी होने के कारण हमें बाइक धीमी करनी पड़ी और इसी बीच मालगाड़ी भी हमसे आगे निकल गयी।

अभी पठानकोट 30-35 किमी दूर था कि मेरी बाइक में पैट्रोल का रिजर्व लग गया। वैसे बाइक में दो लीटर का रिजर्व रहता है लेकिन हम हिमाचल में ही पेट्रोल लेना चाहते थे। पंजाब में हिमाचल से 5/6 रुपया मंहगा पेट्रोल मिलता है। मेरा अंदाजा था कि बाइक की पेट्रोल टंकी दिल्ली से फ़ुल कराने के बाद पठानकोट अवश्य पार करा देगी। अभी तक हमारी बाइक 460 किमी चल चुकी थी दिल्ली से 800 रुपये में टंकी फ़ुल हो गयी थी। बाइक अभी भी 80 किमी चल सकती थी इसलिये चिंता वाली कोई बात नहीं थी। पठानकोट से पहले एक ढाबे पर रुककर साथियों को चाय पान कराया गया।

गर्मी के कारण बुरा हाल हुआ जा रहा था सड़क पर चलते समय जहाँ भी पेड़ों की छाँव दिखायी देती थी वही बाइक को किनारे से निकालते थे। साथियों के चाय-पान के बाद चलने से पहले हमने वहाँ लगे पानी के पाइप से अपने हाथ-मुँह को अच्छी तरह तर कर लिया था। पानी से तर होने के बाद काफ़ी राहत मिल चुकी थी। पानी से ठन्ड़े होने के बाद हमारी बाइके फ़िर से अपनी मंजिल की ओर दौड़नी आरम्भ हो गयी। पठानकोट से कुछ पहले ही हिमाचल आरम्भ हो जाता है यहाँ हमने एक पेट्रोल पम्प से अपनी बाइक में 200 रुपये का तेल ड़लवाया था। पल्सर वालों की टंकी बड़ी थी उन्हे अभी तेल की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। पठानकोट आने से कुछ पहले ही एक मार्ग सीधे हाथ पर नूरपुर/धर्मशाला/कांगड़ा की ओर जाता है हमने पठाकोट की भीड़ में घुसने से बचने के लिये अपनी बाइके इसी सीधे हाथ वाले मार्ग पर मोड़ ली।

लगभग 14-15 किमी के बाद पठानकोट से जोगिन्द्रनगर वाली छोटी लाइन का रेलवे फ़ाटक पार करते ही कांगड़ा/मन्ड़ी वाला हाइवे मिल गया। यहाँ पर दो पुलिस वाले बसे व बड़े वाहनों को पठानकोट शहर में जाने नहीं दे रहे थे, बाइ पास जिससे होकर हम आये थे भारी वाहन उसी से होकर आ जा रहे थे। मैंने पुलिस वाले से पूछा कि चम्बा जाने के लिये कौन सा मार्ग ठीक है पठानकोट की तरफ़ वाला या नूरपुर वाला। पुलिस वाला बोला कि नूरपुर से ही ज्यादा बेहतर रहेगा। हमने अपनी बाइके नूरपुर की ओर दौड़ा दी। नूरपुर वाली सड़क पठानकोट से मन्ड़ी तक ही मस्त चकाचक बनी हुई है। थोड़ी देर में ही नूरपुर नजदीक आ गया। नूरपुर अभी दो किमी दूर था लेकिन नूरपुर के सरकारी कार्यालय आने आरम्भ हो गये थे इसलिये मैंने अपनी बाइक धीमी कर दी कि कही चम्बा वाली सड़क पीछे ना छूट जाये।

मेरे बाइक धीमे करने के बाद पल्सर वाले आगे निकल गये। थोड़ा सा आगे जाते ही एक अन्जान सड़क उल्टे हाथ जा रही थी पल्सर वाले आगे थे इस सड़क किनारे एक बोर्ड़ लगा हुआ जिस पर लिखा था चम्बा। चम्बा लिखे होने के चक्कर में पल्सर वालों ने मेरा इन्तजार भी नहीं किया और उस सड़क पर चल दिये। एक बार मैंने सोचा कि इन्हे वापिस आने के लिये कहूँ लेकिन वे तेजी से बाइक भगाये जा रहे थे जिससे वे मेरी बाइक पकड़ में नहीं आ रहे थे। मोबाइल मिलाने की सोची लेकिन नेटवर्क साथ छोड़ चुका था। आखिरकार वे 5 किमी जाने के बाद पकड़ में आये उन्हे चम्बा वाली उस सड़क के बारे में बताया जिस पर हम बीते साल नूरपुर से चम्बा गये थे वह सड़क इस सड़क से दूसरी थी। अब 5 किमी वापिस जाने से बेहतर यही लगा कि इसी से चम्बा चला जाये।

