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ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी और मैं अपनी मस्ती में खोया हुआ था। अपने वाले दिल्ली-लोनी-बागपत वाले रेल मार्ग पर जब बागपत रोड नाम की जगह आती है तो पहले-पहले मैं इसी स्टेशन को बागपत शहर समझा करता था। लेकिन यह मुझे कई साल बाद जाकर पता लगा कि बागपत शहर यहाँ से लगभग 5-6 किमी की दूरी पर, सडक वाले मार्ग पर स्थित है। यहाँ ट्रेन से उतरकर सडक मार्ग से मेरठ व सोनीपत जाया जा सकता है। जहाँ बागपत रोड वाला स्टेशन है, उस गाँव का नाम टटीरी है। जो आज एक ठीक-ठाक कस्बे का रुप धारण कर चुका है। कुछ ऐसा ही सूरते-हाल लोनी स्टेशन का है रेलवे रिकार्ड में लोनी LONI को नोली NOLI लिखा गया है। अगर आपमें से कोई वहाँ से गया हो तो सोच में जरुर पडा होगा कि लोग तो कहते है लोनी आयेगा लेकिन यह नोली कहाँ से आ गया? कई बार नई-नई सवारियाँ इस नाम के चक्कर में रेल के अन्दर बैठी रह जाती है।
इसी मार्ग पर शामली नामक शहर आता है। वैसे शामली इस रुट का सबसे बडा स्टेशन भी है जहाँ से दिल्ली के लिये कई दैनिक गाडियाँ चलती है। जो नौकरी पेशा लोगों को उनकी मंजिल तक पहुँचाती है। शामली खुद में एक जिला भी है। जहाँ पर ट्रेन से उतरकर मेरठ व करनाल (हरियाणा वाला) जाया जाता है। यही से एक अन्य मार्ग मुजफ़्फ़रनगर होते हुए रुडकी हरिद्धार को भी जोडता है। आज भी जब मैं लोकल रुट पर अपना सफ़र करता हूँ तो स्टेशन समय से काफ़ी पहले पहुँच जाता हूँ ताकि आसानी से अपनी यात्रा के लिये टिकट ले सकू। मैं बार-बार स्टेशन-स्टेशन शब्द प्रयोग कर रहा हूँ जबकि हिन्दी में मुझे कहना चाहिए कि “लौह पथ गामिनी विश्राम स्थल”। अब इतना लम्बा नाम बार-बार कहने से अच्छा यही लगता है कि आम प्रचलित शब्द स्टेशन ही कहा जाये तो बेहतर है। एक बात ठीक से याद नहीं आ रही है मैंने यह वाली यात्रा भाप वाले/कोयले वाले इंजन की रेल में की थी या डीजल इंजन वाली रेल में। क्योंकि मुझे यह ठीक से याद नहीं है हमारे इस रुट पर कोयले वाले इंजन चलना कब बन्द हुए थे? यह तो मुझे मालूम है कि इस रूट पर छोटी ट्रेन सन 1975 में बन्द हो गयी थी। उसके बाद यह छोटी लाईन बडी लाईन में बदल दी गयी थी। एक खास बात और कोयले के इन्जन व इसके चालक को जिसने नहीं देखा हो वह शोले फ़िल्म जरुर देख ले, उसमें कोयले वाला इन्जन है। जब यह कोयले वाली ट्रेन स्टेशन पर रुकती थी तो रेल के ड्राईवर से कोयला माँगने वालों की लाईन लग जाती थी। कई बार चालक उन्हें कोयला के कुछ टुकडे दे भी देता था।
सहारनपुर आने से पहले एक छोटा सा स्टेशन आता है जिसका नाम टपरी जंक्शन है। यह जंक्शन जरुर है लेकिन यहाँ पर ऐसा कोई विशाल निर्माण कार्य नहीं हुआ है जिस कारण इसको बडे स्टेशन का दर्जा दिया जाये। यह स्टॆशन सहारनपुर से लगभग 8-9 किमी पहले आता है। जिस कारण दिल्ली-मेरठ की ओर से आने वाली कई एक्सप्रेस गाडियों को सहारनपुर तक आने-जाने में लगने वाले समय को बचाने के लिये यही, टपरी से हरिद्धार की ओर रवाना कर दिया जाता है। अगर आपको याद हो तो “हर की दून” जाते समय मेरे