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यहाँ पर उस समय इस जगह का दर्शन/अवलोकन करने के लिये कोई शुल्क अदा नहीं करना पडता था। आज जरुर कुछ दस-बीस रुपये तो देखने के बदले लिये ही जाते होंगे। जब सडक से इस भवन की चारदीवारी के अन्दर दाखिल हुए तो ऐसा लगा कि जैसे हम किसी राजा के घर को देखने जा रहे है। यह इमारत वैसे ऊँचाई में तो ज्यादा ऊँची नहीं है लेकिन विशालता के मामले में यह देहरादून की बहुत सी इमारतों पर भारी पड जाती है। यह विशाल इमारत भी भारत के कर्ता-धर्ता अंग्रेजों की ही बनवाई हुई है। हम इसके विशाल आँगन से होते हुए इसके मुख्य भवन के मुख्य दरवाजे से अन्दर प्रवॆश कर जाते है। जहाँ से हमें वन जीव-जगत की एक अलग ही दुनिया के बारे में एक अलग ही नजारा देखने को मिल जाता है। यहाँ ना जाने कितनी तरह के पेड, व उनके अवशेष सम्भाल कर रखे हुए है। यहाँ पर एक चीज मुझे ऐसी याद है कि जिसे मैं जीवन भर नहीं भूल सकता हूँ, जिन बन्धुओं ने यह स्थल देखा होगा वह मेरी बात से जरुर सहमत दिखाई दे जायेंगे। अब आपको उस बात के बारें बताता हूँ। यहाँ पर एक ऐसे पेड का तना गोलाई में कटा हुआ रखा है जिसमें उस पेड के प्रत्येक वर्ष की जानकारी मिल जाती है। अरे जरा रुकिये कहीं आप कुछ गलत समझ लो, पहले मैं जरा थोडा सा स्पष्ट कर देता हूँ कि यहाँ पर जो पेड या कहो कि पेड का कटा हुआ तना प्रदर्शित किया गया है। उस पेड की उम्र कई सौ साल बतायी गयी है। जिन लोगों ने वनस्पति विज्ञान के बारे में थोडी सी भी जानकारी है, वह जानते है कि किसी पेड की उम्र की गणना करने के लिये उस पेड के तने में बने रिंग से उस पेड की उम्र की गणना की जाती है। कुदरत प्रत्येक वर्ष बीत जाने पर हर पेड-पौधे में एक छल्ला या रिंग बना देती है जिससे कि उस पेड की सही उम्र निकालने में बहुत मदद मिलती है। कुछ ऐसे ही रिंग इस पेड के कटे हुए तने में दिखाई देते है। जिस प्रकार पुरानी लकडी की उम्र कार्बन डेटिंग विधि से निकाल ली जाती है। जैसा कि ताजमहल के नीव में व दरवाजे में लगायी हुई लकडी का एक छॊटा सा टुकडा काट कर अमेरिका भेजा गया था जिससे यह पता लगा था कि उसकी नीव व दरवाजों में प्रयोग की गई लकडी ताजमहल बनवाने की तिथि से कुछ तीन सौ साल पुरानी है। वैसे वह पेड बहुत सम्भाल कर रखा गया था। बीस साल बाद भी सुरक्षित मिल जायेगा। हाँ यह जरुर हो सकता है उसे देखने के लिये आजकल कुछ नाम-मात्र की कीमत अदा करनी पड जाती हो। इस F.R.I. में हमने अन्य बहुत से विविध प्रकार के पेड-पौधे देखे व उसके बारे में जानकारी ली थी। अब जब भी देहरादून गया तो इस स्थल के फ़ोटो भी लेकर आऊँगा। इस स्थल को जितना हो सका उतना देखा व वहाँ से बाहर आ गये। बाहर आने के बाद फ़िर से कानूनी जुगाड में बैठ, अपने घर भण्डारी बाग में आ गये।
