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गुरुवार, 30 जून 2011

संगम (प्रयाग) से काशी(बनारस) तक पद यात्रा भाग 2, SANGAM, ALLAHABAD, VARANASHI, GANGA

प्रयाग काशी पद यात्रा-
आज हमारी पैदल यात्रा का तीसरा दिन शुरु हो गया था, दिनांक थी 27 फ़रवरी 2011, पहले दिन हम चले 20-22 किलोमीटर, दूसरे दिन चले 40-42 किलोमीटर के आसपास, हम ठीक छ: बजे नहा धो कर आज के अपने सफ़र पर चल पडे, ये तो मैं पहले ही बता चुका हूँ कि जिस जगह हम रुके हुए थे, उस के ठीक सामने एक बोर्ड था जिस पर लिखी दूरी से साफ़ हो रहा था, कि हम दिल्ली व कोलकत्ता से एक समान दूरी पर खडे थे। 

ये देखो ट्रक पर क्या जा रहा है, पहिया गिन सकते हो।



हमारा हर-एक यात्रा पर चलने का समय ठीक सुबह छ: बजे का ही रहता है, इसलिये हमारे साथ आलस वाले भाई-बंधु जाकर तंग हो जाते है कि यार किसके साथ आ गया हूँ। अपने जैसे दिमाग/खोपडी के बंदे साथ हो तो सफ़र का मजा ही कुछ और होता है, नहीं तो जितने लोग उतनी बात हो जाती है।  
सुबह पूरे दो घंटे चलने के बाद ही हम कुछ चाय-पानी के लिये रुकते थे, इन दो घंटों में हम दस किलोमीटर का सफ़र आराम से पार कर जाते थे। दो घंटे बाद पूरे 15 मिनट का आराम जिसमें चाय/पानी व बिस्कुट जैसा हल्का-फ़ुल्का कुछ पेट में पहुँचाया जाता था। यहाँ मुझे छोडकर दोनों प्राणी चाय जरुर पीते थे, अपुन तो गिनकर पाँच बिस्कुट व दो गिलास पानी का भोग लगा लिया करते थे। एक खास बात और देखी यहाँ की चाय में वो ये कि सभी चाय वाले चाय को मिट्टी के बने जरा-जरा से कुल्हड जैसे बर्तन में चाय दिया करते थे, जिसे कहते है कि पियो व फ़ोड दो ताकि वो फ़िर से मिट्टी बन जाये। 

एक ढाबे पर आराम व भोजन


 इसके बाद अपना नियम होता था, कि चार किलोमीटर के बाद या उससे ज्यादा चलकर आराम किया जाये, सुबह दस बजे तक तो कुछ खास परेशानी नहीं आती थी, उसके बाद धूप में जो मजा/सजा आता था उसे शब्दों में ब्यान नहीं कर सकता हूँ, बस याद कर जकझोर उठता हूँ, ये परेशानी तीन बजे तक बनी रहती थी। तीन बजे के बाद जाकर ही गर्मी से राहत मिलती थी। दोपहर के तीन घंटे तो हमको रुला देते थे, सडक की सारी गर्मी हम झेलते हुए, आगे जा रहे थे, गर्मी से बचने के लिये हम अपनी टोपी व अंगोछे पानी मिलते ही भिगो लिया करते थे।

उसी ढाबे के अपने सब्जी के खेत


अपना दोपहर का भोजन ठीक एक बजे के पास ही रहता था, जिसकी अवधि एक घंटा होती थी, इस सफ़र में एक नयी बात अनुभव की वो ये थी कि रहना, खाना, पीना, सोना, नहाना, जैसे सभी कार्य करने के लिये मार्ग में आने वाले ढाबे से बढकर कोई जगह नहीं है। हमने जब ये बात जानी उसके बाद कहीं और का खाना, नहाना, सोना नहीं किया। दोपहर में हमने जिस ढाबे पर भोजन किया, उसने पीछे बने खेतों में सब्जियाँ उगा रखी थी, जिसका मैंने फ़ोटो भी लिया था, इस इलाके में बहुत से घर मकानों की छ्त खपरैल से बनी हुई थी, जिसके लिये भी एक फ़ोटो लिया गया है।
ढाबे के साथ में पॆड पौधे भी लगाये जाते है जिससे ढाबे की सुंदरता भी बढ जाती है। एक अच्छी बात ज्यादातर ढाबे बस्ती या गाँव से काफ़ी दूर हट कर बने कुए थे।