यह सड़क एक नदी के पुल को पार करती हुई चम्बा पठानकोट वाली सड़क में जा मिली जहाँ पर यह सड़क मुख्य सड़क से मिलती है वहाँ पर कई दुकाने बनी हुई है। साथियों को चाय पिये हुए कई घन्टे हो गये थे। इसलिये एक दुकान पर उन्हे चाय पिलायी गयी। यहाँ उस मोड़ से चम्बा की दूरी 87 किमी दूर बची हुई थी। धीरे-धीरे हम बनीखेत जा पहुँचे। यहाँ जाते ही ड़लहौजी का बोर्ड़ देखकर साथी बोले कि ड़लहौजी देखने चलेंगे। यदि ड़लहौजी गये तो वही अंधेरा हो जायेगा। फ़िर यहाँ से बनीखेत से ही चम्बा 45 किमी बाकि है अंधेरे में आगे की यात्रा करने की बजाय तय हुआ कि रात बनीखेत में रुका जाये। अब ड़लहौजी देखने चलते है। बनीखेत में एक होटल में कमरा देखकर अपना सारा सामान वही रख दिया। केवल कैमरा लेकर ड़लहौजी की ओर रवाना हो गये।

बनीखेत तिराहे से ड़लहौजी सिर्फ़ 5-6 किमी की दूरी पर ही है। जहाँ बनीखेत में गर्मी लगती है वही ड़ल्हौजी में ठन्ड़ अपना असर दिखा देती है। अंधेरा होने में अभी घन्टा भर का समय ही बचा था इसलिये हम ड़लहौजी जाते समय बीच में कही भी नहीं रुके थे। जिन बोर्ड़ के फ़ोटो लेख में लगाये हुए है वे सभी वापसी में लिये गये है। जब ड़लहौजी एक किमी रह जाता है तो ड़लहौजी के कैन्ट क्षेत्र में आगमन हो जाता है सेना का क्षेत्र होने के कारण यहाँ फ़ोटो लेना उचित नहीं है क्या पता कब फ़ौजियों की खोपड़ी उल्टी घूम जाये और हमारे कैमरे को जब्त कर ले कि तुम यहाँ जासूसी कर रहे हो।

जैसे ही ड़लहौजी के मुख्य बस अड़ड़े वाले चौक पर पहुँचे तो वहाँ साथियों को यह बताने के लिये बाइक रोकी थी कि उन्हे बताऊँ कि मणिमहेश जाते समय यहाँ रुकते हुए हम सभी बाइक वाले व स्कारपियो वाले सामने वाले मार्ग से होते हुए काला वन व खजियार के शानदार हरे-भरे मैदान की ओर चले गए थे। मैंने उन्हे पूरी तरह बताया भी नहीं था कि होटल वालों के एजेन्ट के रुप में ग्राहक तलाशते कुछ युवक हमारे पास आकर बोले कि रात रुकने के लिये कमरा चाहिए। हाँ चाहिए, कितने का है। चारों रुकोगे, हाँ, 1000 रुपये का मिल जायेगा। कम कर भाई ज्यादा है दूसरा बोला कि 800 से कम नहीं होगा। मैंने कहा हम 500 रुपये देंगे, हाँ या ना। वे बोले कि सीजन में इससे कम नही मिलने वाला। ठीक है ऑफ़ सीजन कब होता है? दिसम्बर जनवरी में तब कितने का मिल जाता है, तब 1500 वाला 500 तक में मिल जाता है। अच्छा अपना कार्ड़ दो अगर हमें 500 रुपये में कमरा नहीं मिला तो तुम्हारे पास आ आ जायेंगे। वैसे कमरा हमने बनीखेत में 500 में ही ले लिया था। कमरा बहुत शानदार व एकदम चौराहे पर था।

हम बाइक लेकर आगे बढे। ड़ल्हौजी में कई किमी का चक्कर लगाने के बाद साथी बोले कि ड़लहौजी में खास क्या है? ऐसा खास ड़लहौजी में मुझे तो कुछ नहीं लगा। यहाँ से आगे पंचपुला/पंजपुला       कालाटोपखजियार जिसे भारत का स्विटजरलैन्ड़ कहते है, ही शानदार स्थल है। खजियार जाने का अब समय नहीं था इसलिये हम वापिस बनीखेत की ओर मुड़ गये। वापसी में मार्ग पर हमने कुछ फ़ोटो भी लिये। बनीखेत पहुँचते-पहुँचते अंधेरा अपना राज कायम कर चुका था। बनीखेत पहुँचते ही मेरी नजर बाइक के अगले पहिया पर गयी। मेरी बाइक के अगले पहिया की हवा निकल कर बहुत कम हो गयी थी। कैमरे को कमरे पर रख व चार्ज पर लगाने के बाद मैं बाइक लेकर पेंचर वाले के पास पहुँचा। पेंचर वाला मुश्किल से 40 मीटर दूरी पर ही था।