साथी “धर्मेन्द्र सांगवान” इसी स्टेशन पर मुझे पहली बार मिले थे। वैसे सवारी गाडी यानि आम साधारण गाडी दिल्ली से पहले सहारनपुर तक ही जायेगी, उसके बाद कुछ देर वहाँ रुकने के बाद वापस यही से होती हुई हरिद्धार की ओर जायेगी। खैर मुझे इस यात्रा में इस रुट से हरिद्धार नहीं जाना था। मुझे तो अपनी ट्रेन से सिर्फ़ सहारनपुर तक ही जाना था। जब सहारनपुर आने ही वाला था तो स्टेशन आने से काफ़ी दूरी पहले एक बडा सा नाला आता है। जिसे रेल में बैठे-बैठे पार करना अच्छा लगता है। मैंने घडी में समय देखा तो ग्यारह बजने वाले थे। हमारी रेल ने यहाँ तक आने में पूरे 5 घन्टे लिये थे।
कई सवारियाँ जो उस रुट पर आती-जाती रहती होगी, नाले को देखते ही, अपने स्थान से खडी होकर खिडकी की ओर जाने लगी। धीरे-धीरे डिब्बे में हलचल काफ़ी तेज हो गयी थी। मुझे रेल से उतरने की कोई जल्दी नहीं थी। क्योंकि मुझे पहले ही पता लग गया था कि यह रेल यहीं तक जाती है अत: मैं अपनी सीट पर डटा रहा। जब लगभग सभी सवारी डिब्बे से उतर गयी तो मैंने अपना बैग उठाया व बाहर प्लेटफ़ार्म पर खडे होकर पहले यह देखा कि सवारियाँ स्टेशन से बाहर जाने के लिये किधर जा रही है। लगभग ज्यादातर सवारी हमारी ट्रेन के शुरुआती छोर इन्जन वाले की ओर ही जा रही थी। मुझे उस स्टेशन की कोई जानकारी तो नहीं थी। अत: मैं भी उनके पीछे-पीछे स्टेशन से बाहर निकल आया। आज व आज से बीस साल पहले के सहारनपुर के स्टेशन के बाहर वाले भाग में बहुत बदलाव आ गया है। आज इस स्टेशन से बाहर निकलते ही काफ़ी बडा मैदान सा दिखाई देता है जबकि पहले ऐसा नहीं था। सालों पहले जहाँ से टिकट मिलता था आजकल वहाँ कुछ नहीं मिलता है। टिकट लेने के लिये स्टेशन से बाहर ही एक अलग विशाल हॉल बना दिया है। यहाँ इस जगह से हरियाणा में जगाधरी-यमुनानगर-अम्बाला की ओर जाने के लिये रेल व बसे मिल जाती है, यहाँ से रेल द्धारा रुडकी-हरिद्धार होते हुए देहरादून जाया जा सकता है। अगर किसी को जाना हो तो यह जरुर ध्यान रखे। लेकिन उस रुट से रेल द्धारा देहरादून जाने में 4-5 घन्टे लग जाते है। जिस कारण, अधिकतर यात्री मात्र 70 किमी की सडक दूरी पर स्थित देहरादून जाने के लिये सहारनपुर से सडक मार्ग द्धारा ही जाना पंसद करते है।
मैं पहले ही पता कर आया था कि स्टेशन के बाहर निकलने के बाद ही बस अडडा आता है जहाँ से देहरादून आदि कई स्थलों के लिये बस सुविधा उपलब्ध है। एक जरुरी बात यहाँ से माता शाकुम्बरी देवी मन्दिर जाने के लिये बसे भी मिलती है। उस समय स्टेशन के बाहर से ही मिल जाती थी। आजकल 3-4 किमी दूर चकराता रोड पर स्थित किसी और जगह से मिलती है। जिसे बेहट अडडा कहा जाता है। यहाँ से उतराखण्ड के विकासनगर जाने के लिये भी बस सेवा उपलब्ध है। वहाँ से चकराता, पौंटा साहिब व यमुनौत्री जाया जा सकता है। मुझे तो देहरादून ही जाना था। आजकल देहरादून जाने वाली बसे अब भी स्टेशन के बाहर ही मिलती है। मुझे बस अडडे से देहरादून जाने वाली बस तलाश करने में कोई खास परेशानी नहीं आयी। स्टेशन से बाहर आते ही कुछ दुकाने पार करते ही उल्टे हाथ की ओर बस अडडा है। मैं