उसी ढाबे की छ्त जो खपरैल की बनी थी।


दोपहर का भोजन करने के बाद तो चलने का मन बिलकुल भी नहीं करता था, हण्डिया शहर, गोपीगंज तो कल ही पीछे छोड दिया था, आज हम काशी की दूरी बीस-पच्चीस किलोमीटर के आसपास छोडना चाह रहे थे, आज भी 40 किलोमीटर का मार्ग तय करना था,


उसी ढाबे की के बाहर एक प्यारा सा पौधा


हम आगे के सफ़र पर चलते रहे तो हमें एक ऐसा मंदिर मिला जो काफ़ी पुराना था, इसके किनारे एक पुराना पेड था, जो एक दम सुखा हुआ है, किनारे पर एक कुआँ भी है जो कि आज भी प्रयोग में लाया जा रहा है। यहाँ भी हमने कुछ देर आराम किया, पानी पिया, पेड का फ़ोटो लिया व आगे बढ लिये। आज तीसरे दिन हमारे पैर सडक की गर्मी से तंग होकर हमें परेशान करने लगे थे, हमारे पैरों में छाले भी पडने लगे थे, लेकिन हम तो दीवानों की तरह इन छालों की परवाह भी नहीं कर रहे थे, जब एक जगह हमने आराम किया व जूते निकाल कर बैठ गये जब दस-पन्द्रह मिनट बाद दुबारा जूते पहनने लगे तो बडी मुश्किल से पहन पाये।


उस पौधे के सामने मेरा भी


शाम होते-होते हम एक ढाबे पर जा पहुँचे। हमने रात में ठहरने के बारे में बात की तो ढाबे के मालिक ने(बडी-बडी मूछे वाले) कहा कि हमारा ढाबा सब के लिये खुला है, यहाँ सिर्फ़ खाने के पैसे लिये जाते है, नहाना व सोना हमारी और से सब के लिये एक तोहफ़ा है, उस ढाबे का नाम देखो  "ड्राईवर ढाबा" काशी से लगभग 24-25 किलोमीटर पहले है, काशी जाते हुए सीधे हाथ की ओर 
ये ढाबा आता है। अपनी पसंद का खाना बनवाया खूब खाया, टीवी पर कोई फ़िल्म भी चलायी हुई थी। मैं तो सो गया रात में जब भी नींद खुलती थी तो टीवी चलता हुआ पाता था। रात भर ट्रक वाले आते रहते थे। हम आराम से सोते रहे।

मार्ग में एक कई सौ साल पुराना सुखा हुआ पेड


 सुबह आराम से अपने उसी समय ठीक छ: बजे हम नहा धोकर तैयार थे। हमारे एक साथी ने कहा कि आज आलू के परांठे खा कर चलेंगे। भाई ने इतने भारी बना दिये कि दो-दो झेलने भारी पड गये। किसी तरह दो ही काफ़ी और से माफ़ी वाली बात मानी। कोई दो घंटे बाद राजा का तालाब नाम का छॊटा सा शहर पार कर लिया, इस से कुछ आगे जाकर उल्टे हाथ एक नवनिर्मित मन्दिर देखा जिसका उदघाटन एक दिन पहले ही हुआ था, धीरे-धीरे हम उस तिराहे पर जा पहुँचे, जहाँ से हमें हण्डिया से मिला सुन्दर सा मार्ग छोड कर उल्टे हाथ की ओर जाना था, यहाँ से मार्ग एक लेन का ही था, व दूरी मात्र 13 किलोमीटर बाकि थी, चार-पाँच किलोमीटर बाद जाकर एक तिराहा आया, जिससे हम काशी विश्वनाथ मन्दिर की ओर मुड गये। शहर के घूमावदार मार्गों पर लोगों से मालूम करते-करते हम फ़ाटक पार करते हुए, गुरुद्धारे के सामने से होते हुए, ठीक दोपहर दो बजे अपने गंतव्य स्थल काशी विश्वनाथ मन्दिर के द्धार जा पहुँचे। पास में ही हमने एक कमरा 250 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से लिया जो कि एक लाला का घर था।

