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शनिवार, 15 जून 2013

Parli Vaijnath to Basmat Train journey परली वैजनाथ से बसमत तक रेल यात्रा।

EAST COAST TO WEST COAST-14                                                                   SANDEEP PANWAR
ट्रेन के मामले में अक्सर ऐसा होता आया है कि जब हम स्टेशन पहुँचने में लेट हो जाते है तो ट्रेन समय से आ जाती है इसके विपरीत यदि हम समय से पहले स्टेशन पहुँच जाये तो ट्रेन लेट हो जाती है ऐसा क्यों होता है? जब उदघोषणा हुई थी कि ट्रेन एक घन्टा देरी से आयेगी तो कुछ खास परेशानी नहीं हुई क्योंकि अपुन को उस ट्रेन से सिर्फ़ 103 किमी की ही यात्रा करनी थी। जिसको तय करने में अधिक से अधिक दो-सवा दो घन्टे का समय लग जाता। लेकिन एक घन्टा प्रतीक्षा करने के बाद हम मन ही मन सोच ही रहे थे कि कही दुबारा से यह उदघोषणा ना हो जाये कि ट्रेन अभी भी एक घन्टा और देर से आयेगी। जिसका ड़र था वही हो गया। जब उदघोषणा करने वाले ने दुबारा यह सूचना प्रसारित करायी कि ट्रेन अभी पौना घन्टा देरी से आने की उम्मीद है तो उसकी यह सूचना सुनकर हमारी उम्मीदों को जोर का झटका लग गया। लेकिन अपुन ठहरे जिददी जाट, जब पहाड़ की भयंकर चढ़ाई से नहीं घबराते तो फ़िर ट्रेन के दो चार घन्टे देरी से चलने से क्या फ़र्क पड़ने वाला था। ट्रेन से लेट होने से स्टेशन पर भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। एक बार खंडवा स्टेशन पर 6 घन्टे मीटर गेज वाली रेल की प्रतीक्षा कर चुका हूँ।



थोड़ी देर बाद एक ट्रेन आती हुई दिखायी दी, जिसे देखकर सभी के चेहरे चहकने लगे, लेकिन जैसे ही ट्रेन के बारे में पता लगा कि यह ट्रेन यही समाप्त होने वाली है तो सभी का चेहरा मायूस हो गया। परली बैजनाथ का स्टेशन ऐसी जगह बना हुआ है जहाँ तक ट्रेन आने के बाद वापिस जाती है। परली बैजनाथ से आगे पटरी नहीं है। यहाँ आने वाली गाड़ियों को स्टेशन पर आने के बाद इन्जन को दूसरी तरफ़ लगाना होता है उसके बाद ट्रेन उल्टी दिशा में चली जाती है जहाँ से आयी थी, यहाँ थोड़ा सा तकनीकि पहलू है परली बैजनाथ मुख्य लाईन से थोड़ा सा हटकर बना हुआ है जिस कारण अधिकतर गाडियों को परली से बाई पास होकर निकाला जाता है। कुछ गिनी चुनी गाडियाँ ही परली होकर चलती है। जब सुबह के समय मैं यहाँ आया था तो मैंने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया था। अब कई घन्टे से यहाँ बैठे रहने से यह जानकारी पता लगी। आखिरकार वह घड़ी भी आ ही गयी जब हमारी ट्रेन के कुछ देर में आने की सूचना प्रसारित की गयी। जैसे ही ट्रेन स्टेशन की ओर आती दिखायी दी, कई घन्टे से ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे लोगों के सब्र का बाँध टूट गया।

यात्रियों ने ट्रेन के प्लेटफ़ार्म पर पहुँचते ही ट्रेन में घुसने के लिये मारामारी मचा दी। मुझे इस बात का पहले ही अंदेशा था इसलिये मैं ट्रेन आने से पहले ही प्लेटफ़ार्म छोड़कर दूसरी ओर चला गया था। मेरे जैसे 50-60 यात्री और थे जो प्लेटफ़ार्म की बजाय दूसरी ओर से ट्रेन में सवार हुए थे। जब तक ट्रेन की खिड़की प्लेटफ़ार्म की ओर से खाली होती तब तक दूसरी से चढ़ी सवारियाँ अपनी-अपनी सीट पर कब्जा जमा चुकी थी। जैसे ही प्लेटफ़ार्म की ओर से खिड़की खाली हुई तो भीड़ की ऐसी रेल के डिब्बे में ऐसी रेलम-पेल हुई कि जिसे जहाँ जगह दिखायी दी वो वहाँ बैठता चला गया। ट्रेन भरने में मुश्किल से 3/4 मिनट का समय भी नहीं लगा होगा। परली में आकर इन्जन आगे से पीछे लगाया जाता है इस कार्य को पूर्ण होने में बीस मिनट लग ही जाते है। लगभग बीस-पच्चीस मिनट बाद जाकर ट्रेन ने परली बैजनाथ का प्लेटफ़ार्म छोड़कर आगे चलना आरम्भ किया तो यात्रियों के चेहरे की खुशी देखने लायक थी। परली से चलने के एक किमी बाद हमारी ट्रेन उल्टे हाथ पर मुड़ गयी। यहाँ पर एक लाइन सीधे हाथ की ओर जाती हुई दिखायी दे रही थी। आमतौर पर कुल मिलाकर परली से चलने के बाद रेलवे लाईन Y आकार में हो जाती है, सीधे हाथ वाली लाईन हैदराबाद-बंगलौर के लिये जाती है, जबकि उल्टे हाथ वाली लाईन पूर्णा जंक्शन के लिये जाती है। पूर्णा से सीधे हाथ नान्देड़ व उल्टे हाथ मननाड़ के लिये ट्रेन मिल जाती है।