देहरादून जाने वाली बस में जा घुसा, लेकिन यह क्या? जैसी मेरी इच्छा थी कि मैं सबसे आगे वाली सीट पर बैठू, ताकि आगे आने वाले सारे नजारे का लुत्फ़ उठा सकूँ। जब मैंने पाया कि आगे वाली सीट भरी हुई है अत: मैं उस बस से नीचे उतर गया। उसके पीछे दूसरी बस लगी हुई थी, जो लगभग खाली थी। उसमें मुश्किल से दो-तीन सवारी ही बैठी हुई थी। मुझे अपनी मनपसन्द सीट खाली दिखाई दे रही थी, अबकी बार मुझे इस सीट पर बैठने में कोई रुकावट नहीं थी। मैं सबसे आगे वाली सीट (चालक वाली के पास वाली) पर जा बैठा। थोडी देर बाद आगे वाली बस जाने के बाद हमारी बस भी सवारियों से भर गयी।
जैसे ही ड्राईवर बस को लेकर आगे बढा तो एक व्यक्ति चिल्लाया कि रुको मेरा आदमी अभी बस से बाहर है। उसकी बात के जवाब में बस कण्डक्टर बोला, आदमी औरतों के होते है। आदमियों के आदमी नहीं होते, दोस्त या साथी होते है। उस साथी आने के बाद बस चल पडी। थोडी दूर सीधी चलने के बाद बस एक चौराहे पर पहुँचती है। वहाँ से बस सीधे हाथ की ओर मुड जाती है। यहाँ पर लगभग एक किमी चलने के उपरांत हमारी बस उसी नाले को फ़िर से पार करते हुए चलती रहती है, जिसे हमने ट्रेन में बैठे-बैठे पार किया था। नाले से थोडा आगे जाने के बाद एक तिराहा आता है जहाँ से हमारी बस उल्टे हाथ देहरादून रोड पर आ जाती है। सहारनपुर में शायद यह तिराहा देहरादून तिराहा कहलाता है। यहाँ तिराहे से भी काफ़ी सवारियाँ बस में चढ जाती है। चूंकि मैं इस रुट से ना जाने कितनी बार देहरादून गया हूँ? अत: यह मुझे अच्छी तरह याद है कि देहरादून चौराहे से बस में सवारियां जरुर बैठेंगी। यहाँ से आगे चलते ही बस चालक बस की गति को बढाता है। मार्ग में आगे जाने पर हमें सडक पर सीधे किनारे पर सहारनपुर जेल दिखाई देती है। वैसे हकीकत में अन्दर से तो कभी जेल देखी नही है लेकिन बाहर से कई जेल देखी है जैसे यह जेल, गाजियाबाद की डासना जेल, दिल्ली की तिहाड जेल, देहरादून जेल, आदि-आदि। कभी ऐसा मौका नहीं लगा कि अन्दर से भी भ्रमण हो सके।
सहारनपुर जेल से हमारी बस आगे बढती हुई एक ऐसी जगह पहुँचती है, जहाँ पर एक दरगाह व मन्दिर एक ही आंगन मे बने हुए है। साम्प्रदायिक सदभाव की अनूठी मिशाल यहाँ देखने को मिलती है। जहाँ हिन्दू धर्म व मुस्लिम धर्म के लोग एक साथ अपने-अपने धर्म की पूजा-पाठ करते है। वैसे मैं कभी भी इस धार्मिक स्थल पर भी अभी तक अन्दर नहीं गया हूँ। यहाँ पर कई साल पहले हुई एक क्वालिस गाडी व सरकारी बस की रात के समय हुई जोरदार भिडंत की याद आ जाती है। यह भिडंत इतनी जोरदार जिसमें क्वालिस में सवार सभी ग्यारह लोग घटनास्थल पर ही मारे गये थे। उनको बचने-बचाने तक का मौका नहीं मिला था। यहाँ से आगे चलकर हमारी बस सहारनपुर शहर की आबादी को पीछे छोड देती है। काफ़ी देर चलने के बाद एक कस्बा आता है गागलहेडी। जहाँ से देवबन्द (यह वही देवबन्द है जिसे भारत, बल्कि एशिया में मुस्लिम समाज की सबसे बडी शिक्षण व सामाजिक संस्था का दर्जा प्राप्त है) होते हुए एक मार्ग मुजफ़्फ़रनगर में उस रामपुर तिराहे पर जा निकलता है जहाँ पर किसी समय अलग उतराखण्ड राज्य बनाने के लिये आन्दोलन करने पर आमादा लोगों पर हुए हमले में उत्तरप्रदेश सरकार आरोप लगाया जाता है कि सरकारी मशीनरी ने लोगों के साथ बहुत ही क्रूर मानवता का परिचय दिया था। उस घटना से संम्बधित मुकदमा आज भी नैनीताल हाईकोर्ट में चल रहा है।