एक अभी कुछ दिन पहले बना मन्दिर


उसी मन्दिर का


उसी मन्दिर का अपना हवन कुंड


यहाँ से मार्ग हो गया अलग-अलग सीधे हाथ कलकता व उल्टे हाथ काशी


प्रयाग की ओर का फ़ोटो


ये रहा पैदल चलने का सबूत

कमरे में सामान रख हमने कुछ देर आराम किया, जूते निकाल चप्पल पहनी, व गंगा किनारे जा पहुँचे।
ये आ गये काशी के गंगा तट पर

बस बहुत लम्बाई हो गयी है  बाकि आगले भाग में..............................

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प्रयाग काशी पद यात्रा-

29 टिप्‍पणियां:

  1. मैने कई बार डेढ सौ किलो मीटर से उपर की पदयात्रा की है,एक दिन मैं 58 किलो मीटर पैदल चला। कभी पैरों में छाले नहीं हुए।

    लेकिन इसके लिए कुछ जादू करना पड़ता है :)

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  2. nice pics
    good to see that still something is offered free in a highway Dhaba.

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  3. लो जी हम भी आ गए काशी लफ्ज़ -दर -लफ्ज़ पढ़ते बांचते .दो चीज़े साफ़ थीं-आपका पेट बिलकुल नहीं है .समतल है आगे का भाग कोई पठार या पहाड़ नहीं चर्बी का ।
    दूसरा आपके बिग टो से थोड़ा पैर के ऊपर एक छाला है .याद आ गया -जिनके होंठों पे हंसी पाँव में छाले होंगें ,हाँ वहीँ लोग तेरे चाहने वाले होंगें ।
    ढाबे वाला का औदार्य अनुकरणीय है .नहाना धोना फिरी ,सोना फिरि .हिन्दुस्तान में यही तो मयस्सर नहीं है लोगों को वरना नहाने के पांच और सोने के पच्चीस आराम से लिए जा सकतें हैं .चारपाई का दस एक्स्ट्रा ।
    काशी के घाट पर बनी रंगोली सीधी रंगीन लकीरें भी सुन्दर लग रहीं थीं .

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  4. अच्छा, काशी के घाट पर ये रंगोली हैं। मुझे तो दरी बिछी सी लग रही हैं।
    चप्पल पहनकर की है यात्रा। भाई, जूते भी तो पहने जा सकते हैं। मैं जब पहली बार हरिद्वार से कांवड लाया था तो सबकी देखा-देखी चप्पल में लाया था। उसके नतीजे आने के बाद कसम खा ली कि चप्पल अलविदा। फिर बाकी की चार यात्राएं जूते पहनकर की। तीन बार कपडे के और एक बार चमडे के। भोला शंकर जूतों को देखकर मुरा माने तो माने। यही क्या कम है कि हम उसकी खातिर पैदल चले हैं।

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  5. पंवार जी
    आपके इस यात्रा लेख ने तो यात्रा ही करा दी , प्रस्तुति के लिए आभार .

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  6. यात्रा अपने चरम पर है...और क्रमशः ने पुन: उत्सुकता बढ़ा दी है...

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  7. नीरज भाई,
    काशी के घाट पर जाकर कमरा लेकर ही जूते निकाल चप्पल पहनी थी,
    सडक की गर्मी व किनारे पर कच्चा मार्ग ना होने के कारण हमें भरी दोपहर में धूप में गर्मा-गर्म सडक पर चलने के कारण ही छाले पड गये थे,
    थकावट व अन्य किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं आयी थी।

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  8. वीरु जी
    आपकी सब बाते सोलह आने सच, सच, सच
    बहुत मजा आया इस पैदल घुमक्कडी में,
    आगे के लेख में एक कोने से लेकर लोहे के पुल तक सारे घाट के दर्शन करना जी,
    काशी करवट भी दिखाया जायेगा।

    ललित भाई आप वाला जादू हम से ना होगा।

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  9. चित्रों के सुंदर सबूतों के साथ आपने यात्रा विवरण दिया है. दिल के छाले दिखाने का रिवाज़ है जाट भाई, पाँव के नहीं :)) अब आपके छाले का क्या हाल है.