आज के दिन हमारा कार्यक्रम देहरादून शहर में स्थित व पूरे भारत भर में मशहूर वन अनुसंधान संस्थान देखने जाने का बनाया हुआ था। इसे छोटे रुप में F.R.I. कहते है। जहाँ पर जाने के बाद मुझे कई बातों के बारे में पहली बार पता चला था। चलो.. आपको भी इसके बारे में बता ही देता हूँ। बबलू और संदीप (उस समय तक संदीप को संदीप के नाम से ही बोला जाता था आज की तरह जाट देवता कहकर नहीं पुकारा जाता था।) बीस साल में कुछ तो फ़र्क आना ही था। हाँ तो मैं आपको बता रहा था कि हम दोनों अगले दिन सुबह आठ बजे घर से F.R.I. देखने के लिये निकल पडे थे। वैसे F.R.I. के नाम से यह स्थान पूरे देहरादून में जाना जाता है पर शहर में बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे जो इसके हिन्दी वाले बडे नाम से भी जानते होंगे। घर से निकल कर हम सबसे पहले सहारनपुर चौक पहुँचे, जहाँ से हमने एक ऑटो वही तीन पहिया वाला सवारी ढोने का कानूनी जुगाड, हमें सहारनपुर चौक से F.R.I. के पास तक के लिये मिल गया था। यहाँ चौक से टेडी-मेडी सडकों से होता हुआ, यह कानूनी जुगाड हमें F.R.I. के मुख्य गेट तक ले गया था। यहाँ हमने ऑटो छोड दिया व पैदल चल पडे।
यहाँ पर उस समय इस जगह का दर्शन/अवलोकन करने के लिये कोई शुल्क अदा नहीं करना पडता था। आज जरुर कुछ दस-बीस रुपये तो देखने के बदले लिये ही जाते होंगे। जब सडक से इस भवन की चारदीवारी के अन्दर दाखिल हुए तो ऐसा लगा कि जैसे हम किसी राजा के घर को देखने जा रहे है। यह इमारत वैसे ऊँचाई में तो ज्यादा ऊँची नहीं है लेकिन विशालता के मामले में यह देहरादून की बहुत सी इमारतों पर भारी पड जाती है। यह विशाल इमारत भी भारत के कर्ता-धर्ता अंग्रेजों की ही बनवाई हुई है। हम इसके विशाल आँगन से होते हुए इसके मुख्य भवन के मुख्य दरवाजे से अन्दर प्रवॆश कर जाते है। जहाँ से हमें वन जीव-जगत की एक अलग ही दुनिया के बारे में एक अलग ही नजारा देखने को मिल जाता है। यहाँ ना जाने कितनी तरह के पेड, व उनके अवशेष सम्भाल कर रखे हुए है। यहाँ पर एक चीज मुझे ऐसी याद है कि जिसे मैं जीवन भर नहीं भूल सकता हूँ, जिन बन्धुओं ने यह स्थल देखा होगा वह मेरी बात से जरुर सहमत दिखाई दे जायेंगे। अब आपको उस बात के बारें बताता हूँ। यहाँ पर एक ऐसे पेड का तना गोलाई में कटा हुआ रखा है जिसमें उस पेड के प्रत्येक वर्ष की जानकारी मिल जाती है। अरे जरा रुकिये कहीं आप कुछ गलत समझ लो, पहले मैं जरा थोडा सा स्पष्ट कर देता हूँ कि यहाँ पर जो पेड या कहो कि पेड का कटा हुआ तना प्रदर्शित किया गया है। उस पेड की उम्र कई सौ साल बतायी गयी है। जिन लोगों ने वनस्पति विज्ञान के बारे में थोडी सी भी जानकारी है, वह जानते है कि किसी पेड की उम्र की गणना करने के लिये उस पेड के तने में बने रिंग से उस पेड की उम्र की गणना की जाती है। कुदरत प्रत्येक वर्ष बीत जाने पर हर पेड-पौधे में एक छल्ला या रिंग बना