इस तिराहे गागलहेडी से आगे जाने पर छुटमलपुर नाम का कस्बा आता है यहाँ से सीधे हाथ जाने वाला मार्ग रुडकी होते हुए, हरिद्धार या दिल्ली की ओर चला जाता है। हमारी बस यहाँ से सवारियाँ उतार व चढाकर आगे की ओर चल पडती है। छुटमलपुर कस्बे से आगे जाने के बाद एक और कस्बा आता है जिसका नाम है फ़तेहपुर, यहाँ से भी उल्टे हाथ जाने वाले मार्ग पर चलकर माता शाकुम्बरी देवी मन्दिर जाया जा सकता है। यहाँ से आगे चलते ही सडक लगभग काफ़ी-काफ़ी दूर तक सीधी दिखाई देने लगती है। यहाँ से मुझे काले-काले से बादल दिखाई दे रहे थे। ये काले-काले बादल अभी तो जमीन के पास दिखाई दे रहे थे, लेकिन जैसे-जैसे हमारी बस आगे बढती रहती है इन बादलों की ऊँचाई बढती हुई महसूस हो रही थी। सडक पर दूरी दर्शाने वाले जो पत्थर के स्तम्भ होते है, उन पर मोहन्ड नाम की जगह 5-6 किमी दूर दर्शायी जा रही थी। जबकि सडक किनारे के खेत खलियान समाप्त होकर जंगल अर्थात वन में बदल गये थे। मेरा होश सम्भालने के बाद वन देखने का पहला अनुभव था। चूंकि मैं बस की सबसे आगे की सीट पर जमा हुआ था। अत: यह नजारा जी भरकर देख रहा था। उस समय मुझे क्या पता था? कि बाद में मैं यहाँ इस मार्ग कई बार अपनी बाइक से यह यात्रा दोहराऊँगा।
उसके बाद मैं कई बार इस रुट पर बाइक से देहरादून गया हूँ एक बार तो सन 2002 की फ़रवरी में मेरी माताजी भी बाइक से मेरे साथ देहरादून गयी थी। देहरादून क्या? उससे भी आगे मसूरी, धनौल्टी, चम्बा होते हुए उतरकाशी तक मेरी माताजी ने भी बाइक से यात्रा की है। माताजी के साथ की गयी यात्रा का फ़ोटो है जिसे नन्दन जी ने मेरे फ़ीचर ओथर वाली पोस्ट पर लगाया भी है। आप चाहो तो वहाँ देख सकते हो, बाकि समय मिला तो उस यात्रा के यादगार अनुभव भी बताऊँगा+दिखाऊँगा। जब मोहन्ड कस्बा आता है तो आपको यह याद रखना चाहिए कि आप दून घाटी के दरवाजे पर आ चुके है क्योंकि मोहण्ड ही वह जगह है जहाँ से हमारी गाडी मैदान छोडकर पहाडों में प्रवेश कर रही थी। यहाँ एक पुलिस चैक-पोस्ट भी है। जैसे ही बस पहाडों में प्रवेश करती है तो तभी अपने दिल के अरमान जाग उठते है कि मानो जैसे किसी ने मेरे दिल के सोये हुए ख्वाब से मुझे जगा दिया हो। यहाँ से बस लगभग 20-25 किमी पहाडों में ही चलती रही। वो दिन था और आज का दिन है मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मेरा जन्म ही पहाडों पर भ्रमण (बाइक+पैदल) करने के लिये हुआ है। पता नहीं ऐसा कुछ तो खास है कि ऊपर वाला परमात्मा भी मुझे बार-बार पहाडॊं पर बुला ही लेता है। मेरे पहाडों के इसी लगाव के कारण दोस्त मुझे जाट देवता कहते आये है। हमारी बस पहाडों के मोडों पर कभी दाये व कभी बाये मुड रही थी, बस के इस तरह झूमने में मुझे कितना सुकून+चैन+खुशी मिल रही थी कि मैं शब्दों में ब्यान नहीं कर पा रहा हूँ। सडक पर बाहर पहाडॊं में नजारे भी बेहद ही दिलकश थे। मैं तो अपनी पहली यात्रा में इतना खोया हुआ था कि मुझे इस सफ़र का पता ही नहीं चल पाया कि कब हम इस रुट की सबसे ऊँची जगह पर आ गये है। जब बस चालक ने बस रोकी तो मेरा ध्यान टूटा। मैंने सडक किनारे देखा तो वहाँ माता का एक छोटा सा मन्दिर दिखाई दे रहा था। लोगों के वार्तालाप से ज्ञात हुआ कि उस मन्दिर का नाम डाट वाला मन्दिर है।