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  10. This is a exciting trip. I am sure, I could not have walked for such a long distance.

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  11. चित्रों सहित बहुत सुन्दर यात्रा वृतांत प्रस्तुत किया है आपने.
    बम बम भोले,बम बम भोले
    आभार.

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  12. सुन्दर चित्रों के साथ सार्थक यात्रा..धन्यवाद....

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  13. चलिए एक अच्छा कसरत हो जाता है ! पहले मै भी पैदल चल लेता था , पर अब नहीं होगा ! यह यात्रा भी ढाबे वाली अच्छी रही ! बधाई !

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  14. @ अपने जैसे दिमाग/ खोपड़ी के बन्दे साथ हों ---

    भाई जी आखिर ये बन्दा कहना क्या चाह रहा है ?

    क्या ये जाट नहीं ??

    हा हा हा हा ---

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  15. आप एक बात जान लें--

    पंजाब से बंगाल की तरफ आने में दो चीजे जोरदार तरीके से नजर आएँगी--

    दाल में पानी ज्यादा
    और
    चाय का लोटा --बदलता जायेगा ढक्कन में--
    अभी तो कम से कम छोटा कप --

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  16. आप तो कमाल कर रहे हैं..... बहुत बढ़िया चित्र ...

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  17. मस्त भाई, लेकिन नीरज की बात सही हे, ओर सुबह चार बजे सफ़र शुरु करो तो ओर भी अच्छा होगा

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  18. चलते रहो भाई जाट देवता हम भी चल रहे हैं साथ मुफ़्त मे वैसे पढ़ कर मन मे इच्छा हो रही है कि एकाध सफ़र ऐसा हम भी करें तो कैसा रहे

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  19. BHAI MAI BHI KASHI KE PAS KA HI HU.
    PAHLE AAP NE NAHI BATAYA NAHI TO KASHI ME 250 KI JAGAH FREE ME RUKNE KI VYAVASTHA HO JATI.KOI BAT NAHI AGLI BAR AANA TO JARUR KAHNA.

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  20. आप के लिखा बहुत आच्हा है
    चित्र बहुत आच्हा है

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  21. सुन्दर चित्रों के साथ बढ़िया यात्रा विवरण

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  22. कुछ और फोटो डालतें तो भी हम न कहते की पोस्ट लंबी है :)

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  23. अरे यार
    मुझे लगता है कि
    पढने वाले सिर्फ़ खानापूर्ती कर रहे है,
    कमैन्ट करने में,
    इस पोस्ट के पहले फ़ोटो के बारे में किसी ने भी नहीं बताया है,
    कि वो क्या जा रहा है इस ट्रक मे?

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  24. जाट देवता आप कभी मोटे नहीं हो सकते .मोटे होने के लिए पैदल चलना बंद करना होगा ."माउस पोटेटो"बनना पडेगा हमारी तरह .बे -हिसाब दारु पीनी पड़ेगी .खुदा आपको और आपकी यात्रा को सलामत रखे .मोटे हों आपके दुश्मन .

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  25. प्रयाग से बनारस तक की यात्रा का वर्णन तस्वीरों के साथ बहुत सुन्दर रूप से किया है आपने ! जैसे जैसे पढ़ते गयी मुझे ऐसा लगा जैसे मैं भी घूमकर आ गयी! पदयात्रा करना तो मेरे लिए नामुमकिन है पर मानना पड़ेगा आपको क्यूंकि पैरों में छाले पड़ने के बावजूद आपने हिम्मत नहीं हारी और मंज़िल पर पहुँचने में कामयाब हुए! शानदार पोस्ट!

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  26. संदीप जी ,नरेश जी व प्रेम जी हम मानते है की आप अच्छी यात्रा कर रहे हो पर प्रेम जी आपके सामने बहुत कमजोर पड़ते हैं पता नहीं वो इतनी लम्बी यात्रा कैसे कर लेते हैं और उस ट्रक में रेल का इंजन नजर आता है बाकि पक्का पता नहीं है और इस यात्रा की आपको बहुत -बहुत बधाई

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