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देहरादून का माजरा बीस साल पहले जरुर गाँव था लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज यह गाँव भी पूरी तरह शहरीकरण के रंग में रंग चुका है। मैंने आपको बताया था कि माजरा गाँव से पहले एक लोहे का पुल आया था। आज से बीस साल पहले की बात बता रहा हूँ कही आप आज 2012 में वहाँ जाकर तलाशने लगो कि लोहे का पुल तो हमने पार ही नहीं किया। वैसे आज भले ही वह तत्कालीन लोहे का पुल पार नहीं करना होता है लेकिन वह पुल आज भी अपनी जगह पर ही मौजूद है। उस लोहे के पुल की बायी तरफ़ देहरादून जाते समय, सीमेंट वाला बडा व नया पुल कई साल पहले बना दिया गया था। लोहे वाला पुल भले ही एक गाडी के आवागमन के लिये रहा होगा, क्योंकि वह पुल अंग्रेजों का बनवाया हुआ था। उस पुल की एक खासियत यह थी कि उसमें एक भी नट-वोल्ट व वेल्डिंग का प्रयोग नहीं हुआ था। जिन लोगों ने दिल्ली का यमुना नदी पर बना लोहे का पुराना पुल देखा होगा उन्हे याद आ गया होगा कि कैसा पुल रहा होगा। पुल पार करने के लिये यहाँ भी वाहन चालकों को सामने से आने वाली गाडी का ध्यान रखना होता है। यहाँ वैसी परेशानी नहीं आयी जैसी डाट वाली गुफ़ा पार करने वाले पुल पर आती है। डाट वाली गुफ़ा के पास वाला जो मन्दिर है उसके बारे में एक बात एक ब्लॉगर महिला मित्र ने मेरे ब्लॉग पर बतायी है कि देहरादून व आसपास जब भी कोई नया वाहन खरीदता है तो वह इस मन्दिर में जरुर प्रसाद चढाता है। मेरे मामाजी के पास कई ट्रक है और एक बार नया ट्रक लेने के अवसर पर मैं भी वही देहरादून में मौजूद था। मामाजी भी अपने नये ट्रक को लेकर यहाँ इसी मन्दिर पर आये थे। उसके बाद ही उन्होंने ट्रक को अपने कार्य में लगाया गया था।