यहाँ से आगे चलते ही सडक पर एक सुरंग आ जाती है। जब बस ने सुंरंग को पार किया तो जान में जान आयी नहीं तो ऐसा लग रहा था कि बस सुरंग में फ़ंस जायेगी। सुरंग पार करने के बाद कुछ दूर जाने पर एक लोहे का पुल आ गया। जैसे ही हमारी बस पुल की बढी तो सामने से एक दूसरी बस पुल में घुस गयी। हमारी बस के चालक ने बस को पीछे किया तब जाकर सामने वाली बस पुल पार कर सकी। यहाँ से देहरादून तक कोई 20-21 किमी का सफ़र मैंने बाद में साईकिल पर दोबारा किया था। उसका वर्णन दूसरी पोस्ट में किया जायेगा। यहाँ से आगे हमारी बस देहरादून के माजरा गाँव में किसी सवारी को उतारने के लिये रुकी थी। आज की तारीख में इस गाँव से लगभग दस किमी से भी ज्यादा पहले तक देहरादून का विस्तार हो चुका है। माजरा गाँव से आगे जाने के कुछ दूर बाद ही उस समय का दून शहर शुरु होता था। इस माजरा गाँव से पहले भी एक लोहे का पुल था जो आज से कई साल बन्द हो चुका है। (क्रमश)
अब पुल पर आकर मैंने गाडी अटका दी अगली पोस्ट में पुल पार कराऊँगा। किसी को ऐतराज हो तो तब तक पुल पार कर लेना तब तक जय राम जी की............अगला भाग यहाँ से देखे
चलो हम नहीं रुकने वाले हम पुल पार करेंगे ..जय हो ..!
जवाब देंहटाएंरोचक है, कन्डक्टरी के साथ साथ ज्ञान भी देते हैं महाशय, आदमियों के आदमी..
जवाब देंहटाएंItna sunder varnan lagta hai jaise aapke sath hi yatra kar rahen hain agle bhag ka besabri se intjaar .
जवाब देंहटाएंItna sunder varnan lagta hai jaise aapke sath hi yatra kar rahen hain agle bhag ka besabri se intjaar .
जवाब देंहटाएंमेरे देहरादून का जिक्र हो और मैं न आऊं ये हो नहीं सकता बहुत अच्छा लगा पढ़कर पर बुरा लगा बहन से मिले बिना लौट गए | जिस मंदिर डाट काली का जिक्र किया है उसके विषय में एक बात विशेष है जो मैं बताना चाहती हूँ ,देहरादून में जो कोई भी नया वाहन खरीदता है वो डाट काली पर अपने वाहन की पूजा कराता है जिसकी मान्यता है की आपकी गाडी कभी किसी को या आपको नुक्सान नहीं पहुंचाएगी और सच में मेरी गाडी ने आज तक कभी कहीं धोखा नहीं दिया गाडी से देहरादून से चन्नई,और आन्ध्र तक का सफ़र कई बार किया | बहुत सुन्दर विस्तार से आपने यह व्रतांत लिखा है इसके लिए और जन्माष्टमी के लिए हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर विस्तार..जय हो ..जन्माष्टमी की बधाई...
जवाब देंहटाएंहमें कोई ऐतराज नहीं है भाई, अगली बार पुल पार करवा देना :)
जवाब देंहटाएंजय राम जी की|
फ़ोटो के बिना पोस्ट यूं लग रही है कि कोई रात को गंजा होकर कहीं अंधेरे में निकल गया हो
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