गंगौत्री से केदारनाथ पदयात्रा-5
अगली सुबह चार बजे सब सोकर उठ गये थे। नहा धोकर सुबह 6 बजे तक आगे के सफ़र पर चल दिये थे। भैरों चटटी से कोई 2 किलोमीटर आगे तक मार्ग समतल ही है। बीच-बीच में जोंक दिखाई दे जाती थी। जिससे बच कर निकल रहे थे। मैं सबसे आगे चल रहा था, दो किलोमीटर बाद एक दोराहा आ गया यानि Y आकार में मार्ग आ गया, अब क्या करे? कोई बताने वाला भी नहीं था। करने लगे अपने साथियों का इंतजार, कुछ देर बाद वो आये। तब उन्होंने कहा कि अब केवल उल्टे हाथ पर ही मुडना गौरीकुंड तक सीधे हाथ पर कहीं नहीं मुडना है। इस मोड के बाद तो ढलान ही ढलान थी। वह भी कोई छोटी मोटी नहीं, पूरे 11-12 किलोमीटर लम्बी थी। यहाँ एक बात और हुई कि भैरों चट्टी से दो कुत्ते हमारे साथ-साथ ही चल रहे थे। जिन्होंने हमारा पीछा नहीं छोडा। तीन घन्टे बाद जाकर ये उतराई समाप्त हुई। अब कच्ची मिटटी का मार्ग आ गया था जो काफ़ी फ़िसलन भरा था। कोई 300-400 मीटर तक ये कच्चा मार्ग रहा था, इसके बाद जाकर एक गॉव आया, जिसका नाम है भाट गाँव। इस गाँव तक अब सडक मार्ग बन चुका है, जो कि दस किलोमीटर का है, जबकि हम सिर्फ़ दो किलोमीटर के पैदल मार्ग से मुख्य सडक तक गये। इस भाट गाँव से जो पैदल मार्ग है वहाँ से मुख्य सडक दिखाई देती है, और सडक इतनी गहरी खाई में है कि पहली बार देखने में तो होश ही उड जाते है। यहाँ से एकदम सीधी गहरी खाई में से होता हुआ पैदल मार्ग जाता है इस मार्ग पर सीढीदार खेत बने हुए है जहाँ पर किसान काम कर रहे थे। हम यह ढलान मात्र 40-50 मिनट में उतर गये थे और मुख्य सडक पर बने पुल पर आ गये थे। जहाँ से हमें उल्टे हाथ की ओर जाना था, इस पुल से घुत्तू मात्र 5-6 किलोमीटर ही रह जाता है।
अगली सुबह ठीक 4 बजे फ़िर उठ गये थे। सब काम निपटाकर पौने पाँच बजे तक
आज के सफ़र पर चलने को तैयार हो गये थे। यहाँ से 10-11 किलोमीतर तक चढाई ही
चढाई थी। यहाँ एक कहावत है कि अंग्रेज दो चीजों से डरते थे। एक पवाँली की
चढाई व दूजी जर्मनी की लडाई से। यह चढाई कैसी है आप सोच लो कि सुबह 5 बजे
से चलकर छ घन्टे बाद 11:30 बजे जाकर हम 18 किमी चलकर यहाँ तक पहुँच पाये थे। बीच में एक जगह
पर एक छप्पर नुमा दुकान में रुक कर दो-दो पराठे भी खाये गये थे। वो दोनों
कुत्ते हमारे साथ यहाँ तक भी चल रहे थे। जब हमने इस चढाई के सबसे ऊपरी भाग
को पार कर आगे की दुनिया को देखा तो हमारे तो होश ही गुम हो गये थे। सामने
इतना हसीन प्यारा दिलकश मनभावन नजारा था कि मैं तो उसे देखता ही रह गया था।
पूरे आधे घन्टे बाद जाकर मैं आगे गया था। अब सामने ही बने झोपडों में हमे रुकना था। कोई
जल्दी नहीं थी। दोपहर से शाम तक, मैं तो इस जगह के चारों ओर घूमता ही रहा था। यहाँ एक बार
फ़िर जाऊँगा, अबकी बार दो-तीन दिन रुक कर आना है, तब कही मेरे मन को चैन आयेगा। यह जगह कोई आठ-दस किलोमीटर में फ़ैली हुई है। यहाँ पर दस-बारह घर बने हुए है
जो भैंस पालने वालों के है। गर्मी आते ही ये भी पहाड पर ऊपर आ जाते है,
बर्फ़ पडते ही यह पहाड से नीचे की ओर चले जाते है।
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स्वर्ग |
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एक निवास, ये लो जी रात में रुकने का ठिकाना भी है यहाँ पर। |
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पूरी बस्ती, इस जगह पर बिना सुख सुविधा के गाँव जैसा माहौल है। |
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फ़ूल ही फ़ूल |
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भैंस के बच्चे |
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किसी चित्र जैसा |
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देखते रहो |
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गाजर जैसा पौधा |
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क्या देखते हो? |
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ले ताऊ मेरा भी फ़ोटो |
अगले भाग में पवाँली से आगे त्रियुगी नारायण, गौरीकुंड व केदारनाथ तक की यात्रा रहेगी।
गोमुख से केदारनाथ पद यात्रा के सभी लेख के लिंक नीचे दिये गये है।
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संदीप जी राम राम, प्रकृति के एक से बढ़कर एक खूबसूरत नज़ारे दिखाने के लिए धन्यवाद....वन्देमातरम...
जवाब देंहटाएंये नजारे खूबसूरत हैं । मेरा इन रास्तो पर जाने का मन है पर पता नही आपसे पहले क्यों नही मिला
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (16-02-2013) के चर्चा मंच-1157 (बिना किसी को ख़बर किये) पर भी होगी!
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कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि चर्चा में स्थान पाने वाले ब्लॉगर्स को मैं सूचना क्यों भेजता हूँ कि उनकी प्रविष्टि की चर्चा चर्चा मंच पर है। लेकिन तभी अन्तर्मन से आवाज आती है कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह सही कर रहा हूँ। क्योंकि इसका एक कारण तो यह है कि इससे लिंक सत्यापित हो जाते हैं और दूसरा कारण यह है कि किसी पत्रिका या साइट पर यदि किसी का लिंक लिया जाता है उसको सूचित करना व्यवस्थापक का कर्तव्य होता है।
सादर...!
बसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ!
सूचनार्थ!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'