अगला पहिया खुलवा कर हर तरीके से चैक कर लिया गया लेकिन उस ससुरे में पेंचर नहीं मिला। आखिरकार पहिये की वालबोड़ी में ही कुछ कमी दिखायी दी। बालबोड़ी बदल कर दूसरी लगवा दी गयी क्योंकि कल व अगले कुछ दिन पेंचर वालों की मिलने की उम्मीद भी कम ही थी। बाइक वापिस कमरे के नीचे खाली प्लाट में लगा दी गयी। रात का खाना खाने के लिये कमरे के ठीक नीचे बने ढाबे पर आना पड़ा। कमरे में टीवी लगा हुआ था हमारे साथी क्रिकेट मैच देखने में लगे पड़े थे। रात का खाना ठीक-ठाक बना था लेकिन जालंधर में किया गया, दोपहर का खाना व उसका स्वाद इस यात्रा का सबसे स्वादिष्ट खाना था।

रात का खाना खाकर 10-11 बजे तक सो गये। मुझे गददे पर सोने की आदत नहीं है इसलिये मैंने बैग से अपनी चददर निकाली और जमीन पर लम्बे पैर फ़ैलाकर सो गया। सुबह 5 बजे आँख खुली तो बाहर के हालत ठीक नहीं लगे। खिड़की खोलकर बाहर झाँका तो देखा कि वर्षा रानी होले-होले पृथ्वी को भिगोने में लगी हुई है। बारिश कुछ देर बाद हल्की हुई तो मैंने बाइक का पहिया देखा, जिसे रात खुलवाया था। बाइक का अगला पहिया ठीक था लेकिन अब एक और गड़बड़ हो गयी कि अब सुबह के समय बाइक के पिछले पहिये की हवा गायब थी। यह शुक्र रहा कि पेंचर वाले का घर दुकान के ठीक ऊपर ही था, मैंने रात ही उससे पता भी कर लिया था कि सुबह भी अगले पहिये की हवा गायब मिली तो फ़िर आना पड़ेगा।

सुबह दुकान खुलने के बारे में कहा कि सुबह 6:30 तक दुकान खोल देता हूँ। समय देखा अभी तो 6 ही बज रहे थे। दुकान वाले को सड़क से आवाज लगायी वह ऊपर छज्जे से देखकर बोला, क्या हुआ? हवा फ़िर से निकल गयी क्या! मैंने कहा "हाँ" निकल तो गयी है लेकिन अबकी बार पिछले पहिया की निकली पड़ी है। मुझे लगता था कि मैंने दोनों पहिया के टायर व टयूब परसो ही नये ड़लवाये/बदलवाये थे किसी कारण से इनमें वालबोड़ी ढ़ीली रह गयी है। या रात में पिछले पहिया में किसी ने हमारे साथ शरारत की होगी। मैंने अपनी बाइक की पैट्रोल टंकी में नीचे भी ताला लगवाया हुआ है। जिससे कि पहाडों में बाइक बाहर खुले में रहने के कारण कोई पेट्रोल ना निकाल सके। ऐसा मुझे इसलिये करना पड़ा है कि पहले कई बार पेट्रोल निकाला जा चुका है। (आगे की यात्रा अगले भाग में)
इस साच पास की बाइक यात्रा के सभी ले्खों के लिंक क्रमवार नीचे दिये जा रहे है।

11- हिमाचल के टरु गाँव की पद यात्रा में जौंक का आतंक व एक बिछुड़े परिवार को मिलवाना
12- रोहान्ड़ा सपरिवार अवकाश बिताने लायक सुन्दरतम स्थल
13- कमरुनाग मन्दिर व झील की ट्रैकिंग
14- रोहान्ड़ा-सुन्दरनगर-अम्बाला-दिल्ली तक यात्रा।





यह वही पेड़ है जो मणिमहेश यात्रा के समय बर्फ़ बारी जैसे हालात पैदा कर रहा था।





शाम के समय लिया गया फ़ोटो

सुबह के समय लिया गया फ़ोटो

5 टिप्‍पणियां:

  1. अभी तो मालगाड़ियाँ भी १०० किमीप्रघं से दौड़ना प्रारम्भ कर दी हैं। खजियार बहुत ही सुन्दर लगा।

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  2. खोदा पहाड़ निकली चूहियाँ मेरा मतलब है पँचर तो नही निकला वालबाँडी ढिल्ली निकली और ये तो बताया ही नही कि पिछले पहिए मे क्या हुआ था? किसी ने हवा निकाली थी या वालबाँडी ढिल्ली थी?

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  3. डलहौज़ी अच्छी जगह है, और ठण्ड में तो और मजा आती है

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