परली से आगे जाने पर सीधे हाथ बहुत दूर एक बिजली घर (शायद परमाणु) दिखायी दे रहा था, ऐसा ही बिजली घर गाजियाबाद से आगे दादरी, व बुलन्दशहर से आगे डिबाई के भी आगे गंगा किनारे नरौरा में भी देखा है। परली से आगे दो-तीन स्टेशन पार करने के बाद एक जगह रेलवे लाईन के ऊपर फ़्लाईओवर निर्माण कार्य चल रहा था, यहाँ सबसे पहले रेलवे लाईन के ठीक ऊपर दोनों ओर से पिलर का कार्य व उसके ऊपर गार्ड़र ड़ाल दिया गया था। बाकि फ़्लाई ओवर का कार्य अभी आरम्भिक अवस्था में ही था। हमारी रेल साँप की तरह बलखाती हुई जा रही थी, जिससे कभी धूप इस तरफ़, तो कभी धूप उस तरह, आती जाती थी। हमारी ट्रेन जब परभणी के जंक्शन पर पहुँची तो सोचा था कि आराम से दिन रहते बसमत पहुँच जायेगी लेकिन जब ट्रेन परभणी स्टेशन पर ही पौना घन्टा खड़ी रही तो दिन रहते बसमत पहुँचने की उम्मीद धरासायी होने लगी। यहाँ पर तेज गति से आने-जाने वाली कई गाडियाँ आयी और चली गयी, लेकिन हमारी सवारी गाड़ी जो पहले से ही दो घन्टे देरी से चल रही थी उसको और देर करा दी गयी। आमतौर पर ऐसा होता आया है कि यदि किसी को कही चोट लगी हो तो उसको दुबारा भी उसी स्थान पर चोट लगने की सम्भावना बढ़ जाती है।

किसी तरह ट्रेन यहाँ से आगे बढी तो सबको राहत मिली, दो तीन स्टेशन पार कर ट्रेन पूर्णा स्टेशन पर पहुँच गयी जहाँ से बसमत-हिंगोली-अकोला जाने के लिये अलग लाईन कट जाती है। यहाँ से सीधे नाक की सीध जाने पर बीस किमी के आसपास नान्देड़ आता है। वापसी में मेरी यात्रा नान्देड़ से बोम्बे की होने वाली थी। वैसे मैंने कई साल पहले भी नान्देड़ से दिल्ली तक की यात्रा की हुई है। जब मैं दक्षिण भारत की यात्रा करता हुआ दिल्ली की ओर लौट रहा था। रेल विभाग वालों को हमारी सवारी गाड़ी से उस दिन कुछ ज्यादा ही जलन हो रही थी। जिस कारण उन्होंने पूर्णा जंक्शन पर भी हमारी ट्रेन को आधे घन्टे तक खड़ी करे रखा। यहाँ पर शाम का समय हो रहा था। नान्देड़ से बोम्बे के लिये चलने वाली दैनिक तेज गति की रेलगाड़ी तपोवन एक्सप्रेस जैसे ही उस स्टेशन पर पहुँची तो वहाँ पर मौजूद भीड़ के बीच उस ट्रेन में घुसने के लिये जोर की मारामारी मच गयी थी। हमें लग रहा था कि इस ट्रेन में यह भीड़ नहीं समा पायेगी। लेकिन जब ट्रेन वहाँ से गयी तो प्लेटफ़ार्म लगभग खाली हो चुका था। यहाँ हमारे साथ बैठा हुआ एक बन्दा इस ट्रेन को देखकर फ़टाफ़ट हमारी ट्रेन से उतर कर तपोवन गाड़ी पकड़ने के लिये निकल भागा, हमें लगा कि उसकी दोनों ट्रेन निकल जायेगी, लेकिन वो तपोवन गाड़ी में घुसने में कामयाब रहा।