देती है जिससे कि उस पेड की सही उम्र निकालने में बहुत मदद मिलती है। कुछ ऐसे ही रिंग इस पेड के कटे हुए तने में दिखाई देते है। जिस प्रकार पुरानी लकडी की उम्र कार्बन डेटिंग विधि से निकाल ली जाती है। जैसा कि ताजमहल के नीव में व दरवाजे में लगायी हुई लकडी का एक छॊटा सा टुकडा काट कर अमेरिका भेजा गया था जिससे यह पता लगा था कि उसकी नीव व दरवाजों में प्रयोग की गई लकडी ताजमहल बनवाने की तिथि से कुछ तीन सौ साल पुरानी है। वैसे वह पेड बहुत सम्भाल कर रखा गया था। बीस साल बाद भी सुरक्षित मिल जायेगा। हाँ यह जरुर हो सकता है उसे देखने के लिये आजकल कुछ नाम-मात्र की कीमत अदा करनी पड जाती हो। इस F.R.I. में हमने अन्य बहुत से विविध प्रकार के पेड-पौधे देखे व उसके बारे में जानकारी ली थी। अब जब भी देहरादून गया तो इस स्थल के फ़ोटो भी लेकर आऊँगा। इस स्थल को जितना हो सका उतना देखा व वहाँ से बाहर आ गये। बाहर आने के बाद फ़िर से कानूनी जुगाड में बैठ, अपने घर भण्डारी बाग में आ गये।
शाम को मैं भण्डारी बाग के पास में लक्खी बाग कालोनी में ही स्थित एक बाग में घूमने चला गया था। वहाँ पर मैंने बडे-बडे ढेर सारे चमगादड देखे थे। वह मेरे जीवन का पहला वाक्या था जिसमें मैंने बडे वाले चामचीरड ( हमारे यहाँ बडे-बुजुर्ग इन्हे इसी शब्द से पुकारते है।) पहली बार देखे थे। पहले तो मैं इन्हे कुछ और ही समझ बैठा था। खैर अंधेरा होने से पहले मैं घर पर वापिस आ गया था। रात भर यही ख्याल आते रहे कि कल कहाँ जाया जायेगा? अगले दिन सुबह-सुबह मैं मामाजी के घर के पास स्थित गुरु राम स्कूल के नजदीक वाले खेतों में टहल रहा था तो आसमान में अचानक से कुछ अजीब-अजीब सी आवाजे आनी शुरु हो गयी जब मैंने ऊपर देखा तो अपना तो गला ही सूख गया था, क्योंकि मेरे सिर के ऊपर पहाडी मधुमक्खी का विशाल झुन्ड उड रहा था। मैंने कही पढा था कि अगर कही मधु मक्खी आपको चारों और से घेर ले तो तुरन्त जमीन में लुढक जाओं। मैंने जमीन में लेटने में एक सेक्न्ड की देरी नहीं की। जमीन पर लेटने का मुझे लाभ मिला जितनी आफ़त मेरे सिर के ऊपर उड रही थी वे सारी की सारी बिना मुझ पर हमला बोले आगे की ओर निकल गयी थी। अक्सर मधु मक्खी के मामले में होता यह है कि मधु मक्खी का हमला देख लोगबाग भागने लगते है कि इनसे जान बच सके, और भागने पर होता उल्टा ही है। मधुमक्खी भागने वाले को देख यह समझ बैठती है कि उसी ने हमारे घर/छत्ते को नुक्सान पहुँचाया होगा। वे सारी की सारी उस पर टूट पडती है, फ़िर उसका क्या हाल होता होगा? किसी ऐसे भुक्तभोगी से पता करना, जिसको इन्होंने काटा होगा। वही आपको असली बात बतायेगा। मुझे तो एक बार गांव में ईख के खेत में से एक गन्ना निकालते समय एक ततैया ने काट लिया था और काटा भी कहाँ मेरे ऊपर वाले होठ पर नाक के ठीक नीचे, काटने के थोडी देर बाद दर्द तो बन्द हो