इसके बाद हमारी ट्रेन को अकोला रुट पर जाने के लिये हरी झन्ड़ी मिल गयी तो हमारी ट्रेन अपनी मंजिल अकोला की ओर बढ़ चली। मेरी मंजिल सिर्फ़ बसमत नामक स्टॆशन तक ही थी इस रुट पर कुछ साल पहले तक भारत की सबसे लम्बी दूरी की मीटर गेज(छोटी ट्रेन) चला करती थी जो कि अजमेर से आरम्भ होकर इन्दौर-अकोला-नान्देड़ होते हुए हैदराबाद तक जाती थी। आज उस लम्बे रुट में से सिर्फ़ रतलाम से इन्दौर होकर अकोला तक का ट्रेक ही मीटर गेज बचा हुआ है जबकि बाकि ट्रेक ब्राड़गेज में बदला जा चुका है। इस रुट पर मैंने इन्दौर से अकोला तक कई बार यात्रा की हुई है। इन्दौर से अकोला की ओर जाते समय पातालपानी नामक स्टेशन आता है जहाँ से अगला स्टेशन कालाकुंड़ आता है इन दो स्टेशनों के मध्य बेहद तीखी ढ़लान वाला रेलवे ट्रेक है जिस पर उतराई करते हुए ट्रेन को बार-बार रोकना पड़ता है, इसके उल्ट चढ़ाई पर चढ़ती ट्रेन को ऊपर लाने के लिये कालाकुन्ड़ से ही दो इन्जन लगाने पड़ते है तब कही ट्रेन पातालपानी स्टेशन तक चढ़ पाती है। ऐसा ही कुछ गोवा जाते समय भी होता है जब ट्रेन केसल रॉक स्टेशन से दूध सागर होते हुए मड़गाँव के लिये चलती है। अरे-अरे मैं तो बसमत जा रहा था यह बीच में किस रुट की बात छेड़ बैठा?

बसमत स्टेशन पहुँचने से पहले ही मैंने कुरुन्दा में कैलाश देशमुख और बाबूराव को सूचित कर दिया था जिससे उन्होंने आपस में सलाह कर मुझे लेने के लिये बसमत स्टेशन पर कैलाश को भेज दिया था। जैसे ही ट्रेन बसमत रुकी तो मैंने अपना तौलिया ट्रेन में ही भूल आया। तौलिया स्टेशन से एक किमी दूर आकर आया था तब तक ट्रेन जा चुकी होगी इसलिये मैंने उसे भूलना ही बेहतर समझा। बसमत का रेलवे स्टेशन सड़क से लगभग एक किमी हटकर बना हुआ है। कैलाश बाइक पर मुझे लाध कर कुरुन्दा के लिये चल दिया। बसमत से कुरुन्दा तक कई बार आना-जाना किया हुआ है इसलिये यह मार्ग अब जाना-पहचाना लगने लगा है। अंधेरा हो गया था इसलिये बाइक की लाईट जलाकर घर के लिये यात्रा जारी थी। रात को आठ बजे के करीब कुरुन्दा में प्रवेश किया। यह कुरुन्दा की मेरी तीसरी यात्रा थी इस बार यहाँ बाबूराव की लड़की व लड़के की एक ही दिन होने वाली शादी में शामिल होने के लिये यहाँ आया था। मराठे ग्रामीण परिवार की पहली शादी में शामिल होने का अवसर मुझे मिला था। कल दिन में शादी का कार्यक्रम था। इसलिये आज की रात उसकी तैयारी की जा रही थी। शादी कार्यक्रम की रिपोर्ट आगामी लेख में बतायी जायेगी। (क्रमश:)
विशाखापटनम-श्रीशैल-नान्देड़-बोम्बे-माथेरान यात्रा के आंध्रप्रदेश इलाके की यात्रा के क्रमवार लिंक नीचे दिये गये है।
विशाखापटनम-श्रीशैल-नान्देड़-बोम्बे-माथेरान यात्रा के बोम्बे शहर की यात्रा के क्रमवार लिंक नीचे दिये गये है।





















3 टिप्‍पणियां:

  1. राम जी, आप भी अब नीरज की तरह से रेलवे के विशेषज्ञ बनते जा रहे हो, बधाई.......

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  2. भाई जी फोटो के नीचे कैप्‍सन लगाईये हमारा मजा दुना हो जाएगा और आपका थोडा काम बढ जाएगा

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