गया था लेकिन दर्द बन्द होने के बाद मेरा नाक से नीचे वाला हिस्सा सूजने लगा और आधे घन्टे में ही मैं हनुमान जी बन गया। खेत से घर तक आते-आते मैं पूरी तरह हनुमान जी वाली शक्ल अख्तियार कर चुका था। उस हालत में किसी तरह मैं घर पहुँचा। पूरे दो दिन बाद जाकर मैं सामान्य हालत में आ सका था तब तक मैंने घर पर ही पडे रह कर हनुमान जी से इन्सान बनने की प्रतीक्षा की थी। एक ऐसी ही घटना मुझे और याद आ रही है कि जब मैं शायद चौथी या पांचवी कक्षा में पढता था। स्कूल में मुझे पेड पर ततैया का एक घोसला/घर दिखाई दिया। शरारती तो बचपन में भी था। (अब भी हूँ) अत: मैंने एक पत्थर उठा कर उस छत्ते पर दे मारा, और गजब देखिये निशाना/तुक्का भी पहले वार में ही निशाने पर फ़िट जा बैठा। मैं यह सोच रहा था कि तीन-चार बार पत्थर मारने के बाद ही कोई एक पत्थर लग पायेगा। जैसे ही पत्थर उस छत्ते पर लगा वैसे ही ततैया ने मुझ पर हमला बोल दिया। मैं भाग कर कमरे में जा घुसा, एक जालिम या कहो बदला लेने पर उतारु ततैया ने मेरी पीछा कमरे में भी नहीं छोडा। जैसे ही उसे मौका मिला उसने मेरी आँख के ऊपर भौरी के पास काट लिया। उसका मेरी आँख पर काटना था कि थोडी ही देर में एक फ़ाटक बन्द होने लगा। पूरे तीन दिन तक उस फ़ाटक से कुछ खास दिखाई नहीं दे रहा था। अगर उस समय फ़ोटो लेने का इन्तजाम होता तो मैं वह फ़ोटो जरुर लेता। देहरादून वाली बात तो बीच में ही रह गयी है। चलो वही चलते है।
मैं आपको बता रहा था कि भण्डारी बाग वाले गुरु राम राय स्कूल के पास वाले खेतों में टहलते समय की घटना के बारे में, अब मैं वापिस घर चलता हूँ ताकि मैं आपको लक्ष्मण सिद्ध मन्दिर लेकर चल सकूँ। मैं घर पर आने के बाद सोच रहा था कि आज कहाँ जाया जाये? बबलू के पास आज समय नहीं था कि वह मेरे साथ कही घूमने चल सके, अत: आज मैंने खुद ही कही जाने का निश्चय कर लिया था। मैंने बबलू की साईकिल ले ली और मैं देहरादून से कई किमी दूर घने जंगलों में स्थित लक्ष्मण सिद्ध मन्दिर देखने के लिये निकल पडा। बबलू तो पहले भी वहाँ कई बार जा चुका था। बबलू ने मुझे कई काम की जानकारी दी। मैं घर से स्टेशन के पास से होता हुआ उसी हरिद्धार चौराहे पर आया जो चौराहा सहस्रधारा जाते समय आया था। अबकी बार यहाँ से सीधे हाथ नीचे की ओर हरिद्धार रोड पर जाना था, ना कि उल्टे हाथ मसूरी की ओर। मैंने अपनी साईकिल हरिद्धार की दिशा में दौडा दी। शायद घन्टे भर में ही मैं उस जगह जा पहुँचा जहाँ मुझे साईकिल सडक पर ही छोड पैदल ही पहाडियों में वन में मन्दिर की ओर बढना था। कुछ ही देर में मैं घने वन के बीच बने इस मन्दिर में जा पहुँचा था। यहाँ जाकर मैंने पाया था कि वाह क्या शांत गजब की जगह है? यह मन्दिर वैसे तो घने जंगल में है ही लेकिन सडक से इस तक जाना भी एक अलग ही रोमांच महसूस कराता था। देहरादून के इतने नजदीक आज शायद यह देहरादून की बढती हुई आबादी में समा गया होगा। लेकिन बीस साल पहले यहाँ आबादी का नामोनिशान तक नहीं था। मैं घन्टा भर मन्दिर के प्रांगन में रुकने के बाद, अपनी साईकिल पर सवार हो वापिस घर की ओर चल दिया था। अब घर जाते हुए मुझे मार्ग में चढाई का सामना करना पड रहा था। यहां आते समय तो मुझे सडक पर ढलान मिली थी। जिससे मार्ग कब कट गया था मुझे मालूम ही नहीं हुआ था। खैर बिना कोई ज्यादा खास परेशानी के मैं घर तक पहुँच गया था। मैंने लगभग तीस किमी साईकिल चलायी होगी, लेकिन मुझे थकावट नाम की भी नहीं हुई थी। रात को सोते समय फ़िर से मेरे मन में वही ख्याल आने लगे कि कल कहाँ जाना हो पायेगा? या कल का दिन बिल्कुल खाली निठल्ला बैठ बिताया जायेगा। वैसे अगले दिन भी मैं बबलू की साईकिल उठा सहारनपुर की चल दिया था। अब मैं साईकिल लेकर सहारनपुर रोड पर कहाँ तक गया इसके बारे में अगले लेख में पढ लेना। तब तक राम-राम।
चलो कल की कल बताऊंगा।....... अगला लेख यहाँ से देखे।
रोचक|
जवाब देंहटाएंदेहरादून कई बार जाना हुआ लेकिन F.I.R. नहीं गए अब तक, अबकी बार जरूर जायेंगे|
ये नया पंगा क्या शुरू कर दिया, उल्टी गंगा बहा रहे हो? Please prove you're not a robot, what is this पडौसी भाई?
संजय भाई मोडरेशन हटाने चक्कर में वर्ड वेरिफिकेशन लग गया था,
हटाएंबताने के लिए आभार,
हटा दिया है, नहीं तो पता नहीं किसे किसे रोबोट बनना पड़ता?
OLD MEMORY, GREAT WORK.
जवाब देंहटाएंबहुत मज़ा आ रहा है...आप के साथ सफ़र पर...
जवाब देंहटाएंरोचक, देहरादून पुनः जाग उठा मन में..
जवाब देंहटाएंइस संस्मरण को आपने वैज्ञानिक पुट दे दिया है रेडिओ -कार्बन डेटिंग से पुराने पड़े पुरातात्विक महत्व के कार्बनिक पदार्थ की उम्र मालूम की जाती है .किसी भी जैविक प्रणाली (पेड़ )में जब तक वह जीवित है कार्बन के रेडिओ और सामान्य स्टेबिल आइसोटोप का एक सुनिश्चित अनुपात रहता है .यह कार्बन १४ /कार्बन १२ अनुपात तब छीजने लगता है जब वह प्रणाली मृत हो जाती है या वन माफिया उसकी ह्त्या कर देता है .यही कुंजी है,उम्र निकालने की , इस छीजते अनुपात से रेडिओ समस्थानिक की हाफ लाइफ की जरब (गुना ) करने से उस प्रणाली की आयु पता चल जाती है .
जवाब देंहटाएंफिशन ट्रेक डेटिंग अति विकसित विधि है रेडिओ -धर्मिता द्वारा काल निर्धारण की .
और हाँ भाई संदीप जब हम मधु मख्खियों को छेड़ कर भाग खड़े होतें हैं तब अपने पीछे एक आंशिक निर्वात (हवा का कम दवाब ,रेअरिफेक्शन,rarefaction )बना देतें हैं ,मख्खियाँ इसी में फंसी पीछे पीछे चली आतीं हैं .,सामान्य दाब से.
छेड़ना ही है तो इटली के छत्ते को छेड़ो ,कुछ नाम हो जग में ...
बढ़िया ज्ञानवर्धकपोस्ट प्रसंग वश १९७० के दशक में ये सारा इलाका हमने भी छाना था उस पेड़ का क्रोस सेक्शन (अनुप्रस्थ काट )भी देखा था जिसका आपने ज़िक्र किया है .